पाकिस्तानी वामपंथी शायर फैज अहमद फैज एक बार फिर
से चर्चा में हैं। ये चर्चा गैर साहित्यिक विवाद की वजह से शुरू हुई। इसमें
साहित्य के कई विद्वान कूद गए और इसको एक अलग ही रंग देने की कोशिश शुरू कर दी। आईआईटी
कानपुर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन में फैज की वो नज्म पढ़ी गई
जिसमें तख्त और ताज उछालने की बात तो है ही अल्लाह के राज कायम होने की बात भी है।
विरोध प्रदर्शनों में कई बार फैज की ये नज्म पढ़ी जाती रही है। आईआईटी प्रशासन ने
कैंपस में इस प्रदर्शन की जांच की बात की। जब जांच की घोषणा की जा रही थी तो एक
प्रश्न आया कि क्या फैज के नज्म की भी जांच होगी। सभी पहलुओं के जाच की बात की गई।
उसके बाद ये खबर आ गई कि आईआईटी इस बात की जांच करेगा कि फैज का नज्म हिंदू विरोधी
या राष्ट्रविरोधी है या नहीं। सोशल मीडिया के इस दौर में ये खबर जंगल में आग की
तरह फैल गई और इसपर प्रतिक्रियाएं आनें लगीं। जब खबर वायरल हो गई तो आईआईटी ने साफ
किया कि फैज के नज्म की जांच जैसी कोई बात नहीं है। इस सफाई को इस मामले की फुटनोट
की तरह भी नहीं देखा गया और तरह तरह की प्रतिक्रिया आनीं शुरू हो गई। बगैर आईआईटी
की सफाई पर ध्यान दिए तरक्की पसंद शायर जावेद अख्तर इसमे कूद गए और उन्होंने ये कह
डाला कि फैज की शायरी को हिंदू विरोधी कहा जाना बेतुका और मजाक है। जावेद साहब से
पलटकर ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि किसने फैज की कविताओं को हिंदू विरोधी करार
दिया। दरअसल काल्पनिक चीजों पर प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति जावेद अख्तर जैसे
तरक्कीपसंद या प्रगतिशील लेखकों के लिए आसान होता है। जो है नहीं उसके बारे में
बोलो, उसपर इतनी गंभीरता से प्रतिक्रिया दो कि आम जनता में ये संदेश जाए कि कोई
गंभीर मसला सामने आ गया है। इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों की ये प्रविधि बहुत पुरानी
हो गई है। इस पूरे मसले को हवा देने के पीछे देश में इस तरह का माहौल बनाना था कि भारतीय
जनता पार्टी और उसके समर्थक मुसलमानों के खिलाफ हैं और अब कविताओं को भी हिंदू
मुस्लिम के चश्मे से देखा जाएगा। जावेद अख्तर ही क्यों बड़े बड़े प्रगतिशील माने
जानेवाले लेखकों तक ने इसपर अपनी प्रतिक्रिया दे डाली और परोक्ष रूप से सरकार को
कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। जब सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें तेज
होने लगीं तो सरकार के समर्थक भी पलटवार करने लगे। फैज की शायरी रणक्षेत्र बन गईं।
एक एक शब्द को लेकर तर्क, वितर्क और कुतर्क सामने आने लगे। सोशल मीडिया पर किसी को
भी कुछ भी कहने की छूट है लिहाजा दोनों तरफ से जो मन में आया लिखा गया, कई बार
तर्कहीन और आधारहीन भी।
फैज की कविताओं को लेकर छिड़े इस संग्राम में उनके
भारत भक्त होने की बात भी लोग कहने लगे। फैज को विभाजन के खिलाफ खड़े एक शायर के
तौर पर भी प्रस्तुत किया जाने लगा। 1947 के अखबारों में छपे उनके लेखों को आधार
बनाकर, कुछ पंक्तियों को संदर्भ से काटकर फैज की छवि चमकाने की कोशिश की जाने लगी।
इन अबोध फैज समर्थकों को ये नहीं पता कि फैज की शायरी अपना बचाव करने में सक्षम
