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Thursday, April 30, 2020

प्रेम और विद्रोह का नायक


कहते हैं कि पूत के पांव पलने में दिख जाते हैं लेकिन ऋषि कपूर के पांव तो खाट पर दिखे थे जब उन्होंने बचपन में ही अपने दादा पृथ्वीराज कपूर निर्देशित नाटक पठान में अभिनय किया था। जिसने फिल्मों के सेट पर उसकी शूटिंग के दौरान चलना सीखा हो, जिसके लिए सेट पर लगाए गए सामान खिलौने की तरह हों, जो अपने बचपन में फिल्मों के सेट को ही वास्तविक दुनिया समझता हो उसके लिए फिल्मों में काम करना स्वाभाविक है। ऋषि कपूर का बचपन भी फिल्म श्री 420 और मुगल ए आजम के सेट पर अपने भाई बहनों के साथ खेलते हुए बीता था। मुगल ए आजम के सेट पर वो तलवार से खेलते थे। उन्होंने कहा भी था कि सेट पर तलवारबाजी करना उन्हें बचपन में बहुत पसंद था। फिल्मों और फिल्मकारों के बीच गुजर रहे बचपन से जब किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो उनके पिता खुद उनको स्कूल से भगाकर फिल्म में काम करने ले जाने लगे। ये भी एक दिलचस्प तथ्य है कि राज कपूर साहब अपने बेटे को स्कूल से भगाकर फिल्म मेरा नाम जोकर में काम करवाने ले जाते थे। जाहिर सी बात है जो अभिनय उनके रगों में दौड़ था वो इस तरह का वातावरण और सहयोग पाकर निखरने लगा था। तब किसे पता था कि एक ऐसा नायक गढ़ा जा रहा है जो हिंदी सिनेमा के इतिहास में पैंतालीस साल से अधिक समय तक दर्शकों के दिलों पर राज करेगा। अगर हम इसको थोड़ी सूक्षमता के साथ देखें तो पाते हैं कि 1973 में बॉबी के रिलीज होने से लेकर 1998 की फिल्म कारोबार तक यानि पच्चीस साल तक ऋषि कपूर एक रोमांटिक हीरो के तौर पर दर्शकों के दिलों पर राज करते रहे। उसके बाद उन्होंने अपने लिए अलग तरह की भूमिकाएं चुनीं।   
साल 1973 को हिंदी फिल्मों के इतिहास में इस वजह से याद किया जाएगा कि उसने एक साथ हिंदी फिल्मों को एंग्री यंगमैन भी दिया और एक ऐसा हीरो भी दिया जिसकी मासूम रोमांटिक छवि के मोहपाश में दर्शक पचीस साल तक बंधे रहे। 1973 में जब बॉबी फिल्म रिलीज हुई थी तो ऋषि कपूर एक रोमांटिक हीरो के तौर पर स्थापित हो गए थे, इस फिल्म में उनका किरदार युवाओं में मस्ती और मोहब्बत की दीवानगी का प्रतीक बन गया था। इस फिल्म में ऋषि कपूर और डिंपल के चरित्र को इस तरह से गढ़ा गया था कि वो उस दौर में युवाओं की बेचैनी और कुछ कर गुजरने की तमन्ना को प्रतिबिंबित कर सके। किशोरावस्था से जवानी की दहलीज पर कदम रख रहे युवा प्रेमी जोड़े के कास्टूयम को भी इस तरह से डिजायन किया गया था ताकि ऋषि और डिंपल युवा मन आकांक्षाओं को चित्रित कर सकें। जिस तरह से डिंपल के बालों में स्कार्फ और उसके ब्लाउज को कमर के ऊपर बांधकर ड्रेस बनाया गया था या फिर ऋषि कपूर को बड़े बड़े चश्मे पहनाए गए थे उसमें एक स्टाइल स्टेटमेंट था।इस फिल्म के बाद पोल्का डॉट्स के कपड़े खूब लोकप्रिय हुए थे। फिल्म में इन दोनों के चरित्र को टीनएज प्यार और उस प्यार को पाने के लिए विद्रोही स्वभाव का प्रतिनिधि बनाया गया था। ऋषि कपूर और डिंपल की ये सुपर हिट इस फिल्म के बाद जुदा हो गई क्योंकि फिल्म के हिट होते ही डिंपल और राजेश खन्ना ने शादी कर ली थी। ये दोनों फिर करीब बारह साल बाद एक साथ फिल्म सागर में आए। बारह साल बाद भी इस जोड़ी ने सिल्वर स्क्रीन पर प्रेम का वही उत्स पैदा किया और दर्शकों ने दिल खोलकर इस फिल्म को पसंद किया।
ऋषि कपूर अपनी फिल्म बॉबी की सफलता के बाद सातवें आसमान पर थे। 1974 में उनकी और नीतू सिंह की फिल्म आई जहरीला इंसान जो फ्लॉप हो गई लेकिन इस जोड़ी के काम को सराहना मिली। उसके बाद इन दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया। पर बॉबी जैसी सफलता नहीं मिल पाई। कर्ज को जब अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो वो गहरे अवसाद में चले गए। ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा खुल्लम खुल्ला में माना है कि उनको कभी भी संघर्ष करने की जरूरत नहीं पड़ी। बहुत कम उम्र में ही बॉबी फिल्म मिल गई और वो बेहद सफल रही। जब असफलताओं से उनका सामना हुआ तो वो लगभग टूट से गए। वो अपनी असफलता के लिए नीतू सिंह को जिम्मेदार मानने लगे थे इस वजह से पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव गया था। यह उस वक्त हो रहा था जब नीतू सिंह गर्भवती थी। तब इस तनाव को दूर करने का बीड़ा राज कपूर ने उठाया और ऋषि को बैठाकर गीता का उपदेश देना शुरू किया। राज कपूर के प्रयासों से ऋषि इस अवसाद से ऊबर पाए। अवसाद के उबरने के बाद ऋषि कपूर ने नसीब और प्रेम रोग जैसी फिल्में की जो बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट रहीं। इसके पहले जब वो अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना के साथ फिल्म अमर अकबर एंथोनी में काम कर रहे थे तो उनके सामने ये चुनौती थी कि दो इतने बड़े अभिनेताओं के सामने अपनी उपस्थिति को बचा भी पाएंगें या नहीं। लेकिन अकबर के रूप में जिस तरह से उन्होंने एक टपोरी चरित्र को निभाया उसने अमिताभ और विनोद खन्ना के समांतर खुद को खड़ा कर लिया।
फिर आया 1989 का साल जब ऋषि कपूर और यश चोपड़ा दोनों ने एक बेहद शानदार और सुपरहिट फिल्म से धमाकेदार मौजूदगी दर्ज कराई। धमाकेदार इसलिए कि सालभर पहले ही यश चोपड़ा की फिल्म विजय में ऋषि ने काम किया था जो फ्लॉप हो गई थी। चांदनी का रोल भी पहले अनिल कपूर को ऑफर हुआ था लेकिन बाद में ऋषि को मिला। ऋषि भी इस रोल को लेकर हिचक रहे थे लेकिन यश चोपड़ा के आश्वसान के बाद मान गए थे। इस फिल्म से ऋषि कपूर की लवर बॉय की इमेज पुख्ता हुई। आज भी दर्शकों को वो दृश्य याद है जब ऋषि कपूर हेलीकॉप्टर से अपनी प्रेमिका श्रीदेवी पर गुलाब की पंखुड़ियां उड़ाता है। लोगों को प्रेम का पाठ पढ़ानेवाला, अपने प्रेम को हासिल करने के लिए विद्रोह करनेवाला नायक अब नहीं रहा। उसके जाने से हिंदी फिल्मों का ये सृजनात्मक कोना सूना हो गया।

