हिदीं साहित्य में
कविता, कहानी और उपन्यास के बाद जिस एक विधा ने पाठकों को अपने साथ सबसे अधिक
जोड़ा उनमें आत्मकथा और संस्मरण का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। हिंदी में
आत्मकथाओं की लंबी परंपरा रही है लेकिन इनमें से ज्यादातर आत्मकथाओं में लेखक खुद
को कसौटी पर कस नहीं पाते हैं। हिंदी में ज्यादातर आत्मकथाओं में लेखक आसपास के
परिवेश और परिचितों पर तो निर्ममतापूर्वक अपनी लेखनी चलाते हैं लेकिन खुद को बचाकर
चलते हुए एक ऐसी छवि पेश करता या करती है जो उसको आदर्श के रूप में मजबूती से
स्थापित करने में सहायक हो सके। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपनी तारीफ करता है।
बहुधा ऐसा होता है कि जब लेखक के सामने अपनी असहज या अप्रिय परिस्थियों को लिखने
की चुनौती आती है तो वहां से कन्नी काटकर निकल जाता या जाती है। कमोबेश यही स्थिति
संस्मरण लेखन में भी दिखाई देती है। कई बार तो संस्मरणों के जरिए दूसरों को
निबटाने का खेल भी खेला जाता है। कई बार नाम लेकर तो कई बार इशारों में अपनी बात
कहकर। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हिंदी साहित्य में मौजूद हैं। मशहूर अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने कहा भी है
कि वही आत्मकथा विश्वसनीय होती है जो जिंदगी के लज्जाजनक और घृणित कृत्यों को
उजागर करता हो- दिख जाए तो ये पूत के पांव पालने में दिखने जैसा हो।
पिछले दिनों हिंदी
की वरिष्ठ लेखिका और उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा की संस्मरण की किताब को लेकर
हिंदी साहित्य में विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई, मैत्रेयी की खामोशी से विवाद
बढ़ नहीं सका। मैत्रेयी पुष्पा के संस्मरणों की पुस्तक ‘वह सफर था कि मुकाम था’ के केंद्र में राजेन्द्र यादव हैं। राजेन्द्र यादव हिंदी के सबसे
विवादास्पद और विवादप्रिय लेखक थे, लिहाजा उनके निधन के बाद आई इस किताब को लेकर
भी विवाद होना तय ही था । ‘वह सफर था कि मुकाम था’ नाम की इस किताब में मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव को लेकर
अपने संबंधों के बारे में लिखा है। राजेन्द्र यादव और मैत्रेयी पुष्पा के संबंधों
को लेकर साहित्य जगत में लंबे समय से अटकलें चलती रही हैं, कभी अच्छी तो कभी बुरी।
मैत्रेयी पुष्पा ने भी कई बार इस संबंध को मिथकीय पात्रों के आधार परपरिभाषित करने
की कोशिश की । उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस संबंध पर विस्तार से लिखा भी है। मैत्रेयी
पुष्पा की आत्मकथा में जो सब छपा था कमोबेश उसका ही संक्षिप्त रूप या कहें कि राजेन्द्र
यादव को केंद्र में रखकर यह किताब बनाई गई है। यह किताब उन पाठकों को ध्यान में रखकर
लिखी गई है जो संक्षेप में मैत्रेयी की नजर से राजेन्द्र यादव को देखना चाहते हैं।
कह सकते हैं कि ये पतली सी पुस्तक मैत्रैया पुष्पा की दो खंडों की आत्मकथा की टीका
है। इस किताब में ऐसा नया कुछ भी नहीं है
जो पहले मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा ना हो या साहित्य जगत को ज्ञात नहीं हो। राजेन्द्र
यादव और मन्नू भंडारी के अलग होने की वजहों को लेकर भी समय समय पर विवाद उठता रहा
है। ओमा शर्मा के चर्चित इंटरव्यू से लेकर गाहे बगाहे यादव जी के वक्तव्यों तो
