मैत्रेयी पुष्पा हिंदी की वरिष्ठ और चर्चित उपन्यासकार हैं। इनकी
कहानियों पर टेलीफिल्मों का भी निर्माण हो चुका है। ये दिल्ली की हिंदी अकादमी की
उपाध्यक्ष रह चुकी हैं। इनको सार्क लिटरेरी अवॉर्ड समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कार
मिल चुके हैं। वो आज से पांच दशख पहले दिल्ली आई थीं, उनसे उनकी यादों के बारे में मैंने बातचीत की।
मैं आज से करीब 51 साल पहले ग्वालियर से दिल्ली आई। मेरे पति डॉ
आर सी शर्मा को आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में नौकरी मिली
थी। कुछ दिनों तक एम्स के हॉस्टल में रहे, फिर साउथ एक्स में किराए के घर में रहे।
जल्द ही एम्स के वेस्टर्न कैंपस में हमें घर मिल गया। उस वक्त सरकारी आवास के लिए
इतनी लंबी लाइऩ नहीं होती थी बल्कि घरों की ही लाइऩ होती थी कि कोई भी पसंद कर लो।
एम्स के वेस्टर्न कैंपस और एम्स के मुख्य इमारत के बीच की जो सड़क थी वो एकदम सूनी
रहती थी। उस वक्त दिल्ली में सड़कों में एकदम भीड़-भाड़ नहीं होती थी। कभी अखबारों
में पढ़ते कि उस वक्त के कलकत्ता या बंबई में जाम लग गया तो हम चर्चा किया करते थे
कि पता नहीं जाम कैसा होता है और वो कैसे लगता है। एक और दिलचस्प किस्सा बताती
हूं। एक दिन हम अपने बच्चों के साथ अपनी गाड़ी से कहीं जा रहे थे। डॉक्टर साब
गाड़ी चला रहे थे और मेरी बेटी मोहिता उनके साथ बैठी थी। हमलोग पीछे की सीट पर थे।
कार का अगला दरवाजा खुला रह गया और मोहिता चलती कार से नीचे गिर गई। लेकिन सड़क पर
ट्रैफिक नहीं होने की वजह से कोई दुर्घटना नहीं हुई। अब इस तरह की बात सोची भी
नहीं जा सकती है। उस वक्त दिल्ली की सड़कों पर दो ही गाड़ियां दिखती थीं अंबेसडर
और फिएट।
तब दिल्ली में जगह ही जगह हुआ करती थी। फ्लैट सिस्टम आया नहीं
था। क्वाटर होते थे ज्यादातर, दो मंजिले। पहले मुनरिका इलाके में फ्लैट बने जिसकी
कीमत 45000 रु थी, उसके बाद सफदरजंग इलाके में फ्लैट बने जो 52000 के थे। तब
मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ये फ्लैट महंगे थे।
दिल्ली में हम साथी डॉक्टरों के परिवारों के साथ जमकर पिकनिक
करते थे। घर से खाना बनाकर कभी बुद्धा गार्डन या लोदी गार्डन तो कभी चिड़ियाघर तो
कभी कुतुबमीनार। उस वक्त एम्स के अंदर एकदम गांव जैसा अपनापन था। घूमने के लिए चांदनी
चौक जाते थे। स्कूटर पर बैठते थे और तुरंत पहुंच जाते थे क्योंकि ट्रैफिक होता
नहीं था। हां, करोलबाग मार्केट और सरोजनीनगर बाजार में अपेक्षाकृत भीड़ हुआ करती
थी इस वजह से हम इन बाजारों में लगभग नहीं जाते थे। अपने पड़ोसियों के साथ खूब
घूमते फिरते थे। हमारे आपसी संबंध बहुत अच्छे थे। मेरी पड़ोसी पीएचडी कर रही थीं
तो मैं उनके पति के लिए खाना बना देती थी। एम्स में इफ्तार की दावतें खूब हुआ करती
थीं, कभी हमारे घर तो कभी डॉ गुप्ता के घर तो कभी डॉ शर्मा के घर तो कभी इल्माना
के घर। पिकनिक से लेकर दावतों के लिए हम सब साउथ एक्सटेंशन मार्केट में शॉपिंग
किया करते थे। इतने सालों से नोएडा में रहने के बाद अब भी खरीदारी के लिए हम साउथ
एक्सटेंशन ही जाते हैं। उस वक्त हमारे मनोरंजन का एक और साधन होता था फिल्में
देखना। गौतम नगर में ‘सुदर्शन’ नाम का एक
सिनेमा हॉल था। हमारे घर के पास था लेकिन पुराना होने की वजह से हम उसमें कम ही
फिल्में देखते थे। मुझे याद है कि हमने ‘ब्रह्मचारी’ फिल्म ‘सुदर्शन’ सिनेमा हॉल
में ही देखी थी। उस वक्त सफदरजंग में ‘कमल’ सिनेमा बना ही था। वहां हम ज्यादा जाया करते थे। अच्छी फिल्म
देखने तो दरियागंज के ‘गोलचा’ सिनेमा तक पहुंच
जाते थे। चिड़ियाघर के पास एक सिनेमा हॉल हुआ करता था वहां भी हम गाहे बगाहे फिल्म
देखने चले जाते थे। मुझे याद है कि फिल्म ‘अनोखी रात’ हमने वहीं देखी थी।
दिल्ली में जब हम आए थे तो तब बहुत सुकून था, हमने 1971 युद्ध
भी देखा, 1975 की इमरजेंसी भी देखी और 1984 में सिख विरोधी दंगे भी देखे, मंडल
कमीशन के लागू होने के बाद की हिंसा भी देखी । पर दो प्रसंग अब भी कचोटते हैं। एक
तो 1971 के युद्ध के समय जब एम्स में दो मुस्लिम डॉक्टरों को निगरानी की
जिम्मेदारी नहीं दी गई थी। हम कई दिनों तक उन दोनों का सामना नहीं कर पाते थे। दूसरी
1984 में। मेरी झांसी की एक दोस्त थी वो सिख थी। हम साथ ही रहते थे लेकिन जब सिख
विरोधी दंगा हुआ तो वो हमपर विश्वास नहीं कर पाई और कहीं और रहने चली गईं। बाद में
उसने कहा भी कि भरोसा नहीं था। अब इतने सालों बाद जब पलटकर देखती हूं तो लगता है
कि ये वो दिल्ली तो नहीं।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)
2 comments:
रोचक बातचीत।
बहुत अच्छी वार्ता। कई स्मृतियाँ जग गईं। अस्सी तक दिल्ली बहुत अलग, अपनी-सी थी। मैं भी वहाँ रह चुकी हूँ। गुलमोहर पार्क में किराए पर थी। तब तक एशियाड नहीं हुआ था। अब तो वहाँ जाने पर जी घबराता है।
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