Monday, April 27, 2020

भारतीय फिल्मों का हिरामन


किसे पता था कि 1945 में अपने मित्र डी के गुप्ता की प्रिटिंग प्रेस से विभूति भूषण बनर्जी के उपन्यास पाथेर पांचाली के लिए इलस्ट्रेशन बनाने वाले सत्यजित रे ठीक दस साल बाद 1955 में इसी नाम से एक फिल्म बना डालेंगे। दरअसल सत्यजित रे उस परिवार से आते थे जिनका प्रिंटिंग प्रेस था। उनके दादा उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी बडे लेखक, चित्रकार और संगीतकार थे जिन्होंने यू रे एंड संस के नाम से एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी. इसी प्रिंटिंग प्रेस से वो बच्चों की प्रतिष्ठित बांग्ला पत्रिका संदेश निकालते थे। सत्यजित रे के पिता सुकुमार रे भी बांग्ला के प्रतिष्ठित लेखक-कवि और इलस्ट्रेटर थे। 2 मई 1921 को जब सत्यजित रे का जन्म हुआ तो उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हो गए और थोड़े ही दिन बाद चल बसे। इसके पहले उनके दादा जी का भी निधन हो चुका था। परिवार के सामने संकट की स्थिति थी। उनके पिता के निधन के तीन साल के अंदर प्रकाशन का कार्य बंद करना पड़ा, अपना मकान छोड़कर रिश्तेदार के यहां रहने जाना पड़ा। यहां सत्यजित रे ने जीवन के संघर्ष को बहुत पास से देखा। आठ साल की उम्र तक वो स्कूल नहीं जा सके। फिर किसी तरह सरकारी स्कूल में नामांकन हुआ, लेकिन यहीं पर उनको फिल्मों का और पश्चिमी संगीत का चस्का लग। फिर वो शांति निकेतन पहुंचे। वहां पहुंचकर फिल्मों और संगीत के प्रति उनका प्यार परवान चढ़ गया। स्नातक करने के बाद उन्होंने आगे पढ़ने का इरादा छोड़ दिया क्योंकि फिल्मों को लेकर उनकी दीवानगी बहुत बढ़ गई थी। शांति निकेतन में भी और वहां से कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) लौटने पर भी।
शांति निकेतन में उनका मन जरा कम लगता था क्योंकि वो वहां फिल्में नहीं देख पाते थे। मन बहलाने के लिए और अपने स्केचिंग के अभ्यास के लिए वो शांति निकेतन कैंपस से बाहर निकलकर पास के गांवों में चले जाते थे। सत्यजित रे का इस दौरान गांव और जीवन के यथार्थ दोनों से साक्षात्कार हो रहा था। यथार्थ और गांव से हुआ ये साक्षात्कार बाद में चलकर उनकी फिल्मों में उपस्थित रहा। शांति निकेतन में रहते हुए सत्यजित रे चित्रकला तो सीख रहे थे लेकिन उनका मन कोलकाता में ही अटका रहता था। एक तो फिल्में देखने का आकर्षण दूसरा अपनी प्रेमिका से मिलने की तड़प सत्यजित को हर सप्ताहांत कोलकाता ले जाती थी। नया सप्ताह शुरू होने पर शांति निकेतन वापस लौटने का मन नहीं करता था लेकिन मजबूरी थी। जब दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने दिसंबर 1942 में कोलकाता पर बम बरसाया तो फिर सत्यजित शांति निकेतन में रुक नहीं सके और अपने परिवार के पास कोलकाता लौट आए।
कोलकाता आकर सत्यजित रे का मन फिल्मों मे ज्यादा रमने लगा। उन्होंने अपने दो दोस्तों बंशी चंद्रगुप्त और चिदानंद दासगुप्ता के साथ मिलकर कोलकाता की पहली फिल्म सोसाइटी शुरू की। इसके बैनर तले पहली फिल्म बैटलशिप पोटेंकिन दिखाई गई। ये फिल्म रूस में बनी थी और नौसेना के एक वॉरशिप पर आधारित थी। इसी समय सत्यजित रे ने फिल्मों के बारे में अंग्रेजी और बांग्ला में लिखना शुरू कर दिया था और एक विज्ञापन एजेंसी में नौकरी भी करने लगे थे। उसी दौरान मशहूर फ्रेंच निर्देशक जीन रेनवॉं अपनी फिल्म द रिवर की शूटिंग के लिए लोकेशन की तलाश में कोलकाता आए थे। जब सत्यजित रे को पता चला कि जीन रेनवॉं शहर में हैं तो वो उनसे मिलने उनको होटल पहुंच गए। दोनों में थोड़ी देर बातचीत हुई। जीन रेनवॉं उनसे बेहद प्रभावित हो गए, दोनों के बीच लगभग मित्रता हो गई। एक दिन जीन ने रे से पूछा कि क्या वो फिल्म बनाना चाहते हैं तो उन्होंने साफ तौर पर कहा था, हां। ये पहली बार था जब सत्यजित रे ने किसी से अपने मन की बात साझा की थी। लेकिन जब रेनवॉं अपनी फिल्म द रिवर बनाने कोलकाता आए तो उसी समय सत्यजित रे को अपनी कंपनी के काम से  लंदन जाना पड़ा। दोनों साथ काम नहीं कर सके।लंदन जाने के रास्ते में सत्यजित रे अपनी पत्नी बिजया के साथ बैठकर पाथेर पांचाली फिल्म के निर्माण की योजना बनाई, उसको अपनी कॉपी में लिखा।
कोलकाता लौटने के बाद उन्होंने फिल्म बनाने की कोशिशें शुरू कीं तो उनको कोई फाइनेंसर नहीं मिला। तब सत्यजित रे अपने इश्योंरेंस पॉलिसी को गिरवी रखकर काम शुरू किया लेकिन यहां भी बाधा आई। एक दिन की शूटिंग के बाद जब वो अपनी टीम के साथ अगले दिन बाग में पहुंचे तो देखा कि वहां के सारे फूल तो पशु चर गए हैं। शूटिंग रद्द। पैसे बर्बाद। काम रुक गया। क्योंकि एक दिन की शूटिंग फूलों के बीच हुई थी। एक लंबे अंतराल के बाद फिर से फिल्म बनाने मे जुटे तो पत्नी के गहने बेच दिए। तब भी फिल्म के लिए पैसे कम पड़े। बंगाल सरकार की मदद ली। किसी तरह फिल्म पूरी हुई। लंबी कहानी है कि कैसे इस फिल्म का प्रीमियर न्यूयॉर्क में हुआ। जब 1955 में भारत में फिल्म रिलीज हुई तो पहले दो सप्ताह तो ऐसा लगा कि मेहनत बेकार गई। लेकिन दो सप्ताह के बाद इस फिल्म ने सत्यजित रे को शोहरत और पैसा दोनों दिलवाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जब इस फिल्म को देखा तो वो चमत्कृत रह गए। उन्होंने प्रयासपूर्वक इसको कान फिल्म फेस्टिवल में भिजवाया जहां इसको स्पेशल प्राइज मिला था।
ऐसी ही दिलचस्प कहानी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी के साथ जुड़ी है, लखनऊ में लोकेशन के चयन से लेकर स्क्रिप्ट लिखने तक को लेकर। अगर हम सत्यजित रे की पहली फिल्म पाथेर पांचाली से लेकर उनकी आखिरी फिल्म आगन्तुक के छत्तीस साल के सफर पर नजर डालें तो एक ऐसा शख्स दिखाई देता है जिसमें फिल्म निर्माण की बारीकियों की विलक्षण समझ थी। सत्यजित रे हर फ्रेम को कलात्मकता का एक ऐसा रूप दे देते थे जिसका समुच्चय एक क्लासिक के रूप में दर्शकों के सामने आता था। सत्यजित रे अपनी फिल्मों में इमोशन को तकनीक के माध्यम से इतना प्रभावोत्पादक बना देते थे कि दर्शक उसके मोहपाश से जल्द मुक्त नहीं पाता था। सत्यजित रे की एक खूबी और थी कि वो अभिनेताओं के कॉस्ट्यूम से लेकर फिल्म के सीक्वेंस का रेखाचित्र बनाते थे। वो पहले सीन दर सीन कागज पर गढ़ते थे और फिर उसको रील में उतारते थे। उनकी कई ऐसी कॉपियां अब भी मौजूद हैं दिनमें उन्होंने फिल्मों के सीन बनाए थे। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते सत्यजित रे विश्व के तमाम बड़े और कालजयी फिल्मकारों की अग्रिम पंक्ति में शामिल हैं।