लेकर भी इस अलगाव पर बात होती रही है। खुद राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी भी इस
विषय पर बहुत बार बहुत कुछ चुके हैं ।
इस पुस्तक के
प्रकाशन के बाद साहित्य में चाहे अनचाहे इस तरह का माहौल बना कि राजेन्द्र यादव और
मन्नू भंडारी में अलगाव मैत्रेयी पुष्पा की वजह से हुआ। यादव जी के पारिवारिक
मित्र और उनके करीबी इस तथ्य को जानते हैं कि जब यादव जी ने मन्नू भंडारी का घर
छोड़ा था तब वजह कोई और थी। ना तो मीता थी और ना ही मैत्रेयी। इस प्रसंग को उठाकर
साहित्य से जुड़े लोग क्या हासिल करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। यह पूरा मसला
व्यक्तिगत था और साहित्य में इसकी चर्चा व्यर्थ है। राजेन्द्र यादव को जिन भी
परिस्थितियों में मन्नू जी से अलग होना पड़ा था उससे साहित्य जगत का क्या लेना
देना। पाठकों को इस बात से क्या लेना देना कि यादव जी और मन्नू भंडारी के बीच कैसे
रिश्ते थे और अंत तक वो रिश्ते कैसे रहे। दोनों की कृतियों पर बात होनी चाहिए,
दोनों के साहित्यक अवदानों पर विमर्श होना चाहिए। वैसे इन दोनों के संबंधों पर
राजेन्द्र यादव के मित्र रहे मनमोहन ठाकौर ने पतली सी किताब लिखी थी। वह पुस्तक इन
दोनों को जानने के लिए प्रकाशित अबतक की सबसे अच्छी कृति है।
मैत्रेयी पुष्पा के आत्मकथा का जब पहला
खंड ‘कस्तूरी
कुंडल बसै’ आया था
तो वो इस वाक्य पर खत्म होता है- घर का कारागार टूट रहा है।इससे वो क्या संदेश
दे रही थीं इसको समझने की जरूरत है। यादव जी के जीवन काल में भी मैत्रेयी पुष्पा
और राजेन्द्र यादव के बारे में इतना ज्यादा लिखा गया था कि मैत्रेयी की आत्मकथा की
उत्सुकता से प्रतीक्षा करनेवाले पाठकों की रुचि ये जानने में भी थी कि मैत्रेयी, राजेन्द्र यादव के साथ अपने संबंधों को वो कितना खोलती हैं ।
मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के संबंधों में सिमोन और सार्त्र जैसे संबंध की
खुलासे की उम्मीद लगाए बैठे आलोचकों और पाठकों को निराशा हाथ लगी थी । हद तो तब हो
जाती है जब राजेन्द्र यादव राखी बंधवाने मैत्रेयी जी के घर पहुंच जाते हैं, हलांकि मैत्रेयी पुष्पा राखी बांधने से इंकार कर देती हैं।
राजेन्द्र यादव को लेकर मैत्रेयी को अपने पति डॉक्टर शर्मा की नाराजगी और फिर
जबरदस्त गुस्से का शिकार भी होना पड़ता है।लेकिन शरीफ डॉक्टर गुस्से और नापसंदगी
के बावजूद राजेन्द्र यादव की मदद के लिए हमेशा तत्पर दिखाई देते हैं, संभवत: अपनी पत्नी की इच्छाओं के सम्मान की वजह से। लेखिका ने
अपने इस संबंध पर कितनी ईमानदारी बरती है, ये कह
पाना तो मुश्किल है,लेकिन सिर्फ टी एस इलियट के एक वाक्य
के साथ इसे खत्म करना उचित होगा
’भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले
कलाकार में सदा एक अंतर रहता है और जितना बड़ा वो कलाकार होता है वो अंतर उतना ही
बड़ा होता है।‘ मैत्रेयी पुष्पा के आत्मकथा का दूसरा खंड- ‘गुड़िया
भीतर गुड़िया’ यशराज
फिल्मस की उस फिल्म की तरह है, जिसमें
संवेदना है, संघर्ष है, किस्सागोई है, रोमांस है, भव्य
माहौल है और अंत में नायिका की जीत भी - जब राजेन्द्र यादव अस्पताल के बिस्तर पर
पड़े हैं और मैत्रेयी को फोन करते हैं तो डॉक्टर शर्मा की प्रतिक्रिया ‘क्या बुड्ढा
अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?’