है। अंध समर्थकों ने फैज को तानाशाही के खिलाफ खड़े एक कवि के तौर पर पेश करना
शुरू किया। जियाउल हक के दौर की बात की जाने लगीं। ये ठीक है कि फैज की कविता में
विद्रोह और विरोध के स्वर मुखरता के प्रस्फुटित होते हैं लेकिन जब फैज की व्यक्तिगत
जिंदगी को लेकर उनकी साहित्यिक छवि को चमकाने की कोशिश की जाएगी तो फिर समग्रता
में बात होनी चाहिए। फैज के 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौर के लेखन को भी
देखा जाना चाहिए या फिर जब वो 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध पर लिख रहे थे उसको। फैज
अगर इतने ही क्रांतिकारी और तानाशाही विरोधी थे तो उनके कवि मन पर पूर्वी
पाकिस्तान में पाकिस्तानी फौज के अत्याचार को लेकर किसी तरह की हलचल नहीं हो रही
थी। फैज को समग्रता जानने समझने के लिए 1970 के आसपास के उनके लेखन को जिया उल हक
के कार्यकाल में हुए दमन के विरोध के लेखन में मिलाकर देखा जाना चाहिए।
कवि भी काल और परिस्थिति से प्रभावित होता है। फैज
भी थे। फैज, जुल्फिकार अली भुट्टो के दोस्त थे। जब उनको फांसी दी गई तो उनका कवि
मन अपने दोस्त के लिए द्रवित हो गया और जब कवि मन द्रवित होता है तो कई बार
विद्रोही हो जाता है। फैज भी हो गए। जिया की मौत के बाद क्या पाकिस्तान के हालात
बदल गए या उसके बाद वहां फौज की तानाशाही कम हो गई लेकिन फैज का विद्रोह जरूर कुंद
हो गया। यहां फैज के व्यक्तित्व के उस पहलू को भी याद करना चाहिए जहां उनकी राय को
तवज्जो देते हुए अदालत ने मंटो की रचनाओं को साहित्य नहीं मानते हुए उनको सजा दी।
मंटो ने खुद इस पूरे प्रसंग को लिखा है। फैज बड़े कवि हैं लेकिन उनको महामानव
बनाने की जो कोशिश देश का प्रगतिशील खेमा कर रहा है वो उनकी राजनीति का हिस्सा है।
साहित्य और शायरी से उनका कोई लेना देना है नहीं।
फैज के बहाने के एक बार फिर से गंगा-जमुनी तहजीब
की बात होने लगी। गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर चिंता जाहिर की जाने लगी। गंजा जमुनी
तहजीब में दरार की बात होने लगी और इसके लिए परोक्ष रूप से, कई बार प्रत्यक्ष रूप
से मौजूदा सरकार को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश भी की जा रही है। जबकि अगर हम इस
गंगा जमुनी तहजीब को साहित्य की चौहद्दी में परखने की कोशिश करें तो ये आधुनिक
भारत का बहुप्रचारित धोखा है। आज फैज की शायरी पर लहालोट होनेवाले भी इस तथ्य और
सत्य को स्वीकार करेंगे कि अगर फैज की कविताएं देवनागरी में ना छपी होतीं तो क्या
उनको इतनी व्याप्ति मिल पाती। क्या गालिब, मीर से लेकर जौन एलिया तक की शायरी अगर
देवनागरी में नहीं प्रकाशित हुई होंती तो क्या उनको इतनी लोकप्रियता मिल पाती। इसकी
तुलना में इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि हिंदी के तमाम कवि लेखकों का
उर्दू या फारसी में कितना अनुवाद हुआ। उर्दू के विद्वानों ने निराला से लेकर
मुक्तिबोध तक या दिनकर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर महादेवी
वर्मा तक कितने लेखकों या कवियों का अनुवाद अपनी भाषा में किया। इस बात को समझने
और उसपर चर्चा करने की जरूरत है।
