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Saturday, May 4, 2019

यादों में सिमटी आर के की विरासत


अपने जीवन के अंतिम दिनों में मेरे पिता ने बहुत कम पैसों में आर के स्टूडियोज के दो स्टेज बेच दिए थे। उनके बेटे और उत्तराधिकारी के रूप में डब्बू, चिंपू और और मैं सफल फिल्में भले नहीं बना पाए लेकिन हमने संपत्ति का कोई हिस्सा नहीं बेचा। हम अपनी विरासत को संभाल कर रखे हैं। ये बातें ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा खुल्लम-खुल्ला में लिखी हैं, जो 2017 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुई थी। जब आर के स्टूडियोज के बिकने की खबर आई तो उपरोक्त पंक्तियां अचानक से दिमाग में कौंध गईं। दो साल पहले जो ऋषि कपूर अपनी विरासत को लेकर इतने बड़े दावे कर रहे थे, वो इतने कम समय में कैसे बदल गए, क्या हुआ कहा नहीं जा सकता है। क्या वजह रही कि राज कपूर के वारिसों ने, उनके बेटों ने ऐतिहासिक आर के स्टूडियोज को बेचने का फैसला किया। उन्हें यह हक है कि वो अपने पिता की संपत्ति को जिसे चाहे उसको बेचें। लेकिन भारतीय सिनेमा के इस अत्यंत महत्वपूर्ण स्मारक को गिराकर अब उसकी जगह शॉपिंग मॉल और लग्जरी अपार्टमेंट बनाए जाएंगें। राज कपूर और हिंदी फिल्म प्रेमियों के लिए ये एक झटके की तरह था। हलांकि इस बात की आशंका तभी से जताई जाने लगी थी जब स्टूडियो भयानक आग का शिकार हुआ था और कहा गया था कि सबकुछ जलकर खाक हो गया। इस तरह की बातें भी आने लगी थीं कि अब फिल्म निर्माता चेंबूर जाकर फिल्मों की शूटिंग करना नहीं चाहते हैं क्योंकि उससे ज्यादा सहूलियतें अंधेरी में उपलब्ध स्टूडियोज में है। इस वजह से आर के स्टूडियोज को चला और बचा पाना राज कपूर के वारिसों के लिए मुश्किल हो रहा था। दो एक ड़ से अधिक में फैला ये परिसर हिंदी फिल्म का एक ऐसा स्मारक था, एक ऐसी जगह थी जो दर्जनों बेहतरीन फिल्मों के बनने की गवाह रही हैं, यहां राज कपूर की मुहब्बत की शुरुआत होती है और यहीं उसपर परदा भी गिरता है। यह वो जगह थी जिसने गीत और संगीत की दुनिया को कई सितारे दिए। शंकर जयकिशन से लेकर शैलेन्द्र तक को। बॉबी की डिंपल से लेकर राम तेरी गंगा मैली की मंदाकिनी तक ने इसी परिसर में काम करके प्रसिद्धि का स्वाद चखने को मिला था।   
फिल्म इतिहासकार मिहिर बोस के मुताबिक 1950 में राज कपूर ने आर के फिल्म्स को विस्तार देने की योजना बनाई थी और आर के स्टूडियोज के नाम से चेंबूर में सभी सुविधाओं से लैस एक स्टूडियो की स्थापना की थी। उस वक्त राज कपूर का ये स्टूडियो उनके घर से करीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। जब राज कपूर ने इस स्टूडियो की स्थापना की थी तो यह जगह उस वक्त के बंबई का बाहरी हिस्सा हुआ करता था। इलाका भी सुनसान होता था लेकिन अब इस इलाके की जमीन करोड़ की हैं। आर के स्टूडियोज के परिसर में राज कपूर का प्रसिद्ध कॉटेज होता था जहां कई ऐतिहासिक फिल्मों की शरूआती की बातें हुई थीं, कई मशहूर गानों और धुनों के बनाने- बनने पर बातें हुईं। फिल्मों को लेकर चर्चाओं के दौर चला करते थे। कई जगह तो इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि फिल्मों पर चर्चा सत्र को राज कपूर टेप किया करते थे। अगर ये सच है तो वो टेप फिल्म निर्माण करनेवालों के लिए अमूल् हो सकते हैं। राज कपूर का कॉटेज स्टूडियो परिसर में कार्यालय के पीछे की तरफ हुआ करता था। कॉटेज में राज कपूर का एक कमरा था। अपने कॉटेज को राजकपूर अपनी कला का मंदिर मानते थे और अपने कमरे को मंदिर का गर्भगृह। राज कपूर के कमरे में सभी धर्मों के देवी देवताओं के चित्र लगे हुए थे यहां तक कि कुरान की एक आयत भी दीवार पर उकेरी गई थी।
