इस
वक्त साहित्यक हलके में यह खबर आम हो रही है कि मशहूर अंग्रेजी लेखक अमिष त्रिपाठी
की बेस्टसेलर किताब ‘द इमोर्टल्स ऑफ मेलुहा’ पर
फिल्म बनने जा रही है। ये कोई पहली बार नहीं है कि इस तरह की बात फैली है। इसके पहले भी ये खबर आई थी कि करण जौहर ने अमिष त्रिपाठी की इस किताब पर फिल्म बनाने का फैसला लिया है। उस दौर में तो यहां तक चर्चा हुई थी कि अमीष के उपन्यास के आधार पर बनने वाली फिल्म में शिव की भूमिका के लिए करण जौहर ने ऋतिक रौशन, सलमान खान जैसे बड़े सितारों से बात की थी। पर जैसा कि आमतौर पर होता है कि फिल्मों के नहीं बन पाने की कोई ठोस वजह सामने नहीं आती है, उसी तरह से करण जौहर की फिल्म फ्लोर पर क्यों नहीं जा पाई, उसका भी पता नहीं लग पाया। अब इस तरह की चर्चा चल पड़ी है कि अमिष त्रिपाठी की इस बेस्टसेलर पुस्तक पर फिल्म बनाने का अधिकार करण जौहर के पास से संजय लीला भंसाली के पास आ गया है। इस फिल्म में शिव की भूमिका के लिए संजय लीला भंसाली ने ऋतिक रोशन को तय किया है। अगर इन बातों में दम है तो यह साहित्य के लिए बेहतर स्थिति है। अमिष त्रिपाठी को शिवा ट्रायलॉजी की इस किताब ने पर्याप्त यश और धन दोनों दिलवाया था। दुनियाभऱ में अमिष के लेखन को लेकर एक उत्सकुता भी बनी थी । उसके बाद अमिष त्रिपाठी ने कई किताबें लिखीं जिसको दुनियाभर के पाठकों ने हाथों हाथ लिया। अब अगर उस किताब पर फिल्म बनती है तो लेखक की लोकप्रियता में एक नया आयाम जुड़ेगा।
हिंदी फिल्मों का साहित्य से बड़ा गहरा और पुराना नाता रहा है। कई लेखक साहित्य के रास्ते फिल्मी दुनिया पहुंचे थे। प्रेमचंद से लेकर विजयदान देथा की कृतियों पर फिल्में बनीं। कइयों को शानदार सफलता और प्रसिद्धि मिली तो ज्यादातर बहुत निराश होकर लौटे । प्रेमचंद, अमृत लाल नागर, उपेन्द्र नाथ अश्क, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, गोपाल सिंह नेपाली, सुमित्रानंदन पंत जैसे साहित्यकार भी फिल्मों से जुड़ने को आगे बढ़े थे, लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हुआ और वो वापस साहित्य की दुनिया में लौट आए । प्रेमचंद के सिनेमा से मोहभंग को रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने संस्मरण में लिखा है- ‘1934 की बात है । बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इन पंक्तियों का लेखक कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने आया । बंबई में हर जगह पोस्टर चिपके हुए थे कि प्रेमचंद जी का ‘मजदूर’ अमुक तारीख से रजतपट पर आ रहा है । ललक हुई, अवश्य देखूं कि अचानक प्रेमचंद जी से भेंट हुई । मैंने ‘मजदूर’ की चर्चा कर दी । बोले ‘यदि तुम मेरी इज्जत करते हो तो ये फिल्म कभी नहीं देखना ।’ यह कहते हुए उनकी आंखें नम हो गईं । और, तब से इस कूचे में आने वाले जिन हिंदी लेखकों से भेंट हुई सबने प्रेमचंद जी के अनुभवों को ही दोहराया है ।‘अब ऐसा क्यों कर हुआ कि हमारे हिंदी साहित्य के हिरामन फिल्मों से इस कदर आहत हो गए । क्यों सुमित्रानंदन पंत जैसे महान कवि के लिखे गीतों को फिल्मों में सफलता नहीं मिल पाई, क्यों गोपाल सिंह नेपाली जैसे ओज के कवि को फिल्मों में आंशिक सफलता मिली । क्यों राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी जैसे शब्दों के जादूगर फिल्मों में अपनी सफलता का डंका बजाते हुए लंबे वक्त तक कायम नहीं रह सके । राजेन्द्र यादव की जिस कृति‘सारा आकाश’ पर उसी नाम से बनी फिल्म को समांतर हिंदी सिनेमा की शुरुआती फिल्मों में शुमार किया जाता है वो राजेन्द्र यादव बाद के दिनों में फिल्म से विमुख क्यों हो गए ।