भाषा को राजनीति का औजार बनाने की कोशिश हिंदी और
हिंदुस्तानी को लेकर भी की गई। हिंदी को सांप्रदायिकता की और हिन्दुस्तानी को
धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश हुई। हिंदी के खिलाफ हिन्दुस्तानी को खड़ा करने की
कोशिश पहले भी हुई और अब भी प्रगतिशीलता के झंडाबरदार बीच बीच में हिन्दुस्तानी की
बातें करने लग जाते हैं। हिंदी में दो लेखक हुए, एक राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद और
दूसरे भारतेन्दु हरिश्चंद्र। राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द हिंदी और उर्दू को
मिलाकर हिन्दुस्तानी की पैरोकारी करते थे। दूसरे विद्वान भारतेन्दु हिंदी को लेकर
चले। शिवप्रसाद सितारे-हिन्द इतिहास के बियावान के एक कोने में हैं वहीं भारतेन्दु
की हिंदी आज भी सीनातान कर खड़ी है। हिन्दुस्तानी का आंदोलन तो गांधी जी ने भी
चलाया लेकिन उनका भी विरोध हुआ। गांधी ने 18 मार्च 1920 को वी एस श्रीनिवास शास्त्री को लिखा ‘हिन्दी और उर्दू के मिश्रण से निकली
हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य
में स्वीकार कर लिया जाए। अतएव, भावी
सदस्य इम्पीरियल कौंसिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग
प्रारंभ हो सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध
होंगे। (संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड17)। गांधी जी जितनी मजबूती से हिन्दुस्तानी का
साथ दे रहे थे, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्य उतनी
ही ताकत से उनका विरोध कर रहे थे । ये विरोध इतना बढ़ा था कि गांधी को 28 मई 1945
को सम्मेलन से अपना इस्तीफा देना पड़ा था। संविधान सभा में हिंदी और हिन्दुस्तानी
को लेकर भी लंबी चर्चा हुई थी। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी हिंदी और हिन्दुस्तानी
को लेकर मत विभाजन हुआ था जिसमें हिंदी को बहुमत मिला था। बाद की कहानी तो सबके
सामने है। फैज के विवाद के बहाने से जो लोग गंगा जमुनी तहजीब की बात कर रहे हैं
उनको यह समझना होगा कि रानीति के लिए साहित्य की जमीन का उपयोग गलत है और इतिहास
गवाह है कि जब जब ऐसा करने की कोशिश हुई तो जनता ने खुद ब खुद उनको हाशिए पर डाल
दिया।
3 comments:
इस पूरे विवाद में कथित उदारवादी/मार्क्सवादी बौद्धिक
जमात की अकुलाहट है जो अपने राजनीतिक आकाओं की छीजती जमीन को सहेजने के लिये आकुल हैं, अन्यथा 300 स्टूडेंट्स अगर फ़ैज की नज़्म गा भी रहे हैं एक कैम्पस में और कुछ ने प्रक्टर से शिकायत कर भी दी तो ये एक यूनिवर्सिटी का निहायत ही आन्तरिक मामला है, पर जैसे इसको लपका गया जावेद अख्तर, इरफ़ान हबीब और अन्य द्वारा, उस से तो यही लगता है कि इस गैंग के पास कारतूस खतम होते जा रहे हैं जिससे निशाना लगा सकें इसलिये फुल्झरी को मैग्नीफाई करके अपनी भी विश्वसनीयता को दांव पर लगा रहे हैं, जो पहले से ही संदिग्ध है।
धन्यवाद!!
अपेकच्छा हैं की आपके इस अति पठनीय लेख से कुछ सीख आपके सोशल मीडिया के फोल्लोवेर भी लेंगे ।
बहुत सटीक प्रश्नन पूछे गए हैं। मगर लोगों को रोटी सेंकने के लिए कुछ चाहिए होता है।
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