गणतंत्र दिवस पर लाल किला में कवि
सम्मेलन की परंपरा बहुत पुरानी रही है, एक जमाने में इस कवि सम्मेलन की दिल्ली के
साहित्यप्रमियों को प्रतीक्षा रहती थी और वहां श्रोताओं की संख्या काफी होती थी।
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इस कवि सम्मेलन में वहां जाया करते
हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक लोकदेव नेहरू में कई जगह पर जवारलाल नेहरू
के लाल किला पर होने वाले कवि सम्मेलन में जाने की बात लिखी है। कई दिलचस्प प्रसंग
भी लिखे हैं। एक जगह दिनकर ने 1950 में लालकिले पर आयोजित कवि सम्मेलन के बारे में
लिखा है, ‘लाल
किले का कवि सम्मेलन 26 जनवरी को हुआ था या 25 जनवरी को, यह बात मुझे ठीक-ठीक याद
नहीं है। किन्तु उस सम्मेलन में पंडित जी भी आए थे और शायद, उन्हीं की मौजूदगी को
देखकर मैंने ‘जनता
और जवाहर’
कविता उस दिन पढ़ी थी। श्रोताओं ने खूब तालियां बजाईं, मगर पंडित जी को कविता पसंद
आई या नहीं, उऩके चेहरे से इसका कोई सबूत नहीं मिला। पंडित जी कवियों का बहुत आदर
करते थे, किन्तु कविताओं से वे बहुत उद्वेलित कभी भी नहीं होते थे। संसत्सदस्य
होने के बाद मैं बहुत शीघ्र पंडित जी के करीब हो गया था। उनकी आंखों से मुझे बराबर
प्रेम और प्रोत्साहन प्राप्त होता था और मेरा ख्याल है, वे मुझे कुछ थोड़ा चाहने
भी लगे थे। मित्रवर फीरोज गांधी मुझे मजाक में महाकवि कहकर पुकारा करते थे। संभव
है, पंडित जी ने कभी यह बात सुन ली हो, क्योंकि दो एकबार उन्होंने भी मुझे इसी नाम
से पुकारा था। किन्तु आओ महाकवि कोई कविता सुनाओ ऐसा उनके मुख से सुनने का सौभाग्य
कभी नहीं मिला।‘
दिनकर ने कवियों को लेकर जवाहरलाल के
मन में चलनेवाले द्वंद को भी प्रसंगों के माध्यम से उजागर किया है। दिनकर के
मुताबिक पंडित जी उन दिनों लिखी जा रही कविताओं को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते
थे और कई बार अपनी ये अपेक्षा जाहिर कर चुके थे कि हिंदी के कवियों को कोई ऐसा गीत
लिखना चाहिए जिसका सामूहिक पाठ हो सके। एक कवि सम्मेलन में जवाहर लाल जी पहुंच तो
गए लेकिन खिन्न हो गए। दिनकर के मुताबिक ‘सन् 1958 ई. में लालकिले में जो कवि
सम्मेलन हुआ उसका अध्यक्ष मैं ही था और मुझे ही लोग पंडित जी को आमंत्रित करने को
उनके घर लिवा ले गए थे। पंडित जी आधे घंटे के लिए कवि सम्मेलन में आए तो जरूर मगर
खुश नहीं रहे। एक बार तो धीमी आवाज में बुदबुदाकर उन्होंने यह भी कह दिया कि ‘यही सब सुनने के लिए बुला लाए थे?’
जवाहर लाल नेहरू कवियों की सामाजिक
भूमिका को लेकर भी अपनी चिंता यदा कदा प्रकट कर दिया करते थे। चाहे वो कोई गोष्ठी
हो या कवि सम्मेलन नेहरू अपनी बात कहने से चूकते नहीं थे। दिनकर ने भी लोकदेव
नेहरू में एक प्रसंग में इसका उल्लेख किया है, ‘एक बार लालकिले के गणतंत्रीय
कवि-सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने यह बात भी कही थी कि कवियों का जनता के
समीप जाना अच्छा काम है। मगर कवि सम्मेलनों में वो कितनी बार जाएं और कितनी बार
नहीं जाएं, यह प्रश्न भी विचारणीय है।‘ दरअसल नेहरू ती चिंता यह भी थी कि कवि
जब अधिक कवि सम्मेलनों में शामिल होने लगता है तो वो फिर रचनात्मकता या उसकी
स्तरीयता का ध्यान नहीं रख पाता है और वो उस तरह की कविता लिखने लग जाता है तो
तालियां बटोर सके। 1950-60 में कविता को लेकर नेहरू की जो चिंता थी क्या आज वो
चिंता दूर हो पाई है, हिंदी साहित्य जगत को विचार करना चाहिए।
1 comment:
अब कवि सम्मेलन सर्वथा स्वतंत्र विधा है |उसका समकालीन कविता,साहित्य और कवि समाज से कोई लेना देना नहीं है | वह एक व्यवसाय है|
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