लोकसभा चुनाव अब अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका है। आज के मतदान
के बाद अब 19 मई को आखिरी चरण के लिए वोट डाले जाएंगे। अब सबकी निगाहें 23 मई को आनेवाले
चुनाव के नतीजों पर टिकी हैं। कयासों का दौर चल रहा है। सट्टा बाजार से लेकर सोशल
मीडिया तक में पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे को लेकर खासी उत्सुकता दिख रही है। पश्चिम
बंगाल की राजनीति हमेशा से अलग किस्म की रही है। जब लंबे समय तक वहां
मार्क्सवादियों का राज था और ममता बनर्जी उनको चुनौती दे रही थीं तब भी पूरे देश
की रुचि बंगाल के चुनाव में रहा करती थी। अब जब ममता को भारतीय जनता पार्टी चुनौती
दे रही है तब भी लोगों की निगाहें वहां टिकी हैं। जब ममता बनर्जी 2011 के अप्रैल
में होनेवाले विधानसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट की सरकार के सामने मजबूत चुनौती पेश
कर रही थी, उस वक्त कोलकाता से लेकर सूबे के कई हिस्सों में एक एक होर्डिंग खासा
चर्चित रहा था। उस होर्डिंग पर कोई राजनीतिक नारा नहीं लिखा गया था, किसी भी
राजनीतिक दल के नेता की कोई तस्वीर नहीं लगी थी, किसी पार्टी का झंडा या चुनाव
चिन्ह नहीं बनाया गया था। उस होर्डिंग पर लेखिका महाश्वेता देवी के अलावा बांग्ला
के अन्य लेखकों की तस्वीरें लगी थीं जिसके नीचे बांग्ला में एक पंक्ति लिखी होती थी
जिसका अर्थ होता है कि ‘हमें परिवर्तन चाहिए’। बंगाल में माना जाता है कि लेखकों की इस अपील का खासा असर
पड़ा और ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाने में इसकी भी भूमिका रही थी। बाद में
जब चुनाव के नतीजे आए और ममता बनर्जी सूबे की मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने
सार्वजनिक तौर पर महाश्वेता देवी और अन्य लेखकों का आभार जताया था। बाद में तो
महाश्वेता देवी खुलकर और मुखर होकर ममता बनर्जी के समर्थन में आ गईं थीं।
बंगाल में लेखकों और विद्वानों को बहुत ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त
है और वो समाज को प्रभावित करने की क्षमता भी रखते हैं। प्रतिष्ठा इतनी कि जब बांग्ला
के मशहूर लेखक सुनील गंगोपाध्याय का निधन हुआ तो लगा कि पूरा कोलकाता उनके अंतिम
दर्शन के लिए उमड़ पड़ा हो। उनकी अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए थे। दुर्भाग्य
से यह स्थिति हिंदी में नहीं है। बंगाल के समाज में लेखकों और बुद्धिजीवियों के
प्रभाव को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में उनतक पहुंचने का
प्रयास भी किया है। पार्टी के थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के
निदेशनक अनिर्वाण गांगुली और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य स्वप्न दासगुप्ता को इस काम
के लिए लगाया गया। इन दोनों लोगों ने आउटरीच कार्यक्रम के तहत उत्तर बंगाल से
शुरुआत की और राज्य के अलग अलग हिस्सों में दर्जनों कार्यक्रम किए। बंगाल के
बुद्धिजीवियों तक पहुंचने की कोशिश में बंकिम चंद्र चटर्जी, रामानंद चट्टोपाध्याय
तक की विरासत पर कार्यक्रम आयोजित हुए, इशमें देशभर के बुद्धिजीवियों से लेकर
मंत्रियों तक ने शिरकत की। बंगाल की समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत के
अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा, न्यू इंडिया के आकांक्षाओं तक पर गोष्ठियां आयोजित की
गईं।
बंगाल की धरती पर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत बातें होती
रही हैं। जब वामपंथी शासन था तो उस दौर में बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका
तस्लीमा नसरीन के अधिकारों को लेकर भी राष्ट्रव्यापी बहस हुई थी। लेकिन तस्लीमा
नसरीन को आखिरकार कोलकाता छोड़ना ही पड़ा था। चुनाव की गहमागहमी के बीच बंगाल जाने
का अवसर मिला। पूर्व कुलपतियों से लेकर कई वरिष्ठ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों से
बात-चीत हुई। उनसे बातचीत करने पर पता चला कि बंगाल में कला-संस्कृति के क्षेत्र
में बहुत कुछ बदला नहीं है, हां इतना हो गया है कि पहले जिन संस्थाओं पर वामपंथी
लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का प्रभुत्व था वहां अब तृणमूल से जुड़े या इस पार्टी
की तरफ झुकाव रखनेवालों का वर्चस्व स्थापित हो गया है। इनमे से कई बुद्धिजीवी
खुलकर राजनीति में शिरकत कर रहे हैं। वामपंथी शासनकाल के दौरान विरोधियों के लिए
कार्यक्रमों के आयोजन में जितनी बाधाएं आती थीं वो सब अब भी आती हैं। कोलकाता के
बुद्धिजीवियों ने बताया कि अगर कार्यक्रम भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग कर रहे
हैं तो सरकारी हॉल मिलने में बहुत दिक्कत होती है। हॉल की अगर बुकिंग हो भी गई तो