राज कपूर के लिए सिनेमा उनकी जिंदगी हुआ करती थी। कपूर खानदान पर पुस्तक लिखनेवाली मधु जैन ने लिखा है कि राज कपूर के कॉटेज का दरवाजा फिल्मकार राज कपूर और पति, भाई, पिता, दादा राजकपूर के बीच लाइन ऑफ कंट्रोल हुआ करता था। उनके परिवार ने कभी भी इस लाइऩ को लांघने की कोशिश नहीं की। आर के स्टूडियोज में राज कपूर के कमरे के पीछ नरगिस का भी एक कमरा हुआ करता था। और आर के स्टूडियोज में ही प्रसासनिक भवन के पीछे पहली मंजिल पर नरगिस का ड्रेसिंग रूम बना था। इसके ठीक सामने राज कपूर का ड्रेसिंग रूम होता था। नरगिस और राज कपूर के अलगाव के बाद उनका ड्रेसिंग रूम आर के बैनर तले काम करनेवाली अन्य नायिकाओं के उपयोग में आने लगा था। पर राज कूपर के कॉटेज में नरगिस का जो कमरा था वो जस का तस बना रहा। उसमें नरगिस का सामना भी उसी तरह से रखा रहा था जैसा वो छोड़कर गई थी। राज कपूर ने नरगिस से अलगाव के करीब बीस साल बाद 1974 में अपने एक इंटरव्यू में बताया कि जब नरगिस ने अलग होने का फैसला किया तो वो कभी आर के स्टूडियोज में वापस नहीं लौटीं। एक दिन अचानक उनका ड्राइवर आया और राज कपूर से कहा कि बेबी ने अपने हाईहील वाले सैंडल मंगवाए हैं। राज कपूर ने ड्राइवर को कहा ले जाइए। थोड़े दिनों बाद एक दिन फिर ड्राइवर आया और उसने राज कपूर से कहा कि बेबी ने बाजा (हारमोनियम) मंगवाया है। राज कपूर ने कहा कि जब ड्राइवर नरगिस का हारमोनियम ले जा रहे थे तो उनकी समझ में आ गया कि अब सबकुछ खत्म हो गया है।
राज कपूर और नरगिस के अलगाव का गवाह भी आर के स्टूडियोज ही बना था। 1956 में एक फिल्म आई थी जागते रहो। इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो नरगिस पूरी तरह से कंट्रोल कर रही थी। हर तरह के निर्देश आदि देती थी लेकिन धीरे धीरे राज और उनके बीच के संबंध में खटास इतनी बढ़ गई कि इस फिल्म का आखिरी सीन नरगिस का आर के बैनर की अंतिम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के अंतिम सीन में जब प्यासा राज कपूर भटक रहे होते हैं तो नरगिस उनको पानी पिलाती हैं। नरगिस इस सीन को करना नहीं चाहती थी लेकिन वहां मौजूद सभी लोगों के आग्रह को वो टाल नहीं पाईं। माना यह गया कि ये सीन नरगिस को आर के स्टूडियोज की तरफ से दिया जानेवाला फेयरवेल था।
राज कपूर और नरगिस से जुड़े सैकड़ों किस्से और यादें तो इस जगह से जुड़े ही हैं अन्य नायक नायिकाओं और कलाकारों से जुड़े दिलचस्प किस्सों का भी ये परिसर गवाह रहा है। यहीं राज कपूर और राजेश खन्ना के बीच रात भर बात होती रही थी। राज कपूर चाहते थे कि सत्यम शिवम सुंदरम में राजेश खन्ना काम करें। उन्होंने रात को उनको अपने कॉटेज पर बुलाया और फिर रसरंजन के दौर चले लेकिन बात नहीं बन सकी। जीनत अमान के साथ शशि कपूर को इस फिल्म में रोल मिला था। इस फिल्म को लेकर ही राज कपूर और लता मंगेशकर के रिश्तों में खटास आनी शुरू हुई थी। दरअसल राज कपूर ने लता मंगेशकर के साथ मिलकर सूरत और सीरत नाम से एक फिल्म की योजना बनाई थी जो परवान नहीं चढ़ सकी थी। बाद में जब राज कपूर ने उसी थीम पर सत्यम शिवम सुंदरम बनाई तो लता को जीनत अमान का चुनाव अखर गया। लता और राज कपूर के संबंध भी बहुत मधुर थे। कई रात सता मंगेशकर ने राज कपूर के कॉटेज में तानपूरे पर गाते हुए बिताई थी। ऐसी कई घटनाओं का गवाह रहा आर के स्टूडियोज अब किताब के पन्नों में रह जाएगा। हिंदी सिनेमा के एक सौ साल के इतिहास में आर के स्टूडियोज लगभग पचास साल तक हिंदी फिल्मों के केंद्र में रहा लेकिन अब वहां गगन चुंबी इमारत होगी और ये सभी यादें उन गगन चुंबी इमारतों के नीचे दफन हो जाएंगी। इसको बचाने की कोई कोशिश भी नहीं की गई। राज कपूर जैसे शोमैन से डुड़ी यादों को सहेजने के लिए कोई पहल नहीं हुई। राज कपूर और उनकी कला सिर्फ कपूर परिवार का नहीं है वो हमारे देश का है। इसको संभालने और बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी थी, लेकिन ऐसा हो ना सका।
जरूरत इस बात की है कि हमारे देश में एक सांस्कृतिक नीति बने जिसमें अपनी विरासत और धरोहर को संजोने के लिए ठोस कदम उठाने की नीति शामिल की जाए। ये सिर्फ फिल्मों से जुड़ा मसला नहीं है हमारी कला संस्कृति की समृद्ध विरासत कई स्थानों पर बेहतर रख-रखाव आदि के अभाव में नष्ट हो रही है। भारतीय प्राच्य विद्या का खजाना कई प्राचीन पुस्तकालयों में नष्ट होने के कगार पर है। उनको संभालने की भी जरूरत है अन्यथा एक समय ऐसा आ सकता है जब हम विकास की गगनचुंबी इमारत पर तो खड़े होंगे लेकिन हमारे पास ना तो कोई धरोहर बचेगा और ना ही हमारी विरासत होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ ठोस नीति चाहिए। 

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