Saturday, April 25, 2020

राजनीति की पिछलग्गू नहीं संस्कृति


कोरोना के इस संकटग्रस्त समय में परंपरा और संस्कृति की बहुत बातें हो रही हैं। सोशल मीडिया से लेकर अन्य संवाद माध्यमों पर भारतीय पौराणिक कहानियों से लेकर पौराणिक उपचार की पद्धतियों को लेकर भी खासी रुचि देखी जा रही है। इस आलोक में ही पिछले दिनों पांच मित्रों के बीच एक बेहद दिलचस्प चर्चा हो रही थी। एक मित्र ने जब कहा कि भारतीय संस्कृति विश्व में सबसे अच्छी और समृद्ध संस्कृति रही है, अब समय आ गया है कि भारत एक बार फिर से विश्व गुरू के तौर पर स्थापित होगा। अपना पुराना गौरव वापस हासिल करेगा। वो लगातार भारतीय संस्कृति को लेकर अपना मत रख रहे थे। मेरे साथ बाकी सभी तीन मित्र उसको बड़े ध्यान से सुन रहे थे। जब पांच मित्र किसी मसले पर बात कर रहे हों तो कहीं न कहीं से उसमें राजनीति आ ही जाती है। इस संवाद में यही हुआ और इसमें भी राजनीति आ गई। भारतीय संस्कृति के गुणों का वर्णन करनेवाले मित्र ने भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं को संस्कृति से जोड़ दिया। एक मित्र इस बात से सहमत नहीं हो रहा था और उसने कई तरह के तथ्य रखने शुरू कर दिए कि मौजूदा सरकार संस्कृति को लेकर उतनी संजीदा नहीं है जितनी अपेक्षित थी। उनका कहना था कि संस्कृति से जुड़े लोगों को लगता था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार के दौरान संस्कृति को प्राथमिकता मिलेगी लेकिन पिछले छह साल में संस्कृति मंत्रालय का क्या हाल रहा ये किसी से छिपा नहीं है। अब ये मित्र थोड़े आक्रामक होने लगे थे और उन्होंने कहा कि अगर मौजूदा सरकार संस्कृति को लेकर इतनी ही संजीदा होती तो क्या महीनों से संस्कृति सचिव का पद खाली रहता, क्या संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन का पद खाली होता, उसके पास संस्थाओं में खाली पड़े पदों की संख्या की लंबी सूची थी। उसने यह कहकर अपनी बात खत्म कि अगर कला, संस्कृति और संस्कृतिकर्मी सरकार की प्राथमिकता में होते तो क्या ये संभव होता कि कलाकारों को मिलनेवाले ग्रांट दो साल से रुके रहते। ये एक ऐसी राशि है जो बड़े कलाकारों को संस्थाओं को चलाने के लिए दिए जाते हैं।
इन दोनों मित्रों की बात बड़े ध्यान से सुन रहे तीसरे मित्र भी अब कुछ बोलने को आतुर दिख रहे थे। उन्होंने दूसरे मित्र को छेड़ने के लिए कहा कि यार तुम राजनीतिक पार्टी से संस्कृति को लेकर अपेक्षा रखते हो, आश्चर्य। उसने बड़े ही हल्के तरीके से कह दिया कि कला, साहित्य और संस्कृति से वोट नहीं मिलते हैं। इनसे चुनाव नहीं जीते जाते हैं। उसने कहा कि वो पिछले बीस साल से राजनीतिक रिपोर्टिंग कर रहा है और ये देखा है कि संस्कृति किसी भी राजनीतिक दल की प्रथामिकता में नहीं रही है। उसने तो यहां तक कह दिया कि भारतीय जनता पार्टी के एक बड़े नेता ने संगठन की एक बैठक में कहा भी था कि साहित्य-संस्कृति से वोट नहीं मिलता। हमने उसपर बहुत दबाव डाला कि उस नेता का नाम हमें बता दो जिसने ऐसा कहा था लेकिन उसने साफ इंकार कर दिया। उसका कहना था कि ये बताने का उद्देश्य किसी नेता का नाम लेना नहीं है बल्कि वो तो राजनीति की सोच को रेखांकित करना चाहता था। उसने कहा कि ये सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की समस्या नहीं है, कुछ इसी तरह की बातें कांग्रेस के राज में भी होती थीं। वहां भी संस्कृति किसी की प्राथमिता पर थी नहीं। अब बारी चौथे मित्र की थी जो कि बहुत कम बोलते हैं लेकिन जब वो बोलते हैं तो हमलोग बेहद ध्यान से उनको सुनते भी हैं। संस्कृति में उनकी भी रुचि है और विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक होने की वजह से हमेशा पुराने संदर्भों के साथ बात करते हैं।
इस मित्र ने कहा कि देखिए हमें राजनीति से मतलब नहीं, कौन पार्टी भारतीय संस्कृति को लेकर गंभीर है कौन नहीं, मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि संस्कृति किसी भी राजनीतिक दल के लिए बेहद आवश्यक है और वो राजनीति की पिछलग्गू नहीं हो सकती। जिस भी दल के नेता की संस्कृति में रुचि होती है और वो संस्कृति को लेकर सजग रहता है, वो लंबे समय तक जनमानस पर राज करता है। यह सही है कि साहित्य-संस्कृति से वोट नहीं मिलते लेकिन साहित्य संस्कृति से जुड़े होने की वजह से आपको राजनीति में दीर्घजीविता मिलती है। सीध वोट नहीं मिलते हों लेकिन जनता आपको पसंद करती है। उन्होंने आगे कहा कि दुनिया में इस बात के कई उदाहरण हैं जहां नेता अगर अपनी संस्कृति को लेकर संजीदगी से काम करता है तो वो सालों तक जन का दुलारा बना रहता है। जैसे ही वो संस्कृति से दूर होता है तो जनता उससे दूर हो जाती है। इस मसले पर उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का नाम लिया। बोले कि जवाहरलाल लगातार साहित्य-संस्कृति से जुड़े रहते थे, इन गतिविधियों में सक्रियता के साथ भाग भी लेते थे। जीवनपर्यंत देश के प्रधानमंत्री बने रहे। उनकी बेटी इंदिरा गांधी में पिता के संस्कार आए थे लेकिन इमरजेंसी में जब कम्युनिस्टों ने उनका समर्थन किया तो उसके एवज में उन्होंने कला, साहित्य और संस्कृति उनको आउटसोर्स कर दिया। नतीजा क्या हुआ जनता का उनमें भरोसा कम हुआ। उन्होंने सत्ता गंवाई भी। अगर उनकी हत्या नहीं हुई होती तो स्थिति और साफ होती। राजीव गांधी के दौर में भी साहित्य, कला और संस्कृति कम्युनिस्टों के ही जिम्मे रही, ये नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में भी दिखा और उसके बाद के मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी। नतीजा क्या है आप खुद ही देख लीजिए। कांग्रेस जनता से किस कदर दूर हो गई है। उसको लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। बीच में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, कला संस्कृति को लेकर अटल जी के मन में आदर था, जब भी मौका मिलता था तो वो इस ओर ध्यान भी देते थे और समय भी। नरेन्द्र मोदी की सरकार को अभी छह साल हुए हैं, यह कालखंड किसी के भी क्रियाकलापों को कसौटी पर कसने के लिए कम होता है। लेकिन ये अवश्य तय है कि अगर साहित्य कला और संस्कृति के इनकी प्राथमिकता में रहेगा तो फिर लंबे समय तक जनता का प्यार इनको मिलता रहेगा
प्रोफेसर साहब ने बहस को गंभीरता प्रदान कर दी थी और उद्धरणों के साथ अपनी बात रख रहे थे तो बहुत अधिक असहमति कोई उनसे जता नहीं रहा था। धीरे-धीरे बात इस ओर चली गई कि जबसे शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय को अलग किया गया तभी से अधिक गड़बड़ियां शुरू हुई। कभी पर्यटन के साथ तो कभी नागरिक उड्डयन के साथ संस्कृति मंत्रालय को जोड़ दिया जाता है। दोनों विभागों के मंत्री एक ही होते हैं तो ऐसे में संस्कृति मंत्रालय प्राथमिकता में आ नहीं पाता है। शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय को एक साथ होना चाहिए क्योंकि शिक्षा संस्कृति का एक बेहद अहम हिस्सा है। बल्कि संस्कृति मंत्रालय को लेकर अगर सरकार गंभीर है तो उसको मंत्रालयों के पुनर्गठन के बारे में विचार करना चाहिए। संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत मानव संसाधन विकास मंत्रालय के भाषा संबंधी विभाग, गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय का सिनेमा और प्रकाशन संबंधी विभाग आदि को जोड़कर संस्कृति मंत्रालय को नया स्वरूप देना चाहिए। इसके अलावा संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत ही जो अलग अलग विभाग एक ही काम कर रहे हैं उनके कार्यों को ध्यान से देखकर उसके बीच बेहतर तरीके से कार्य विभाजन करना चाहिए। संगीत नाटक अकादमी भी कलाकारों के परफॉर्मेंस आयोजित करता है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में भी इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के होते हुए संगीत और नाटक की एक अलग अकादमी भी है। केंद्रीय हिंदी संस्थान के होते हुए भी बेंगलुरू में एक भाषा संस्थान अलग से है। इन सबको वस्तुनिष्ठता के साथ देखकर आकलन करते हुए दोहराव को दूर करना चाहिए। इसके दो फायदे होंगे एक तो काम सुचारू रूप होगा और दूसरा करदाताओं के पैसे का अपव्यय रुकेगा. संस्कृति को मजबूती मिलेगी सो अलग।