यहां यह समझना होगा कि फिल्म लेखन साहित्य से बिल्कुल अलग है। इसकी मुख्य वजह जो समझ में आती है वो ये कि साहित्यकार की आजाद ख्याली या उसकी स्वछंद मानसिकता फिल्म लेखन की सफलता में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है । अपनी साहित्यक कृतियों में लेखक अंतिम होता है और उसकी ही मर्जी चलती है, वो अपने हिसाब से कथानक को लेकर आगे बढ़ता है और जहां उसे उचित लगता है उसको खत्म कर देता है । लेकिन फिल्मों में उसके साथ ये संभव नहीं होता है । फिल्मों में निर्देशक और नायक पर बहुत कुछ निर्भर करता है और फिल्म लेखन एक टीम की कृति के तौर सामने आती है वहीं साहित्यक लेखन एक व्यक्ति का होता है। दिक्कत यहीं से शुरू होती है।
प्रेमचंद के जिस दर्द को रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने अपने संस्मरणों में जाहिर किया है उससे तो कम से कम यही संकेत मिलते हैं । कुछ तो वजह रही होगी, कोई यूं ही बेवफा नहीं होता । प्रेमचंद जैसा लेखक ये कहने को मजबूर हो गया कि अगर तुम मेरी इज्जत करते हो तो इस फिल्म को कभी मत देखना । संकेत यही है कि कथानक से उनकी मर्जी के विपरीत खिलवाड़ किया गया होगा। कहा यह जाता है कि कि जिस तरह से बेहतरीन सृजन के लिए साहित्यकार का उच्च कोटि का होना आवश्यक है उसी तरह से बेहतरीन कृतियों के साथ न्याय कर पाने की क्षमता के लिए फिल्मकार का भी समर्थ होना आवश्यक है। लेकिन प्रेमचंद की कृतियों के साथ तो ऋषि मुखर्जी और सत्यजित राय जैसे महान फिल्मकार भी न्याय नहीं कर सके। एम भावनानी और नानूभाई वकील और त्रिलोक जेटली तो नहीं ही कर पाए। गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 1929 में शिशिर कुमार भादुड़ी के भाई मुरारी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने सिनेमा और साहित्य पर अपने विचार प्रकट किए थे। टैगोर ने लिखा था- ‘कला का स्वरूप अभिव्यक्ति के मीडियम के अनुरूप बदलता चलता है। मेरा मानना है कि फिल्म के रूप में जिस नई कला का विकास हो रहा है वो अभी तक रूपायित नहीं हो पाई है। हर कला अपनी अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली अपने रचना जगत में तलाश लेती है। सिनेमा के लिए सृजनशीलता ही काफी नहीं है उसेक लिए पूंजी भी आवश्यक है और सिनेमा में बिंबों के प्रभाव के माध्यम से अभिव्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है।‘ टैगोर की राय से काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है।
सिनेमा के सौ बरस पुस्तक में लिखे अपने लेख ‘मैंने तो तौबा कर ली’ में मस्तराम कपूर भी कहते हैं– ‘ मैंने महसूस किया कि फिल्मों की जरूरतों को ध्यान में रखकर लिखी गई रचना सही मायने में साहित्यक रचना नहीं बनती है । मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि फिल्म और टी वी का माध्यम साहित्य के अनुकूल नहीं है । फिल्म और टी वी के लिए लिखी गई रचना बाजार की मांग को ध्यान में रखकर लिखी जाती है जबकि साहित्यक रचना अपने अंधकार और अपने बंधनों से लड़ने की प्रक्रिया से निकलती है ।‘ प्रेमचंद के दर्द और मस्तराम कपूर के अनुभवों से साहित्यकारों के फिल्मों में ज्यादा लंबा नहीं चल पाने की वजह के संकेत तो मिलते ही हैं ।
