ठीक से याद नहीं, पर घटना 21 या 22 मार्च 1977 की रात की है। उस
रात हम अपने ननिहाल, बिहार के एक कस्बाई शहर जमालपुर के पास के गांव वलिपुर, में
थे। देश से इमरजेंसी हटाई जा चुकी थी और चुनाव हो चुके थे। सबको चुनाव के नतीजों
की प्रतीक्षा थी। चुनाव और उसके बाद के नतीजों को लेकर हमारे ननिहाल में भी खूब
गहमागहमी थी। उस वक्त हमारी उम्र ककहरा सीखने की थी, राजनीति और उसकी भाषा बिल्कुल
समझ नहीं आती थी, पर उत्सव का माहौल समझ आता था। चुनावी के उत्सवी माहौल में इतनी
दिलचस्प बातें होती थीं कि मजा खूब आता था। रातभर रेडियो पर चुनावी नतीजे आते रहते
थे। वो बैलेट का जमाना था और मतपत्रों की गिनती में तीन से चार दिन का समय लगता
था। हमारे ननिहाल में एक बड़ा सा मरफी का रेडियो हुआ करता था। उसका एंटीना खपड़ैल
के छज्जे में लगाया हुआ था। एंटीना काफी बड़ा था जिससे एक तार रेडियो तक आता था। कहने
का मतलब ये है कि रेडियो को रखने का स्थान नियत था और उसको उधर उधर हटाया नहीं जा
सकता था। रेडियो सुनने के लिए उसके पास जाना होता था। 21 या 22 मार्च की रात में
रेडियो पर चुनाव के नतीजे आ रहे थे, गांव के काफी लोग वहां बैठे थे, किसी बड़े
नतीजे की प्रतीक्षा में। रात ज्यादा होने से लोग ऊंघ भी रहे थे, अचानक रेडियो पर
खबर आई कि इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गईं। इस खबर के बाद ऊंघ रहे लोगों
की आंखें चमक उठीं, वो सभी खुशी में झूमते हुए शोर मचाने लगे, नारेबाजी होने लगी। पूरे
गांव के लोग अपने अपने घरों से निकलकर सड़क पर आ गए। इस बीच किसी ने हमारे रेडियो
की आवाज तेज कर दी थी। उसपर इंदिरा गांधी की हार की खबर के बाद एक गाना बजने लगा
था- बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे...। लोग उसपर झूमने लगे थे। इंदिरा गांधी को
जनता पार्टी के उम्मीदवार और समाजवादी नेता राजनारायण ने करीब 55000 मतों से मात
दी थी। उसी चुनाव में रायबरेली के बगल के संसदीय सीट अमेठी से इंदिरा गांधी के
कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी की हार भी हुई थी। गांधी परिवार के इन दो सदस्यों की हार
आखिरी हार थी। उसके बाद के हुए सभी संसदीय चुनावों में गांधी परिवार के इंदिरा
गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कोई हार नहीं हुई थी।
बयालीस साल बाद 23 मई को चुनाव के नतीजे आ रहे थे, शाम तक
रुझानों से साफ हो गया था कि देश के मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत दे दिया है। सबकी निगाहें अमेठी पर जाकर
टिक गई थीं। अमेठी से गांधी परिवार के राजनीतिक वारिस और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल
गांधी चुनाव मैदान में थे। वो यहां के अलावा केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़े थे। अमेठी
में कांग्रेस अध्यक्ष के सामने थीं बीजेपी की फायरब्रांड युवा नेता और केंद्रीय
मंत्री स्मृति ईरानी। वही स्मृति ईरानी जिसको राहुल गांधी 2014 के चुनाव में एक
लाख से अधिक वोटों से मात दे चुके थे। इस बार के चुनाव नतीजों में कांग्रेस
अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार पिछड़ रहे थे। अब जमाना रेडियो का रहा नहीं था यहां तो
चुनाव आयोग की साइट पर गिनती के हर चक्र के बाद अपडेट आ रहा था। वोटों का फासला
बढञता जा रहा था। हर किसी के हाथ में मोबाइल और मोबाइल पर सोशल साइट्स से लेकर
न्यूज वेबसाइट्स पर पल-पल की जानकारी आ रही थी। देशभर के रुझान और नतीजे आने शुरू
हो गए थे लेकिन अमेठी के नतीजे में देर हो रही थी। नतीजा आने के पहले ही शाम करीब
साढे पांच बजे राहुल गांधी ने अमेठी लोकसभा क्षेत्र से अपनी हार सार्वजनिक रूप से
स्वीकार कर ली थी और स्मृति ईरानी को शुभकामनाएं दे दी थीं। स्मृति ने भी अपने
ट्वीट से ये संकेत दे दिया था वो जीत गई हैं। उन्होंने मशहूर शायर दुष्यंत कुमार
की एक पंक्ति उद्धृत की थी- ‘कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता’। रात करीब साढे ग्यारह बजे ये खबर आई कि राहुल गांधी को स्मृति
ईरानी ने हरा दिया। तकनीक के उन्नत होने और लगातार जानकारी मिलने के बावजूद उत्सकुता
में तो कमी नहीं हुई थी, लेकिन राहुल गांधी की हार के बाद कोई गाना
नहीं बजा। मुझे 1977 की घटना याद थी इसलिए मैं ऑल इंडिया रेडियो भी सुन रहा था।