Saturday, April 18, 2020

‘महाभारत’:संवाद लेखन का अर्धसत्य


कोरोना के चलते लॉकडाउन में लोगों के सामने बेहतरीन सीरियल प्रस्तुत करने की दूरदर्शन की कोशिशों के चलते ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के अलावा कई पुराने पर बेहद लोकप्रिय रहे सीरियलों का पुनर्प्रसारण प्रारंभ हुआ। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के फिर से प्रसारण का समाचार सार्वजनिक होते ही इनके निर्माण से जुड़ी कहानियां भी फिर से सामने आने लगीं। ऐसी ही एक कहानी, जो बहुत जोर-शोर से प्रचारित की गई कि वो महाभारत से जुड़ी थी। ये प्रचारित किया गया कि महाभारत का संवाद, मशहूर लेखक राही मासूम रजा ने लिखे। पर इस सचाई में एक और सचाई जरा दब सी गई, वो ये है कि राही मासूम रजा साहब को पंडित नरेन्द्र शर्मा का भी साथ मिला था। किस्से इस तरह गढ़े गए कि इस संदर्भ में नरेन्द्र शर्मा का नाम कोई लेता नहीं है, जबकि इस सीरियल के निर्माण के दौरान जब राही मासूम रजा इसके संवाद लिख रहे थे तो पंडित नरेन्द्र शर्मा उनकी काफी मदद कर रहे थे। कहना न होगा कि महाभारत की पटकथा से लेकर संवाद तक में दोनों लेखकों की भूमिका थी। प्रचारित तो यह भी किया गया कि राही मासूम रजा ने ‘भ्राताश्री’, ‘माताश्री’ जैसे शब्द गढ़े लेकिन ऐसा प्रचारित करनेवाले ये भूल गए कि ‘महाभारत’ के पहले ही ‘रामायण’ का प्रसारण हो चुका था और उसमें मेघनाद अपने पिता राक्षसराज रावण को पिताश्री कहकर ही संबोधित करता है। ‘रामायण’ के सवाद तो रामानंद सागर ने लिखे थे। इसलिए इन शब्दों को गढ़ने का श्रेय रजा साहब को देना अनुचित है। इस सीरियल को लिखने के दौरान होता ये था कि रजा साहब और नरेन्द्र शर्मा में लगातार विमर्श होता रहता था और दोनों एक दूसरे की मदद करते थे। यह भी सर्विविदित तथ्य है कि राही मासूम रजा जो भी लिखकर भेजते थे उसको पंडित नरेन्द्र शर्मा देखते थे और उनकी सहमति के बाद ही सीरियल में उसका उपयोग होता था। पंडित नरेन्द्र शर्मा की पुत्री लावण्या शाह के मुताबिक, राही मासूम रजा ने कहा था कि ‘महाभारत की भूल भूलैया भरी गलियों में, मैं , पंडित जी की अंगुली थामे, आगे बढ़ता गया’