कार्यक्रम से चंद घंटे पहले भी बुकिंग निरस्त कर दी जा सकती है। बुद्धिजीवियों के
मुताबिक वहां एक अदृश्य भय का वातावरण बनाया गया है कि ताकि सरकार विरोधी बुद्धिजीवी
खुलकर अपनी बात नहीं रख सकें, विमर्श नहीं कर सकें। यह मुमकिन भी हो सकता है
क्योंकि ममता बनर्जी को साहित्यकारों की ‘हमें परिवर्तन चाहिए’ की अपील के असर का अंदाज तो होगा। लेकिन इस वातावरण में भी बंगाल
के लेखक अपनी विचारधारा और सोच का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से नहीं हिचकते हैं, जबकि
हिंदी के ज्यादातर लेखक इस मामले में ना सिर्फ हिचकते हैं बल्कि खुलकर राजनीति
करने से भी परहेज करते हैं।
दरअसल इस चुनाव पर अगर हम नजर डालें तो ऐसा लगता है कि ये मुद्दों
से अलग नैरेटिव पर लड़ा जा रहा है। अलग अलग तरीके का नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है।
इस चुनाव के दौरान अंग्रेजी में राजनीति से जुड़ी कई पुस्तकें आईं तो हिंदी में भी
चंद पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। अंग्रेजी के पुस्तकों के माध्यम से कभी सीधे तो
ज्यादातर में परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की राजनीति के खिलाफ नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की गई। संघ की विचारधारा को
समाज को बांटनेवाले साबित किया गया। इस तरह की पुस्तकों में एक दिक्कत ये होती है
कि ये प्राथमिक स्रोत के आधार पर नहीं लिखे जाते हैं। हिंदुत्व और हिंदू धर्म पर
जितनी भी पुस्तकें आईं उनमें से ज्यादातर ने प्राथमिक स्रोत तक पहुंचने की कोशिश
नहीं की। अखबारों में उपलब्ध सामग्री या दूसरे लेखकों के निष्कर्षों को आधार बनाकर
अपने मत का प्रतिपादन किया गया। क्या ये संभव है कि हिंदू धर्म या हिंदू जीवन
पद्धति के बारे में बात हो और पांडुरंग वामन काणे की पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास
का संदर्भ नहीं लिया जाए। क्या ये संभव है कि जब हिंदू धर्म के बारे में बात हो तो
पुराणों का संदर्भ नहीं लिया जाए, वेदों को उद्धृत ना किया जाए। लेकिन ऐसा हुआ
नहीं, अभी आई पुस्तकों में वेदों के उन संदर्भों की व्याख्या का उल्लेख कर निर्णय
पर पहुंचा गया जो पहले से उपलब्ध है। सती प्रथा पर मूल ग्रंथों में क्या कहा गया
इसको देखे बगैर सती पर अखबारों में छपे लेख को आधार बनाकर हिंदुत्व को परिभाषित
करने की कोशिश की गई। लेखकों ने मूल स्रोत तक पहुंचने की कोशिश नहीं की। इसको लोग
फॉल्स नैरेटिव कहते हैं जबकि मेरा मानना है कि ये खतरनाक नैरेटिव खड़ा करने की
कोशिश की जा रही है। फेक नैरेटिव तो झूठा होता है और वो समाज को गहरे तक नुकसान नहीं
पहुंचाता पर अभी जिस तरह के नेरैचिव गढ़े जा रहे हैं वो समाज के लिए बेहद खतरनाक
हैं। बंगाल की चुनावी पिच पर भारतीय जनता पार्टी इस नैरेटिव की लड़ाई में भी
तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला कर रही है। अनिर्वाण गांगुली की टीम ने वहां एक
वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की है। पिछले दिनों पत्रकार प्रवीण तिवारी की
एक पुस्तक ‘आतंक से समझौता’ प्रकाशित हुई। उस
पुस्तक में प्रवीण तिवारी ने साबित करने की कोशिश की है कि भगवा आतंकवाद के नाम पर
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को फंसाने का जो षड़यंत्र था, दरअसल वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ को बदनाम करने और अंतत: उसको प्रतिबंधित करने के लिए था। अपनी उस
पुस्तक में प्रवीण तिवारी ने समझौता ब्लास्ट पर अपने तरीके से तथ्य प्रस्तुत किए
हैं जो गंभीर विमर्श की मांग करती है।
नैरेटिव की ये लड़ाई कोई सामान्य लड़ाई नहीं है, ऐसा प्रतीत
होता है कि इस काम में पीछे से बड़ी ताकतें मदद कर रही हैं। इन विषयों पर जिस तेजी
से पुस्तकों का प्रकाशन होता है, उनका विमोचन होता है, उनपर लेख और समीक्षाएं
प्रकाशित होने लगती हैं तो, अगर हम समग्रता में देखें, ये सुचिंतित कार्ययोजना का हिस्सा प्रतीत होती हैं। इन ताकतों
का स्वार्थ इतना होता है कि वो अपनी विचारधारा का प्रचार करें और ऐसी चीजें भारतीय
जनमानस के पटल पर अंकित कर सकें जिसका लाभ उनसे नजदीकी रखनेवाली विचारधारा वाले
राजनीतिक दलों को हो। ये चुनाव इस लिहाज से देश में पूर्व में हुए चुनाव से थोड़ा
अलग है। एक राजनीतिक विश्लेषक से पिछले दिनो बात हो रही थी तो उन्होंने बहुत सटीक
कहा कि- जो चुनावी शोरगुल और मुद्दे सतह पर दिखाई देते हैं दरअसल इस बार का चुनाव
उनपर लड़ा नहीं जा रहा है। इस बार का चुनाव खामोश रणनीतियों का चुनाव है। खैर जो
भी अब तो दस दिन शेष रह गए हैं उसके बाद तो सबकुछ सबके सामने होगा।
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