लेकिन वही डॉ. शर्मा कुछ देर बाद यादव जी के आपरेशन के कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत कर रहे होते हैं ।
लेकिन वही डॉ. शर्मा कुछ देर बाद यादव जी के आपरेशन के कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत कर रहे होते हैं ।
अब इस बात पर भी विवाद खड़ा किया जा
रहा है कि यादव जी जब अस्पताल में भर्ती हुए थे तो उनके अस्पताल के दाखिला फॉर्म
पर किसने दस्तखत किए थे। कई दावेदार उठ खड़े हुए हैं लेकिन यादव जी के जीवन काल
में कोई भी दावेदार सामने नहीं आया था। उस वक्त अस्पताल ले जाने और डॉ शर्मा के
उनके कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत करने की बात मैत्रेयी ने अपनी आत्मकथा में लिख दी थी
। उसके इतने सालों बाद इस विवाद को उठाने का उद्देश्य क्या हो सकता है या फिर मंशा
क्या हो सकती है, यह तो पता नहीं पर इस पूरे प्रसंग पर यादव जी के जीवन काल में
किसी ने बात नहीं की। यह तथ्य है कि यादव जी को अस्पताल में भर्ती करवाने से लेकर
उनके इलाज की सारी व्यवस्था मैत्रेयी पुष्पा और उनकी बेटी-दामाद करते रहे थे। चाहे
वो एम्स में भर्ती करवाने का मसला ही क्यों ना हो। दरअसल फेसबुक पर लिखने की आजादी
हर किसी को कुछ भी कह डालने का एक अवसर प्रदान करता है जिसका उपयोग हर तरह के
लेखक- कुलेखक कर सकते हैं। मैत्रेयी पुष्पा की इस ‘वह सफर था कि मुकाम था’ किताब
पर नाहक विवाद उठाने की कोशिश की गई। इस किताब के प्रकाशन पर सवाल खड़े होने चाहिए
थे कि आपने इसमें नया क्या दिया है। क्यों आपने अपनी आत्मकथा का संक्षिप्त रूप पेश
किया ? पाठकों
को क्यों इस किताब को पढ़ना चाहिए, आदि आदि। इससे साहित्य का भी भला होता और
पाठकों का भी । मैत्रेयी पुष्पा की इस किताब वह सफर था कि मुकाम था में इस्तेमाल किए गए ‘अपाहिज’ जैसे चंद शब्दों पर आपत्ति जायज हो
सकती है। अगर मैत्रेयी पुष्पा ने इस किताब में कुछ गलत तथ्य पेश किए हैं तो अवश्य
उन पात्रों को सामने आकर उनका खंडन करना चाहिए, लेकिन बगैर नाम लिए हवा में बातें करने से कुछ हासिल नहीं होगा। तथ्यों
को ठीक करवा देना चाहिए, ताकि भविष्य में शोधार्थियों के
सामने भ्रम की स्थिति ना हो। साहित्य और पाठक के व्यापक हित को ध्यान में रखा जाना
चाहिए।
2 comments:
सटीक पोस्ट। कई बार लोग बेमतलब का विवाद खड़ा करने लगते हैं और जिस चीज पर बात होनी चाहिए उसे छोड़कर बिना मतलब की चीजों को बहस का मुद्दा बना लेते हैं।
एकतरफा आलेख, बहुत मेहनत कि गयी गई बचाव पक्ष का वकील बनने की खातिर.
Post a Comment