दरअसल हिंदी फिल्मों से जुड़े एक खास वर्ग के लोग और मार्क्सवादी विचारधारा के अनुयायियों की ये पुरानी तकनीक है जिसके तहत वो फिल्मों की लोकप्रियता का श्रेय उन संवाद लेखकों को देते रहे हैं जो हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग करते रहे हैं। ये लोग इसको हिन्दुस्तानी कहकर प्रचारित प्रसारित करते हैं। गानों या संवादों में भी हिंदी शब्दों की बहुलता को लेकर बहुधा उपहास किया जाता रहा लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी हिंदी में संवाद लिखे गए, लोगों ने उसको खूब पसंद किया, जब भी विशुद्ध हिंदी की शब्दावली में गीत लिखे गए तो वो काफी लोकप्रिय हुए। पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा, 1961 की फिल्म ‘भाभी की चूड़ियां’ का एक गीत ‘ज्योति कलश झलके’ बेहद लोकप्रिय हुआ था। इस गीत को संगीतबद्ध किया था महान मराठी संगीतकार सुधीर फड़के ने। या अगर हम 1951 की एक फिल्म ‘मालती माधव’ का गीत याद करें ‘मन सौंप दिया अनजाने में, नैनों ने दरस रस किया पान, कर दिया पलक में ह्रदय दान’ तो पते हैं कि ये गाना भी काफी लोकप्रिय हुआ था। इसको भी पंडित नरेन्द्र शर्मा ने लिखा था, लता ने अपनी आवाज दी थी और संगीतबद्ध किया था सुधीर फड़के ने। ऐसे कई गीत हैं जहां हिंदी के शब्दों को लेकर रचना की गई लेकिन ना तो गानेवालों को और ना ही संगीत देनेवालों को कोई दिक्कत हुई. कर्णप्रिय भी हुए और लोकप्रिय भी। यह तो गंभीर और गहन शोध की मांग करता है कि कैसे फिल्म जगत में हिंदी को हिंदी और उर्दू मिश्रित जुबान से विस्थापित करने की कोशिश हुई और हिंदुस्तानी के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ किया गया।
इतना ही नहीं अगर हम ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के संवाद को देखें तो उसमें भी हिंदी अपनी ठाठ के साथ खिलखिलाती है।जब ये पहली बार दर्शकों के लिए दूरदर्शन पर दिखाए गए तब भी और जब अब एक बार फिर से दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे हैं तब भी, बेहद लोकप्रिय हैं। उस दौर के दर्शक अलग थे और जाहिर सी बात है कि तीन दशक के बाद दर्शक बदल गए हैं लेकिन लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। भाषा को लेकर किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई। ना सिर्फ ‘महाभारत’ या ‘रामायण’ बल्कि अगर हम बात करें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ या ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ की भाषा हिंदी ही थी। सभी बेहद लोकप्रिय हुए। इस तरह के सीरियल न केवल लोकप्रि. हुए बल्कि इन्होंने हिंदी का विकास ही किया, उसको मजबूती दी, उसको विस्तार दिया। सीरियल के माध्यम से लोगों का हिंदी के कई शब्दों से परिचय हुआ, वो उनका उपयोग बढ़ा और शब्द चलन में आ गए। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ ने हिंदी के कई ऐसे शब्द फिर से जीवित कर दिए। ‘पंचकोटि’ जैसे शब्द तो लगभग चलन से गायब ही हो गए थे। ये इस सीरियल की लोकप्रियता ही थी जिसने शब्दों में फिर से जान डाल दी। मुझे याद है कि 2012 में जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मॉरीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि ‘हिंदी के प्रचार प्रसार में बॉलीवुड की फिल्में और टीवी पर चलनेवाले सीरियल्स का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि उनकी जो भी हिंदी है वो सिर्फ हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स की बदौलत है ।‘ और वो हिंदी बोल रहे थे तथाकथित हिन्दुस्तानी नहीं। सीरियल और फिल्मों का प्रभाव सिर्फ देश में नहीं बल्कि विदेशों में भी है, चुन्नी रामप्रकाश के वक्तव्य से इसको रेखांकित किया जा सकता है।
वामपंथ के प्रभाव में हिंदी के साथ भी खिलवाड़ शुरू हुआ और भाषा को सेक्युलर बनाने की कोशिश शुरू हो गई। गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर हिंदी में उर्दू को मिलाने की कोशिशें सुनियोजित तरीके से शुरू की गईं। हिंदी को कथित तौर पर सुगम बनाने की कोशिश शुरू हुई। नतीजा यह हुआ कि हिंदी के कई शब्द अपना अर्थ खोने लगे। वो चलन से बाहर होने लगे। फिल्मों के प्रभाव को देखते हुए वहां भी कथित तौर पर हिन्दुस्तानी को स्थापित करने की कोशिशें शुरू हुईं। इसके लिए पंडित नरेन्द्र शर्मा जैसे लेखक हाशिए पर धकेले जाने लगे। हिंदी उर्दू मिश्रित संवाद और गीत लिखनेवाले लोगों को प्रमुखता दी जाने लगी। अब यह तो नीति का हिस्सा होता है कि जिको प्रमुखता देनी हो उसके पक्ष में एक माहौल बनाओ और जिसको गिराना हो उसके विपक्ष में माहौल बनाओ। इसके तहत हिंदी को कठिन बताकर उर्दू मिश्रित हिंदी को बेहतर बताकर स्थापिकत किया गया। इस आधारभूत नियम का पालन बॉलीवुड में हुआ। इसका प्रकटीकरण साफ तौर पर महाभारत को लेकर राही मासूम रजा और नरेन्द्र शर्मा वाले प्रकरण में होता है। लेकिन न तो रामायण की भाषा को हिंदुस्तानी किया गया न महाभारत की भाषा को, परिणाम सबके सामने है।
भाषा को दूषित करने के इस खेल में वामपंथियों ने भले ही उर्दू को अपना हथियार बनाया हो लेकिन वो न तो उर्दू के हितैषी हैं और न रही मुसलमानों के। अगर राही मासूम रजा की इतनी ही कद्र या फिक्र होती तो उनको हिंदी में बेहतरीन कृतियां लिखने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाता। साहित्य अकादमी में तो उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद से वामपंथियों का ही बोलबाला रहा। सिर्फ राही मासूम रजा ही क्यों किसी भी मुसलमान लेखक को इन वामपंथियों ने आजतक हिंदी में लिखने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया, शानी के ‘काला जल’ को भी नहीं, रजा के आधा गांव को भी इन्होंने इस लायक नहीं समझा। दरअसल ये अपनी विचारधारा को मजबूत बनाने और अपने और अपने राजनीतिक आकाओं के हितों की रक्षा के लिए भाषा, धर्म समाज सबका उपयोग करते रहे हैं। ये विचारधारा समावेशी नहीं है। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि इसका वैचारिक आधार स्वार्थ है और ये राजसत्ता हासिल करने के लिए भाषा, संस्कृति या धर्म का उपयोग करना चाहते हैं। साहित्य और संस्कृति को इस विचारधारा वालों ने राजनीति का औजार बनाकर इन विधाओं का इतना नुकसान किया जिसकी भारपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं है। जकरूरत इस बात की है कि भाषाई अस्मिता के साथ खिलवाड़ न किया जाए, भाषा के नियमों के साथ छेड़-छाड़ नहीं की जाए। बॉलीवुड में विचारधारा के नाम पर लंबे समय तक बहुत ही खतरनाक खेला गया, अब भी कई लोग ये खेल खेलना चाहते हैं, खेल भी रहे हैं लेकिन अब बेहद चालाकी से ऐसा करते हैं ताकि पकड़ में न आ सकें लेकिन वामपंथी ये भूल जाते हैं कि ये जनता है और वो सब जानती है। महाभारत के लेखन के लिए राही मासूम रजा को भी श्रेय मिले और बराबरी से पंडित नरेन्द्र शर्मा को भी। अर्धसत्य का दौर समाप्त होने को है। 

Thursday, April 16, 2020

मुसीबत दौर के मसीहा


हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कोरोना से घिरे हॉटस्पॉट इलाके नवाबपुरा इलाके में गई पुलिस पर भीड़ ने हमला कर दिया। ‘दैनिक जागरण’ में एक तस्वीर छपी जिसमें पुलिसवालों को अपने सर के ऊपर टूटा हुआ दरवाजा रखकर जान बचाते दिखाया गया। ये पुलिसवाले कोरोना संक्रमित इलाके में उस परिवार के लोगों को क्वारंटाइन करने गई मेडिकल टीम के साथ थे जिसके घर कोरोना से मौत हुई थी। इस तस्वीर ने पूरी दुनिया को ये दिखाया कि कोरोना के संकटग्रस्त समय में पुलिसवाले कितनी विषम परिस्थितियों में काम करते हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। हिंदी फिल्मों में भी इस तरह के कई पुलिसवालों के चरित्र का चित्रण हुआ है जिन्होंने अपने कर्तव्य के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। अगर हम हिंदी फिल्मों को याद करें तो जो सबसे मजबूत किरदार फौरन याद आता है वो है 1973 में बनी फिल्म ‘जंजीर’ और उसका मुख्य पात्र इंसपेक्टर विजय खन्ना। ‘जंजीर’ में इंसपेक्टर विजय खन्ना की भूमिका का निर्वाह अमिताभ बच्चन ने किया था। एक मासूम बच्चा जिसकी आंखों के सामने उसके माता-पिता की हत्या कर दी जाती है वो बड़ा होकर पुसिलवाला बनता है और अपराध को खत्म करना चाहता है। तमाम तरह के झंझावातों में घिरता है, आरोप लगते हैं, वर्दी उतरवा दी जाती है। अंत में सत्य की जीत होती है और वो अपराधी तेजा से बदला लेने में कामयाब होता है। आज से करीब सैंतालीस साल पहले बनी इस फिल्म में मिर्माता निर्देशक प्रकाश मेहरा ने जिस तरह के पुलिसवाले का चित्रण किया है वो अब भी याद किया जाता है। अमिताभ बच्चन की ही एक और फिल्म है ‘दीवार’ इसमें शशि कपूर ने पुलिस इंसपेक्टर रवि की भूमिका निभाई थी. उसका कहा एक संवाद अब भी किसी पुलिसवाले के कहे किसी भी संवाद के अधिक याद किया जाता है – ‘मेरे पास मां है’। 