यह तो सैद्धांतिक बातें हुई लेकिन बॉलीवुड में कुछ व्यावहारिक दिक्कतें भी हैं। ये दिक्कतें हैं बाजार और मांग के हिसाब से लेखन करना या फिर लिखे गए में निर्देशकों की मर्जी से बदलाव करना। साहित्य में जो लेखन होता है वह दृश्यों को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि कथा के प्रवाह को ध्यान में रखकर होता है। हिंदी के ज्यादातर साहित्यकार हिंदी सिनेमा के साथ समन्वय नहीं बैठा पाए और सिनेमा की दुनिया से निराश होकर ही लौटे। यह आज की दिक्कत नहीं है, प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर जब सत्यजित राय फिल्म बना रहे थे तब उनपर भी आरोप लगे थे कि उन्होंने प्रेमचंद की कहानी के साथ छेड़ छाड़ किया। शाहरुख खान ने जब विजयदान देथा की कहानी पहेली पर फिल्म बनाई तब भी उसमें काफई बदलाव किया गया था। यह होता रहा है लेकिन अब इसने सांस्थानिक रूप ले लिया है। अब निर्देशक कहानी में काफी बदलाव चाहते हैं या वो चाहते हैं कि घटनाओं और स्थितियों के हिसाब से कहानियां लिखी जाएं। ऐसे माहौल में साहित्यकारों का मोहभंग होना लाजिमी है। वो इस माहौल में अपने को फिट नहीं पाते हैं । उधर बॉलीवुड में प्रोफेशनल लेखकों की एक पूरी फौज तैयार है जो घटनाओं और स्थितियों के आधार पर लेखन करने को तैयार हैं । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अमिष त्रिपाठी की कृति पर बनने वाली फिल्म में कथानक से छेड़छाड़ की जाती है या नहीं। बगैर विवाद के अगर ये फिल्म बनती है तो साहित्य के लिए बेहतर होगा।
4 comments:
बहुत शानदार लेख है अनंत जी.....
. शहरयार की कई ग़ज़लें बॉलीवुड फिल्मों की शान बनीं. उमराव जान की मशहूरी में ' दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये...' को कौन भूल सकता है. और उनकी वह ग़ज़ल... 'सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है... ' उनकी ग़ज़लों को बॉलीवुड में जहाँ फिट हो सकीं इस्तेमाल किया गया. एक बार जब मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने भी यही बात कही थी कि मांग पर थोड़े ही ग़ज़ल की जाती है? ये तो जज़्बात का मामला है...
प्रिय अनंत विजय जी, लेख ‘साहित्यकार, सिनेमा और संशय’ बहुत अच्छा लगा। आपने न केवल प्रश्न उठाए हैं वरन् उत्तर तलाशने की भी कोशिश की है। अपनी बात को आपने बहुत तर्कपूर्ण ढ़ंग से रखा है। सिनेमा विश्लेषण चूंकि मेरा भी विषय है अत: पढ़ना और भी अच्छा लगा। आपने सही लिखा है, समय के साथ-साथ फ़िल्म विधा विकसित हुई है और उसकी अपनी लेखकों की टीम तैयार हुई है। मुझे लगता है यदि निर्देशक साहित्यिक रचना में बदलाव करता है और उससे फ़िल्म बेहतर बनती है तो यह होना चाहिए। फ़िल्म निर्देशक साहित्य नहीं रच रहा है, वह फ़िल्म बना रहा होता है अत: कई बार बदलाव आवश्यक हो जाता है। सत्यजित राय ने टैगोर के ‘घर-बाहरे’ के साथ यह किया है और फ़िल्म भाषा की दृष्टि से यह बेहतर परिणाम है। दोनों भिन्न विधाएँ हैं अत: ऐसा होना बेजा नहीं माना जाना चाहिए, हाँ, बदलाव के बावजूद यदि बुरी फ़िल्म बनती है तो यह उस साहित्यिक कृति की हत्या है। मुझे यहाँ ब्रिटिश लेखक ग्राहम ग्रीन की कहानी ‘द बेसमेंट रूम’ याद आ रही है, जिस पर कैरोल रीड ने ‘द फ़ॉलन आइडल’ नाम से फ़िल्म बनाई। स्क्रीनप्ले तैयार करने में खुद ग्रीन भी शामिल थे और उन्होंने फ़िल्म में कई बदलाव खुशी से स्वीकार किए। खैर, आपके लेख पर फ़िर आती हूँ, आपने सही लिखा है, सिनेमा साहित्य से भिन्न है। कई लेखक इस बारीक या कहें मोटी बात को नहीं समझ पाते हैं और कई निर्देश भी इसको समझने में चूक जाते हैं और तब गड़बड़ शुरु होती है। एक उम्दा लेख के लिए बधाई!
