रितु नंदा एक ऐसी शख्सियत थीं जो
दिल्ली के कारोबारी जगत से लेकर कला की दुनिया में अपने संवेदनशील स्वभाव की वजह
से जानी जाती थीं। वो मसङूर अभिनेता और हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े शो मैन राज
कपूर की बेटी और एस्कॉर्ट कंपनी के मालिक राजन नंदा की पत्नी थीं। लेकिन इससे इतर
भी उन्होंने अपनी एक पहचान बनाई थी। पेंटिग्स में उनकी गहरी रुचि थी और उन्होंने
राज कपूर पर एक बेहतरीन पुस्तक भी लिखी थी जिसमें उन्होंने शुरू में ही ये
स्वीकारा है कि- ‘पापा ने बहुत अधिक पढ़ाई नहीं की थी और ना ही वो सिनेमा को बौद्धिक
माध्यम मानते थे, वो एक रोमांटिक व्यक्तित्व थे और देश में व्याप्त आर्थिक और
सामाजिक असामनता को वो बौद्धिक नजरिए से नहीं बल्कि संवदेनशील नजर से देखते थे।‘ इस एक पंक्ति से उन्होंने अपने पिता
के व्यक्तित्व को व्याख्यायित कर दिया था। राज कपूर पर लिखी उनकी किताब का दूसरा
संस्करण जब 2002 में प्रकाशित हो रहा था तब उनसे मिलने का मौका मिला था। वो तय समय
पर टीवी स्टूडियो में आ गईं थी। उनको स्टूडियो के बाहर एक कमरे में बैठाया गया
जहां वो किसी वजह से सहज नहीं हो पा रही थीं। उन्होंने अपनी परेशानी को जाहिर नहीं
किया बल्कि मुझसे पूछा कि कार्यक्रम शुरू होने में कितना समय है। जब मैंने उनको
कहा कि 15 मिनट तो फौरन बोलीं कि क्या आप थोड़ी देर मेरी गाड़ी में बैठकर
कार्यक्रम के बारे में बात कर सकते हैं। हमलोग उनकी गाड़ी में बैठे बातें करने लगे
ठीक बारह मिनट बाद उन्होंने बातचीत समाप्त की और हम स्टूडियो में चले गए। उनका ये
बड़ा गुण था कि वो सामने वाले को बहुत महत्व देती थीं और जो अगर कुछ पसंद नहीं आता
था उसको जाहिर नहीं करती थीं।
किताब पर बातें हुईं, उन्होंने राज
कपूर के बारे में ढेर सारी यादें ताजा की। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान
संस्थान में उनके भर्ती होने के समय का एक बेहद मार्मिक किस्सा सुनाया था। उन्होंने
बताया था कि बहुत कम लोगों को मालूम है कि ‘संगम’ फिल्म के लिए राज कपूर ने दिलीप कुमार
को ऑफर दिया था जिसे करने से दिलीप साहब ने मना कर दिया था। ये वो दौर था जब दिलीप
कुमार और राज कपूर के बीच प्रतिद्वंदिता थी। बावजूद इसके दोनों दोस्त थे। अपनी
जिंदगी की आखिरी जंग लड़ रहे राज कपूर दिल्ली के एम्स के आईसीयू में भर्ती थे।
दिलीप कुमार उनसे मिलने पहुंचे। राज कपूर अचेत थे। दिलीप कुमार ने उनका हाथ अपने
हाथ में लिया और कहने लगे ‘उठ जा राज! अब उठ जा, मसखरापन बंद कर। तू तो हमेशा से बढ़िया
कलाकार रहा है जो हमेशा हेडलाइंस बनाता है। मैं अभी पेशावर से आया हूं और चापली
कबाब लेकर आया हूं। याद है राज हम बचपन में पेशावर की गलियों में साथ मिलकर ये
स्वादिष्ट कबाब खाया करते थे।‘ बीस मिनट तक दिलीप कुमार राज कपूर का हाथ अपने हाथ में लेकर बोलते
रहे थे।
रितु कपूर एक सफल उद्यमी भी थीं। इंश्योरेंस का उनका
अपना कारोबार था जिसमें उनकी कंपनी देशभर में शीर्ष पर थीं। एक दिन में सबसे अधिक
पॉलिसी बेचने का रिकॉर्ड उनके नाम पर ही था। न्य फ्रेंड्स कॉलोनी में उनका
कार्यालय था जहां वो नियमित आती थीं। उनकी पेंटिग्स में भी गहरी रुचि थीं। एक बार
अपने कार्यालय में उन्होंने मुझे एक पेंटिंग दिखाई जिसमें एक खाली कुर्सी रखी है
जिसके सामने नीला आकाश था। उन्होंने इसको मानव मन के अकेलेपन से जोड़कर बेहतरीन
व्याख्या की थी। 14 दिसंबर 2005 की इस मुलाकात के बाद उन्होंने अपनी पुस्तक दी
उसपर लिखा- ‘प्रिय अनंत, हम सभी मरने के लिए पैदा होते हैं। सिर्फ हमारे अच्छे काम बचे रह
जाते हैं। बहुत प्यार के साथ आपको ये किताब भेंट कर रही हूं जो कि एक बेटी की अपने
पिता और एक कलाकार को श्रद्धांजलि है, जिनका पूरा जीवन सिनेमा को समर्पित था।‘ उसके
बाद उन्होंने अपने पिता की फिल्म के एक गीत की दो पंक्ति लिखी- ‘हम न
रहेंगे, तुम ना रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां।‘ अब जब 71
वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया है तो उनकी ये पंक्तियां बहुत याद आ रही हैं।
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