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Saturday, May 18, 2019

कला-संस्कृति की आड़ में कारोबार !


चुनाव में राजनातिक गतिविधियां अपने चरम पर होती हैं। इस दौरान कई बार कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो महत्वपूर्ण तो होता है लेकिन उसपर ध्यान नहीं जाता। चुनाव के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुईं जिसको अगर समग्रता में जोड़कर देखते हैं तो हमें एक मुकम्मल तस्वीर दिखाई देती है। चुनावी शोरगुल और कोलाहल थम चुका है। अब उन घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता है ताकि हमारे समाज का ध्यान उनपर जा सके, हम सब मिलकर कुछ बेहतर कर सकें। सबसे पहले मुझे याद पड़ता है कि चुनाव प्रचार के दौरान अपने एक पत्रकार मित्र को फोन किया तो वो उस वक्त बिहार के मुंगेर लोकसभा क्षेत्र की कवरेज में व्यस्त थे। राजनीति पर बातचीत के क्रम में उसने एक ऐसी बात का जिक्र किया जो बेहद महत्वपूर्ण थी। नेताओं के कैंपेन को कवर करने के क्रम में वो मुंगेर शहर जा पहुंचे थे। वही ऐतिहासिक नगरी मुंगेर जो महाभारत काल में दानवीर कर्ण के अंग प्रदेश की राजधानी था। वहां अब भी गंगा किनारे मशहूर कर्णचौरा है। मान्यता है कि वहीं बैठकर कर्ण दान किया करता थे। शहर में घूमते-टहलते, लोगों से बातचीत करते हुए पत्रकार मित्र को एक इमारत दिखी जिसका नाम था श्रीकृष्ण सेवा सदन। लोगों ने बताया कि श्रीकृष्ण सेवा सदन बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह के नाम पर बना हुआ है। इस इमारत में श्रीकृष्ण सिंह की तमाम पुस्तकें और उनसे जुड़ी चीजें रखी हैं। मेरे मित्र को इसमें एक अच्छी स्टोरी दिखी और वो इमारत के अंदर जाकर श्री बाबू से जुड़ी चीजों को शूट कर लाया। लेकिन उसने जो बताया उसको सुनकर लगा कि हम अपनी विरासत को लेकर कितने उदासीन और लापरवाह हैं। श्रीकृष्ण सेवासदन में रखी चीजें व्यवस्थित तो थीं पर उनका रखरखाव ठीक से नहीं हो रहा है। सभी चीजों पर धूल की मोटी परत जमी है। शहर के बीचों-बीच बनी इस इमारत की अगर ठीक से देखरेख की जाए और उसकी व्यवस्था दुरुस्त हो तो यह स्थान पर्यटकों को भी आकर्षित कर सकता है। इसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी भी कई यादें रखी हैं। श्रीकृष्ण सिंह के बारे में कहा जाता है कि वो बेहद पढाकू थे। एक बहुत मशहूर किस्सा है कि वो एक बार प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने दिल्ली आए। नेहरू जी से मिलने के लिए उनको कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब पंडित जी आए तो श्रीकृष्ण सिंह ने उलाहना भरे स्वर में कहा कि पंडित जी अब ये स्थिति हो गई है कि आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। नेहरू ने श्रीकृष्ण सिंह को दो पुस्तकें दी और कहा कि दरअसल वो पिछले दिनों पुस्तक की एक दुकान पर गए थे वहां से उनके लिए दो पुस्तकें ले आए थे। पुस्तकों को ढूंढने में ही थोड़ा वक्त लग गया। ये कहते हुए नेहरू ने श्रीकृष्ण सिंह को दो पुस्तकें दीं। श्री बाबू ने दोनों पुस्तकों को उलटा-पलटा, फिर नेहरू जी को वापस करते हुए बोले कि पंडित जी पुस्तकों के लिए आपका बहुत आभार। इस बात के लिए भी धन्यवाद कि आपने पुस्तकें खरीदते वक्त मुझको ध्यान में रखा। साथ ही श्रीकृष्ण सिंह ने नेहरू जी को कहा कि वो दोनों पुस्तकें चंद दिनों पहले पढ़ चुके हैं। नेहरू जी को थोड़ा झटका तो लगा लेकिन अपने को संभालते हुए उन्होंने श्रीबाबू का हाथ पकडा और फिर जोरदार ठहाका लगाया। तो ऐसे थे श्री कृष्ण सिंह और ऐसा था उनका अध्ययन कि पुस्तक बाजार में आई नहीं कि वो पढ़ डालते थे। उनकी किताबें अब सेवासदन में धूल खा रही हैं और अगर उनपर ध्यान नहीं दिया गया तो नष्ट हो सकती हैं।