विजय शर्मा
प्रिय अनंत विजय जी, लेख ‘साहित्यकार, सिनेमा और संशय’ बहुत अच्छा लगा। आपने न केवल प्रश्न उठाए हैं वरन् उत्तर तलाशने की भी कोशिश की है। अपनी बात को आपने बहुत तर्कपूर्ण ढ़ंग से रखा है। सिनेमा विश्लेषण चूंकि मेरा भी विषय है अत: पढ़ना और भी अच्छा लगा। आपने सही लिखा है, समय के साथ-साथ फ़िल्म विधा विकसित हुई है और उसकी अपनी लेखकों की टीम तैयार हुई है। मुझे लगता है यदि निर्देशक साहित्यिक रचना में बदलाव करता है और उससे फ़िल्म बेहतर बनती है तो यह होना चाहिए। फ़िल्म निर्देशक साहित्य नहीं रच रहा है, वह फ़िल्म बना रहा होता है अत: कई बार बदलाव आवश्यक हो जाता है। सत्यजित राय ने टैगोर के ‘घर-बाहरे’ के साथ यह किया है और फ़िल्म भाषा की दृष्टि से यह बेहतर परिणाम है। दोनों भिन्न विधाएँ हैं अत: ऐसा होना बेजा नहीं माना जाना चाहिए, हाँ, बदलाव के बावजूद यदि बुरी फ़िल्म बनती है तो यह उस साहित्यिक कृति की हत्या है। मुझे यहाँ ब्रिटिश लेखक ग्राहम ग्रीन की कहानी ‘द बेसमेंट रूम’ याद आ रही है, जिस पर कैरोल रीड ने ‘द फ़ॉलन आइडल’ नाम से फ़िल्म बनाई। स्क्रीनप्ले तैयार करने में खुद ग्रीन भी शामिल थे और उन्होंने फ़िल्म में कई बदलाव खुशी से स्वीकार किए। खैर, आपके लेख पर फ़िर आती हूँ, आपने सही लिखा है, सिनेमा साहित्य से भिन्न है। कई लेखक इस बारीक या कहें मोटी बात को नहीं समझ पाते हैं और कई निर्देश भी इसको समझने में चूक जाते हैं और तब गड़बड़ शुरु होती है। एक उम्दा लेख के लिए बधाई!
विजय शर्मा
प्रिय अनंत विजय जी, लेख ‘साहित्यकार, सिनेमा और संशय’ बहुत अच्छा लगा। आपने न केवल प्रश्न उठाए हैं वरन् उत्तर तलाशने की भी कोशिश की है। अपनी बात को आपने बहुत तर्कपूर्ण ढ़ंग से रखा है। सिनेमा विश्लेषण चूंकि मेरा भी विषय है अत: पढ़ना और भी अच्छा लगा। आपने सही लिखा है, समय के साथ-साथ फ़िल्म विधा विकसित हुई है और उसकी अपनी लेखकों की टीम तैयार हुई है। मुझे लगता है यदि निर्देशक साहित्यिक रचना में बदलाव करता है और उससे फ़िल्म बेहतर बनती है तो यह होना चाहिए। फ़िल्म निर्देशक साहित्य नहीं रच रहा है, वह फ़िल्म बना रहा होता है अत: कई बार बदलाव आवश्यक हो जाता है। सत्यजित राय ने टैगोर के ‘घर-बाहरे’ के साथ यह किया है और फ़िल्म भाषा की दृष्टि से यह बेहतर परिणाम है। दोनों भिन्न विधाएँ हैं अत: ऐसा होना बेजा नहीं माना जाना चाहिए, हाँ, बदलाव के बावजूद यदि बुरी फ़िल्म बनती है तो यह उस साहित्यिक कृति की हत्या है। मुझे यहाँ ब्रिटिश लेखक ग्राहम ग्रीन की कहानी ‘द बेसमेंट रूम’ याद आ रही है, जिस पर कैरोल रीड ने ‘द फ़ॉलन आइडल’ नाम से फ़िल्म बनाई। स्क्रीनप्ले तैयार करने में खुद ग्रीन भी शामिल थे और उन्होंने फ़िल्म में कई बदलाव खुशी से स्वीकार किए। खैर, आपके लेख पर फ़िर आती हूँ, आपने सही लिखा है, सिनेमा साहित्य से भिन्न है। कई लेखक इस बारीक या कहें मोटी बात को नहीं समझ पाते हैं और कई निर्देश भी इसको समझने में चूक जाते हैं और तब गड़बड़ शुरु होती है। एक उम्दा लेख के लिए बधाई!
विजय शर्मा
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