साहित्य और फिल्म का बहुत पुराना नाता रहा है। फिल्म भुवन शोम
और सारा आकाश से सार्थक या समांतर सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है। राजेन्द्र यादव
भले ही आगरा में पैदा हुए लेकिन शोहरत के शिखर पर वो दिल्ली में रहते हुए ही
पहुंचे। उनके उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से फिल्म बनी। प्रेमचंद से लेकर
अमृतलाल नागर और गोपाल सिंह नेपाली से लेकर पंडित नरेन्द्र शर्मा ने तक फिल्मों
में अपने हाथ आजमाए। पहले ये होता था कि कवि के तौर पर स्थापित होने के बाद फिल्मों
में हाथ आजमाते थे अब फिल्मों में गीत लिखकर शोहरत और सुर्खियां बटोरने के बाद
हिंदी कविता में अपना स्थान तलाशते हैं। इस तलाश को गुलजार से लेकर जावेद अख्तर और
प्रसून जोशी से लेकर मनोज मुंतशिर तक के लेखन में रेखांकित किया जा सकता है। हाल
ही में दिल्ली में गीतकार मनोज मुंतशिर एक कार्यक्रम में आए थे। इस कार्यक्रम में
हिंदी कविता की दुनिया से लगभग अपरिचित और अंग्रेजी की दुनिया में विचरण करनेवाले
श्रोता उपस्थित थे। अंग्रेजी के लोग जब हिंदी में या फिर अंग्रेजी-हिंदी मिलाकर
बात करते हैं तो हिंदी के लिए एक सुखद दृश्य उपस्थित होता है। इस कार्यक्रम में जो
माहौल था वो हिंदी के लिए आश्वस्त करनेवाला था। कार्यक्रम की शुरुआत में मनोज
मुंतशिर के परिचय के ऑडियो-वीडियो में उनको हिंदी फिल्मों में कविता की वापसी
करनेवाला बताया गया। फिल्मी अंदाज में उनकी एंट्री हुई। जोरदार तालियों से स्वागत
हुआ। उसके बाद कविता और शायरी पर बातें शुरू हुईं। बातचीत में ऐसा लगा कि मनोज
महफिल लूटने की कला में माहिर हैं।
लेकिन जब बात कविता की होगी, हिंदी फिल्मों में कविता की वापसी की
होगी तो कई प्रश्न भी उठेंगे। कविता के व्याकरण और उसके बिंबों पर बात होनी चाहिए
लेकिन मनजो ने जब अपने पहले प्यार की बात उठाई तो कहा कि वो बारहवीं में थे। दो
साल के बाद जब उनकी प्रमिका ने अपने पापा के नाराज होने की वजह बताकार उनसे अपने
प्रेमपत्र और फोटो वापस मांगे तो मनोज ने शायरी लिखी जिसमें प्रमिका से अपनी जवानी
लौटाने की बात करने लगे। यहीं बिंब का घालमेल हो गया। किशोरवस्था के प्रेम के टूट
जाने के बाद अपनी प्रेमिका से जवानी वापस मांगकर कवि ने ज्यादती कर दी। मनोज की
कविताई में बार बार बिंबों का खिलवाड़ देखने को मिला। इसी तरह उन्होंने जोश में
साहिर लुधियानवी के गीतों के पहले हिंदी फिल्मों मजाक उड़ाया। उन्होंने कहा कि
साहिर के पहले हिंदी फिल्मों के गीतों में फूल-पत्ती, मौसम आदि होते थे जिसे साहिर
ने अपने गीतों से बदला । यहां वो हिंदी फिल्मों के केदार शर्मा, पंडिच नरेन्द्र
शर्मा जैसे गीतकारों की परंपरा भूल गए लेकिन साहिर की शायरी सुनाकर मजमा तो लूट ही
लिया। वहां मौजूद एक साहित्यकार ने कहा भी कि महफिल लूटना एक बात होती है और बौद्धिक
उपस्थिति अलग।
2 comments:
भरत व्यास को भी याद करें|
भरत व्यास को भी याद करें
Post a Comment