‘जंजीर’ के नौ साल बाद एक और फिल्म आई थी ‘शक्ति’। इस फिल्म में दिलीप कुमार ने डीसीपी अश्विनी कुमार की भूमिका निभाई थी। फिल्म में अमिताभ बच्चन उनके बेटे की भूमिका में हैं जो अपराध की दुनिया में होता है। एक तरफ कर्तव्य दूसरी तरफ पिता का दिल और मां की ममता का दवाब। दिलीप कुमार ने इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय करके पुलिसवाले के चरित्र को जीवंत कर दिया था। इस फिल्म के रिलीज होने के ठीक एक साल बाद एक और फिल्म आई थी ‘अर्ध सत्य’। इस फिल्म में ओम पुरी ने एक ईमानदार पुलिस अधिकारी अनंत वेलांकर की भूमिका निभाई थी। इसमें ये दिखाया गया है कि कैसे एक ईमानदार पुलिस अफसर सिस्टम से लड़ता है और अपने मजबूत इरादों के साथ अपराधियों के सामने डटा रहता है। उस समय कई फिल्मी पत्रिकाओं में इस तरह की बातें छपी थीं कि ‘अर्ध सत्य’ जो भूमिका ओम पुरी ने निभाई, वो पहले अमिताभ बच्चन को ऑफर की गई थी लेकिन वो व्यस्तता की वजह से ये फिल्म नहीं कर पाए थे। 
बिहार में लालू-राबड़ी राज के दौरान पुलिसवालों के तबादले से लेकर अपराध की कई कहानियां सामने आते रहती थीं। उसी दौर की पृष्ठभमि पर एक फिल्म बनी थी ‘शूल’। इस फिल्म में मनोज वाजपेयी ने इंसपेक्टर समर प्रताप सिंह की भूमिका का निभाई थी। बिहार के मोतिहारी में बच्चू यादव का राज चलता था, इंसपेक्टर समर प्रताप सिंह ने बच्चू यादव के आतंक को खत्म करने का बीड़ा उठाया था। एक पुलिस इंसपेक्टर को अपराधियों और अपराध को खत्म करने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ये फिल्म ‘शूल’ में बखूबी दिखाया गया है। फिल्मों में पुलिसवालों के बेहतर किरदारों को पेश करने का ये क्रम अब भी चल रहा है। सलमान खान की फिल्म ‘दबंग’ सीरीज में चुलबुल पांडे, ‘सिंघम’ में अजय देवगन, इसके पहले ‘सरफरोश’ में आमिर खान ने पुलिस अफसर अजय सिंह राठौड़ की भूमिका निभाई। हिंदी फिल्मों ने बेहद शिद्दत के साथ पुलिसवालों के संघर्ष और ईमानदारी को रेखांकित किया है। 

ऑडियो बुक्स से बढ़ता प्रेम

कोरोना के चलते देशभर में जारी लॉकडाउन का साहित्य के कई क्षेत्रों में सकारात्मक असर पड़ा है। साहित्य के पाठकों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए संघर्ष कर रहे है ऑडियो बुक्स को लॉकडाउऩ के दौर में श्रोता-पाठकों का भी प्यार मिला है। घर में रहने के दौरान और किताबों की दुकानों के बंद रहने और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की डिलवरी बंद होने की वजह से लोगों को पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं मिल पा रही हैं। इस दौरान कोई फिल्म भी रिलीज नहीं हुई और न ही चेलीविजन पर चलनेवाले सीरियल के नए एपिसोड्स आ रहे हैं। नई फिल्मों और सीरियल के नए एपिसोड्स के आभाव में लोगों के पास मन बहलाने और समय बिताने के लिए बहुत ज्यादा विकल्प नहीं बचते हैं। ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज और फिल्में देखने का एक विकल्प है। समय बिताने के विकल्पों के कम होने की वजह से लोगों का रुझान ऑडियो बुक्स की तरफ हुआ। ऑडियो बुक्स यानि किसी उपन्यास, कहानी, कविता या कथेतर कृतियों की ऑडियो रिकॉर्डिंग। 
ऑडियो बुक्स को लेकर पूरी दुनिया में पाठको-श्रोताओं की एक रुचि लक्षित की गई है वो ये है कि अपेक्षाकृत लंबी कृतियों को लोग सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि कहानी या कविता की तुलना में लोग उपन्यास को अधिक सुनते हैं. आकार में बड़ी कृतियां ही ज्यादा डाउनलोड होती हैं और पसंद की जाती हैं। हमारे देश में भी पाठकों की रुचि इसी ओर है। ऑडियो बुक्स बनाने और उसको पाठकों-श्रोताओं के लिए बेचने वाली अंतराष्ट्रीय कंपनी स्टोरीटेल के भारत में प्रमुख गिरिराज किराडू के मुताबिक हिंदी में भी लोग लंबी कृतियों को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। गिरिराज किराडू के मुताबिक लॉकडाउऩ के दौर में हिंदी के पाठकों का रुझान ऑडियो बुक्स की तरफ बढ़ा है। कार्यालय बंद होने की वजह से वो इस बढ़ोत्तरी का आंकड़ा उपलब्ध नहीं करवा पाए लेकिन उनके मुताबिक बहुत अच्छी बढ़ोतरी देखने को मिल रही है लेकिन यहां भी पाठकों की रुति कालजयी कृतियों में ज्यादा देखने को मिल रही है। हिंदी में अभी भी प्रेमचंद का उपन्यास गोदान या फिर श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी को अन्य कृतियों से ज्यादा श्रोता मिल रहे हैं। स्टोरीटेल के अलावा अमेजन की एक कंपनी ऑडिबल भी ऑडियो बुक्स पाठकों के लिए उपलब्ध करवाती है। इस प्लेटफॉर्म पर सैकड़ों ऑडियो बुक्स मुफ्त में महीने भर के लिए उपलब्ध हैं। ऑडिबल ने लॉकडाउन की अवधि को ध्यान में रखते हुए पाठकों के लिए कई तरह की सहूलियतें भी दी हैं। ऑडियो बुक्स का एक फायदा यह भी होता है कि पाठक-श्रोता कोई अन्य कार्य करते हुए भी इसको सुन सकते हैं। लॉकडाउन में अगर आप घर का कोई काम कर रहे हैं तो भी आप अपनी पसंद की कृतियों को सुन सकते हैं। 

Saturday, April 11, 2020

क्या रामजी करेंगे बेड़ा पार?


कोराना के संकट के दौरान जब देशभर में लॉकडाउन ती घोषणा हुई तो दूरदर्शन ने रामायण और महाभारत समेत कई पुराने पर बेहद लोकप्रिय रहे सीरियल चलाने का फैसला लिया। 28 मार्च से रामानंद सागर निर्देशित रामायण को दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर दिखाया जाने लगा और बी आर चोपड़ा निर्देशित महाभारत को डीडी भारती पर। टेलीकास्ट होने के पहले ही सप्ताह में दूरदर्शन के दर्शकों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज की गई। प्रसार भारती ने ट्वीट कर इस बात की जानकारी दी कि दूरदर्शन के दर्शकों की संख्या में इस दौरान छह सौ पचास फीसदी का इजाफा हुआ। दूसरे सप्ताह में भी दर्शकों की संख्या बनी रही और लोग रामायण और महाभारत को देखते रहे। ये तब हो रहा है जब कुछ निजी चैनल भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों के निर्देशन में बनी रामायण और अन्य धार्मिक सीरियल दिखा रहे हैं। इससे तो एक बात का पता चलता है कि दूरदर्शन पर अगर अच्छा कंटेंट दिखाया जाए तो उसके पास दर्शक आएंगे। दूरदर्शन को अगर प्रोफेशनल तरीके से चलाया जाए और योजनाबद्ध तरीके से सीरियल बनवा कर प्रसारित किए जाएं तो उसको चलाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से सरकारी मदद की और अप्रत्य़क्ष रूप से करदाताओं के पैसे की मदद नहीं चाहिए होगी। उसके अपने कार्यक्रमों से मिलनेवाली धनराशि से ना केवल वो अपना खर्च निकाल सकता है बल्कि मुनाफा भी कमा सकता है।