इसी तरह से एक दिन पटना से एक वरिष्ठ रंगकर्मी और लेखक ने फोन किया और बताया कि कुछ लोग मिलकर पटना के गांधी मैदान के पास स्थित कालिदास रंगालय की इमारत पर कब्जा करना चाहते हैं। कालिदास रंगालय पटना के नाट्यकर्म का केंद्र है और वहां नाटकों का मंचन होता है। आरोप है कि शहर के प्राइम लोकेशन पर होने की वजह से कुछ लोग उसपर कब्जा कर मॉल बनवाना चाहते हैं। कालिदास रंगालय एक सोसाइटी के अंतर्गत कार्य करता है। कुछ दिनों पहले सोसाइटी में कुछ गड़बड़ी की गई और दो अलग अलग गुट उसपर अपना दावा करने लगे। एक गुट चाहता है कि इमारत को गिराकर नई इमारत बने जबकि दूसरा गुट ऐसा नहीं चाहता है। मामला फिलहाल अदालत में विचाराधीन है। कहा जा रहा है कि जो लोग इस रंगालय को नया स्वरूप देना चाहते हैं वो इस जगह पर एक मॉल बनाना चाहते हैं। उसी मॉल में एक हिस्सा रंगकर्म के लिए देना चाहते हैं। पटना के रंगकर्मियों को ये प्रस्ताव मंजूर नहीं है। इसी तरह से पटना के कदमकुंआ इलाके में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक इमारत है। एक जमाना था जब ये देशभर के साहित्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। इसकी व्यवस्था से पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, मोहनलाल महतो वियोगी जैसे दिग्गजज साहित्यकार जुड़े रहे हैं। आज हालत ये है कि बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना का सबसे लोकप्रिय विवाह स्थल है। शादी के सीजन में ये हर दिन बुक रहता है। यहां सेल आदि लगा करते हैं। जिन उद्देश्यों के लिए बिहार साहित्य सम्मेलन की स्थापना की गई थी और जिसके आधार पर सरकार ने इस संस्था को जमीन आवंटित की थी वो अब हो नहीं रहा है। इसका जिम्मेदार कौन है?
इसी तरह की एक खबर आई उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से, जहां के हिंदी भवन को आबंटित की गई जमीन को गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने निरस्त करने का नोटिस दिया है। दरअसल गाजियाबाद में हिंदी भवन समिति ने 1986 में गाजियाबाद विकास प्राधिकरण से रियायती दरों पर जमीन ली थी। जिसका पूरा पैसा प्राधिकरण को जमा नहीं किया जा सका। इसी धार पर 2006 में आवंटन रद्द कर दिया गया लेकिन बावजूद इसके इस जमीन पर इमारत बनी। सभागार बने। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के उस वक्त के उपाध्यक्ष ने इसका शुभारंभ किया। भवन समिति का उद्देश्य हिंदी को बढ़ावा देना था। खबरों के मुताबिक जमीन आवंटन की शर्तों में ये था कि इमारत बनने के बाद उसकी बुकिंग करके व्यावसायिक लाभ नहीं कमाया जा सकेगा। लेकिन आरोप है कि कच्ची रसीद पर शादी विवाह के लिए इस भवन का आवंटन होता रहा है। अब इसकी जांच की जा रही है। देशभर में कई जगह इस तरह के हिंदी भवन हैं। राजधानी दिल्ली में भी है। हर जगह सरकार ने रियायती दरों पर हिंदी को बढावा देने के लिए जमीन आवंटित की थी जिसमें लगभग सभी आवंटन में ये शर्त रखी गई थी कि इसका व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। लेकिन इन भवनों का व्यावसायिक उपयोग हो रहा है। हिंदी के कार्यक्रमों के लिए भी भारी-भरकम किराया लिया जाता है।
तीन तरह की स्थितियां सामने हैं। एक तो जिसमें हम अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संभाल नहीं पा रहे हैं, उसकी उचित देखभाल नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी जिसमें कला-संस्कृति के नाम पर बने संस्थानों पर कब्जे की राजनीति चल रही है। तीसरी जहां भाषा और संस्कृति के नाम पर बनी संस्थाओं की आड़ में कारोबरी गतिविधियां चलाई जा रही हैं। तीनों ही स्थितियां किसी भी देश के लिए, वहां की संस्कृति के लिए, वहां के समाज के लिए, वहां के लोगों के लिए, उचित नहीं हैं। कभी हमने सोचा है कि इस तरह की स्थितियां हमारे सामने क्यों आ रही है। यह इस वजह से आ रही हैं कि हमारे देश में कोई समग्र सांस्कृतिक नीति नहीं है। आजादी के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी संस्कृति नीति पर गंभीरता से नहीं सोचा गया। संस्कृति नीति के अभाव में हो ये रहा है कि जहां जैसे जिसको मन हो रहा है, वैसे काम हो रहा है। चार दिनों बाद ये साफ हो जाएगा कि देश में नई सरकार का गठन कौन करेगा। किस पार्टी के नेता प्रधानमंत्री पद की शपथ लेगें। सरकार के गठन के बाद हमारे समाज को खासकर बुद्धिजीवी वर्ग को सांस्कृतिक नीति पर विचार करना होगा ताकि किसी कालिदास रंगालय जैसी जगह पर मॉल बनाने की बात कोई नहीं सोच सके। हिंदी भवन में शादी समारोह के लिए कच्ची प्रतियां ना कटें, साहित्य सम्मेलन के भवनों में साडियों और कपड़ों की सेल ना लगे। ना ही किसी श्रीकृष्ण सेवासदन में हमारी विरासत पर धूल जम जाए। इसके लिए बहुत गंभीरता से प्रयास की आवश्यकता है। अगर एक बार सांस्कृतिक नीति बन गई तो विरासत का संरक्षण भी हो सकेगा और भाषा और कला संस्कृति के नाम पर जारी कारोबार को भी बंद किया जा सकेगा।

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