मैं देखना चाहता था कि रेडियो पर क्या होता है। रेडियो ने सिर्फ खबर दी। इस नतीजे
के बाद अमेठी में लोग झूमे, भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जश्न भी मनाया।
स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को करीब 55000 वोटों से शिकस्त दी।
यहां याद दिला दें कि करीब इतने ही मतों से इंदिरा जी भी रायबरेली हारी थीं। इसके
अलावा भी कई समानताएं इन दोनों चुनावों में देखी जा सकती हैं। 1971 में राजनारायण
जब इंदिरा गांधी से हारे थे तब उन्होंने कहा था कि रायबरेली की जनता का प्यार उनको
मिला है और इसी धरती से वो इंदिरा गांधी को हराएंगे। कुछ ऐसा ही बयान स्मृति ईरानी
ने भी 2014 में अमेठी में अपनी हार के बाद दिया था। 1977 के चुनाव में रायबरेली
में जो हुआ लगभग वही 2019 के चुनाव में अमेठी में दोहराया गया। एक ताकतवर और
नामदार उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा। पर अगर 2019 में अमेठी में राहुल
गांधी की हार और 1977 में रायबरेली में इंदिरा गांधी की हार की तुलना करें तो ऐसा
लगता है कि राहुल को हराना ज्यादा मुश्किल था। 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ
देशभर में गुस्सा था। लोग इमरजेंसी लगाए जाने को लेकर उनसे बेहद खफा थे। उनके
खिलाफ पूरा विपक्ष लामबंद था, सीपीआई को छोड़कर। सीपीआई चूंकि इमरजेंसी में
कांग्रेस के साथ थी इस वजह से वो चुनाव में भी इंदिरा जी के समर्थन में खड़ी थी। फासीवाद
और तानाशाही की बात करनेवाली इस पार्टी का चाल, चरित्र और चेहरा देश की जनता ने
इमरजेंसी के दौरान देख लिया था। इस बार पूरा विपक्ष राहुल गांधी के साथ था। राहुल
गांधी को अखिलेश और मायावती के महागठबंधन का समर्थन हासिल था। अमेठी में मतदान के चंद
दिनों पहले मायावती ने अपने कॉडर को राहुल गांधी को वोट करने के निर्देश दिए थे।
स्मृति का राहुल से सीधा मुकाबला था। इसबार तो वहां से आम आदमी पार्टी का भी कोई
उम्मीदवार नहीं था। 2014 के चुनाव में तो कुमार विश्वास भी अमेठी से चुनाव लड़े
थे। सीधे मुकाबले में पारिवारिक गढ़ को ध्वस्त करना टेढी खीर था। स्मृति ने वो कर
दिखाया।
अमेठी के चुनाव नतीजे ने इस धाऱणा को और पुष्ट किया है कि इस
बार के चुनाव में देश के मतदाता ने बहुत समझदारी के साथ वोट किया। वो जात-पात की
जकड़न से तो मुक्त हुआ ही, वोटरों ने अब अपने और अपने क्षेत्र के हितों की रक्षा
करनेवाले उम्मीदवारों पर भरोसा जताकर भारतीय लोकतंत्र के मजबूत और मैच्योर होने के
संकेत भी दे दिए। तमाम तरह के समीकरणों के आधार पर चुनाव लड़ने और जीतनेवालों को
हार का मुंह देखना पड़ा। अमेठी की जनता ने ये भी बता दिया कि अगर आपको राजनीति
करनी है तो आपको मेहनत करनी होगी। आपको जनता के साथ खड़े रहना होगा। यही मानदंड
काम आएगा। कुछ विश्लेषकों ने मोदी पर ये आरोप लगाया कि वो चुनाव में सेना के
पराक्रम का फायदा उठा रहे हैं। सेना ने पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादी ठिकानों पर
हमले किए थे, उसका श्रेय ले रहे हैं। जिसका मकसद लोकसभा चुनाव में फायदा उठाना है।
कांग्रेस ने भी बालाकोट हमले को चुनावी मुद्दा बनाने को लेकर मोदी को घेरने की कोशिश
की थी। पर कांग्रेस के लोग ये भूल गए कि 1972 के विधानसभा चुनाव के पहले इंदिरा
गांधी का देश की जनता के नाम लिखा एक पत्र देशभर के समाचार पत्रों में विज्ञापन के
रूप में छपा था। 10 मार्च 1972 को छपे इस विज्ञापन में इंदिरा गांधी ने देश की
जनता को बांग्लादेश में पाकिस्तान पर विजय की याद दिलाई थी। बांग्लादेशी
रिफ्यूजियों के उनके देश लौटाने की बात बताई गई थी। इसके साथ ही इंदिरा गांधी ने
उस खतनुमा विज्ञापन में वोटरों से उनकी पार्टी को भारी बहुमत से विधानसभा चुनाव
में विजयी बनाने की अपील भी की थी। जनता ने उस चुनाव में उनकी पार्टी को भारी
बहुमत दिया। चुनाव में राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाकर इंदिरा गांधी ने फायदा उठाया
था। पर अमेठी में तो जब छठे चरण में वोट डाले जा रहे थे तबतक बालाकोट का मुद्दा भी
नेपथ्य में जा चुका था। अब चुनाव खत्म हो चुके हैं, नतीजा आ गया है। प्रतीत ये
होता है कि अमेठी के चुनाव नतीजे का असर कांग्रेस पार्टी पर दिखाई देगा। कैसे? ये समय के गर्भ में है।
7 comments:
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