लेकिन अभी जिस तरह से रामायण का प्रसारण हो रहा है उसको देखकर तो यही लगता है कि दूरदर्शन में प्रोफेशनलिज्म का आभाव है। कभी ये सीरियल नियत समय से दस मिनट पहले खत्म हो जा रहा है तो कभी नियत समय से बीस मिनट अधिक दिखाया जाता है। कभी कोई एपिसोड दोहरा दिया जाता है तो कभी रिकैप के नाम पर दस मिनट तक एक दिन पहले दिखाए गए एपिसोड को रिपीट किया जाता है। शुरुआती एपिसोड में इस तरह की बात समझ में आती है लेकिन दो सप्ताह बीत जाने के बाद भी इस तरह से दिखाया जाना विशुद्ध रूप से लापरवाही और प्रोफेशनलिज्म की कमी की ओर इशारा करता है। शुक्रवार को रामायण रात दस बजकर बीस मिनट तक दिखाया गया। इसकी वजह से रात दस बजे दिखाए जानेवाला सीरियल का समय बदल दिया गया। इस बारे में प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर ने ट्वीट किया कि ‘रामायण के एपिसोड्स की लंबाई अधिक है और रात दस बजे की सीमा को ध्यान में रखकर एडिट करने से महत्वपूर्ण सीन के गुम जाने का खतरा है। और अगर पूरा एपिसोड दिखाया जाता है तो चाणक्य के दर्शकों को प्रतीक्षा करनी होती है।‘ सवाल एडिट करने का है ही नहीं। सवाल कट प्वाइंट्स निकालकर ब्रेक लेने का है। रामानंद सागर की जीवनी में उल्लिखित तथ्यों के मुताबिक रामायण का एक एपिसोड पैंतीस मिनट का है। ऐसा प्रतीक होता है कि अभी दिखाए जा रहे रामायण में मूल सीरियल के दो एपिसोड को जोड़ कर दिखाया जा रहा है। क्योंकि अवधि सत्तर मिनट और विज्ञापन जोड़कर अस्सी मिनट तक पहुंच जा रही है। बगैर एडिट किए भी ऐसे कितने ही कट प्वाइंट्स सीरियल में हैं जहां स्टिंग लगाकर ब्रेक किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए दूरदर्शन के किसी जिम्मेदार व्यक्ति को सारे एपिसोड देखने होंगे। लेकिन लगता है रामायण के निर्माण के समय दूरदर्शन जैसा था वैसा ही है और वहां बहुत कुछ बदला नहीं है।
रामायण सीरियल के निर्माण के दौरान आनेवाली बाधाओं का रामानंद सागर के पुत्र प्रेम सागर ने विस्तार से जिक्र किया है। हुआ ये कि राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे तो एक दिन वो काम करके घर लौटे और टीवी देखने लगे। दूरदर्शन पर चलनेवाले कार्यक्रमों से उनको निराशा हुई। उन्होंने तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री वी एन गाडगिल को फोन लगाकर शिकायत की। गाडगिल को सलाह दी कि दूरदर्शन को अपने कार्यक्रमों में विविधता लानी चाहिए और उसको पौराणिक ग्रंथों और दर्शन पर आधारित सीरियल बनाने चाहिए। इस क्रम में राजीव गांधी ने रामायण और महाभारत का नाम लिया। गाडगिल ने प्रधानमंत्री की बात सुनी और सरकारी कामकाज की पद्धति अपनाते हुए सूचना और प्रसारण सचिव एस एस गिल को प्रधानमंत्री की भावना से अवगत करा दिया। सूचना और प्रसारण सचिव ने इसको आगे बढ़ाते हुए दूरदर्शन के अधिकारियों को बता दिया। आनन फानन में प्राइवेट प्रोड्यूसर्स स्कीम बनाई गई और रामानंद सागर से रामायण बनाने को कहा गया। उनसे कहा कि चार एपिसोड का पायलट बनाकर पेश करें। चोपड़ा ने बनाकर दे दिया। लेकिन उसपर कोई फैसला नहीं हो पा रहा था। सूचना और प्रसारण मंत्री वी एन गाडगिल के अलावा दूरदर्शन के उस वक्त के डायरेक्टर जनरल भास्कर घोष एक तरफ तो प्रधानमंत्री को खुश करना चाहते थे लेकिन रामायण का प्रसारण दूरदर्शन पर हो, इसकी राह में बाधा भी डाल रहे थे।
इस बीच एक बेहद दिलचस्प घटना हुई। सूचना और प्रसारण सचिव गिल ने चोपड़ा के बनाए चार एपिसोड के पायलट का एक एपिसोड घर ले आए। उन्होंने अपनी मां को दिखाया। उस एपिसोड को देखते ही उनकी मां भाव विभोर हो गईं। उन्होंने बेटे से पूछा कि ये कार्यक्रम कब से शुरू हो रहा है। गिल ने इसी बाधाओं की चर्चा की। उनकी मां ने कहा कि किसी कीमत पर इसको दिखाओ। अगले दिन गिल कार्यलय गए। शाम को लौटकर आए तो पता चला कि उनकी मां ने कुछ खाया पीया नहीं है। गिल जब मां के पास पहुंचे तो उन्होंने धमकाते हुए कहा कि अगर रामायण का टेलीकास्ट शुरू नहीं हुआ तो वो अन्न जल त्याग देंगी। गिल परेशान थे लेकिन इस बीच सूचना और प्रसारण मंत्री बदल गए और अजीत पांजा नए मंत्री बन गए, कई अफसरों का भी तबादला हो गया। अब गिल के सामने एक अवसर था, उन्होंने फौरन रामानंद सागर के प्रस्ताव की मंजूरी का पत्र बनवा दिया। रामानंद सागर उसको लेने दिल्ली पहुंचे, उनको एक प्रोग्राम ऑफिसर ने अप्रूवल लेटर देकर सलाह दी कि वो फैरन पत्र लेकर मुंबई चले जाएं। उन्होंने ऐसा ही किया। जब ये अप्रूवल लेटर दूरदर्शन से होता हुआ मंत्रालय पहुंचा तो हंगामा मच गया लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था। तिथि तय हो चुकी थी और 25 जनवरी 1987 को सुबह रामायण का पहला एपिसोड सुबह नौ बजे दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ। ये सीरियल लगातार अठहत्तर सप्ताह तक चला। अनेक तरह की बाधाएं आईं लेकिन किसी न किसी तरह से उसपर पार पा लिया गया।
सबसे बड़ी बाधा तो तब आई जब रामायण के एक्सटेंशन की जरूरत महसूस हुई। भास्कर घोष ने रामायण को 26 एपिसोड का एक्टेंशन देने से मना कर दिया। रामानंद सागर ने सीधे एच के एल भगत से बात कर ली जो अजीत पांजा के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री बने थे। उन्होंने अनुमति दे दी क्योंकि वो समझ रहे थे कि इसको बंद करने से जनता बुरी तरह से खफा हो जाएगी। लेकिन भास्कर घोष लगातार रामानंद सागर पर इस बात के लिए दबाव बना रहे थे कि रामायण से ‘हिन्दू एलिमेंट’ कम करके इसको ‘सेक्यूलर’ बनाएं ताकि इसको अलग अलग विचार के लोग भी देख सकें। रामानंद सागर ने भास्कर घोष की बात नहीं मानी और किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया। उनहोंने भास्कर घोष से बचने की एक युक्ति निकाली। रामांनद सागर हर एपिसोड का टेप टेलीकास्ट टाइम से चंद घंटे पहले दूरदर्शन को सौपने लगे ताकि किसी तरह का बदलाव ही संभव न हो सके। इस तरह से वो रामायण को ‘सेक्यूलर’ होने से बचाने में कामयाब रहे।
दूरदर्शन की बुनियाद में जब ऐसे अफसर रहे हों जो रामायण में भी ‘सेक्युलर एलिमेंट’ ढूंढते हों, जो उसके निर्माता पर इस बात के लिए दबाव बनाएं कि रामकथा से ‘हिदू एलिमेंट’ कम किए जाएं तो उसकी इमारत कैसी बनी होगी, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। दूरदर्शन को स्वतंत्रता देने के लिए प्रसार भारती का गठन किया गया। आज की स्थिति क्या है कि प्रसार भारती में न तो चेयरमैन है नही ही इसके बोर्ड के ज्यादातर सदस्य। एक सीईओ हैं, एक सदस्य वित्त हैं और एक अंशकालिक सदस्या, अभिनेत्री काजोल हैं। प्रसार भारती की जिम्मेदारी है कि वो दूरदर्शन में प्रोफेशनलिज्म लाए। सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वो प्रसार भारती का गठन सुनिश्चित करे। लेकिन इतने दिनों से मंत्रालय में बैठे यथास्थितिवाद के देवताओं को इस बात की फिक्र ही नहीं कि प्रसार भारती बोर्ड का गठन हो। ये देखना दिलचस्प होगा कि रामायण, महाभारत, चाणक्य, बुनियाद, व्योमकेश बख्शी जैसे सीरियल चलाने से दूरदर्शन को जो दर्शक मिले थे उसको वो कबतक जोड़ कर रख सकते हैं। अगर जोड़े रख सके तो न सिर्फ दूरदर्शन का भला होगा बल्कि करदाताओं के पैसे भी बचेंगे।  

Saturday, April 4, 2020

हिंदी फिल्मों से गायब होते गांव!

जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना संकट से निबटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो उसके दो दिन बाद ही लोग अपने अपने घर या यों कहें कि अपने अपने गांव जाने के लिए निकल पड़े। हर कोई संकट के इस समय अपने अपने स्थान पर लौट जाना चाहता था। बड़ी संख्या में लोगों के दिल्ली और अन्य जगहों से अपने अपने गांवों की ओर लौटने को विद्वान पत्रकार साथियों ने पलायन तक कह दिया। लेकिन समाजशास्त्रियों के मुताबिक इसको पूरी तरह से पलायन कहना उचित नहीं था। ये पलायन नहीं था ये तो सुरक्षा के लिए, अपने काम के लिए, सरकारी मदद पाने की आस में, संकट के वक्त अपनों या अपने परिवार के साथ रहने की इच्छापूर्ति के लिए अस्थायी तौर पर अपने गांव या अपने घऱ लौट जाने की चाहत थी। अपने घर की ओर लौटनेवाले इन लोगों में बड़ी संख्या में गांव जाने वाले थे। मुख्य रूप से इसमें गांवों में रहनेवाले वो लोग थे जो रोजगार, बेहतर शिक्षा और बेहतर आय के लिए शहरों में आकर रहते हैं। लोगों के अपने गांव लौटने के दौर में गांव एक बार फिर से वापस चर्चा में आ गया। उस घटना के दौरान जब गांव वापस जाने की खूब चर्चा होने लगी थी जब जेहन में एक विचार कौंधा था कि क्या हिंदी फिल्में भी गांव की ओर लौटेंगी? 
हिंदी फिल्मों के इतिहास पर विचार करें तो पातें हैं कि एक लंबे कालखंड में गांव और उसकी कहानी हिंदी फिल्मों का विषय हुआ करती थी। आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी हिंदी फिल्मों में गांवों की कहानियों प्रमुखता से चित्रित होती थीं। अगर हम राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ को याद करें तो इसकी कहानी भी गांव की पृष्ठभूमि पर है जिसमें फिल्म का नायक शहर से गांव जाता है वहां उसको एक लड़की से प्यार हो जाता है। इसी तरह से फिल्म का विलेन लड़कियों की तलाश में गांव जाता है। इस फिल्म में राज कपूर ने उस दौर के गांव और वहां रहनेवाले लोगों की मानसिकता के बेहतर चित्रण किया है। फिल्म ‘बरसात’ एक लव स्टोरी तो है लेकिन इसमें प्यार की कहानी के साथ-साथ गांव के परिवेश को भी सामने लाया गया है। गांव के लोगों का संघर्ष, उनकी दिक्कतें, उस दौर में डॉक्टरों की कमी और शहर से आए लोगों पर भरोसा कर लेने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया था। इसके बाद भी कई फिल्में बनीं। 1957 में नर्गिस की फिल्म ‘मदर इंडिया’ आई जिसकी बहुत तारीफ हुई। ये फिल्म तो भारत के गांवों की प्रतिनिधि तस्वीर के तौर पर स्थापित हुई। इसमें गांव, किसान, फसल, गरीबी, महाजनी व्यवस्था के बीच गांव के युवाओं में आदर्श की राह पर चलनेवाली बाधाओं को भी चित्रित किया गया है। इस फिल्म में नर्गिस के अभिनय ने इसको एक ऐसी ऊंचाई प्रदान जिसको छूने की हसरत हर अभिनेत्री की अब भी होती है। इसके बाद भी कई फिल्में आईं जिसके केंद्र में गांव रहा है। रोमांटिक फिल्मों से लेकर एंग्री यंग मैन के दौर में भी फिल्मों में गांव और उसकी पृष्ठभूमि बनी रही और दर्शकों ने इसको पसंद भी किया। 
इसके बाद आता है वर्ष 1998 जब फिल्म के एक नए निर्देशक का आगमन होता है जिसका नाम है करण जौहर। 1998 के अक्तूबर में इस निर्देशक की एक फिल्म रिलीज होती है जिसका नाम है ‘कुछ कुछ होता है’। करण जौहर की इस फिल्म में काजोल और शाहरुख खान की जोड़ी को दर्शकों ने खूब पसंद किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही। इस फिल्म की सफलता के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी फिल्में बनने लगीं जिसमें गांव की गोरी की जगह शहर की स्कर्ट वाली लड़की ने ले ली। दुष्ट जमींदार और उससे चुहल करनेवाली महिला की जगह शहरी डॉन टाइप गुंडे और उसकी वैंप टाइप महिला मित्र ने ले ली। गांव के भोले-भाले नायक की जगह शहरी जींस-टीशर्ट वाले लड़के ने ले ली। नायिका भी वेशभूषा में मॉडर्न हो गईं। ‘कुछ कुछ होता है’ के थोड़े समय पहले ही अनिल कपूर और पूजा बत्रा की फिल्म ‘विरासत’ और प्रकाश झा निर्देशित फिल्म ‘मृत्युदंड’ आई थी। इन दोनों फिल्मों में गांव को प्रमुखता से दिखाया गया था लेकिन अगर आप फिल्म ‘विरासत’ को याद करें तो इसका नायक शहर से आता है उसकी गर्लफ्रेंड भी शहरी होती है। तो इस फिल्म में गांव तो है लेकिन शहर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। ये ठीक वैसे ही है जैसे फिल्म ‘बरसात’ में भी नायिका गांव की होती है और नायक शहर से आता है, वो वायलिन बजाता है, वो क्लब में जाता है, डांस करता है लेकिन नायिका गांव की लड़कियों की तरह इन सबसे दूर रहती है।  
करण जौहर की फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ के बाद हिंदी फिल्मों का पात्र और परिवेश पूरी तरह से शहरी होने लगे। फिल्म के लोकेशन को लेकर निर्देशकों ने विदेशों की ओर रुख करना शुरू किया। लोकेशन की चमक दमक, बेहतरीन तकनीक, नायक नायिका के चमकते हुए आधुनिक परिधान ने हिंदी फिल्मों के चरित्र में बुनियादी परिवर्तन कर दिया। करण जौहर की फिल्म के ठीक पहले एक और फिल्म आई थी जिसको यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था जिसका नाम था ‘दिल तो पागल है’। ये फिल्म भी जबरदस्त हिट रही थी। इसमें शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित और करिश्मा कपूर के बीच के प्रेम त्रिकोण को यश चोपड़ा ने बहुत शानदार तरीके से पेश किया है। इस फिल्म ने हिंदी फिल्मों के शहरीकरण की बुनियाद रखी जिसपर ‘कुछ कुछ होता है’ की सफलता ने एक मजबूत इमारत खड़ी कर दी। लगभग इसी कालखंड में कई फिल्में आईं जो दर्शकों को काफी पसंद आईं और वो अपने बिल्कुल शहरी थीं। फिल्मों में शहरी चमकक दमक को देखकर और गांवों के नेपथ्य में जानेपर मशहूर फिल्म निर्देशक गोविंद निहलाणी ने कहा था कि ‘गांव को हमारी कल्पना के आखिऱी छोर पर धकेल दिया गया, ग्रामीण परिवेश का चित्रण अपनी जड़ों की स्वीकारोक्ति भर है, सारा जोर चमक दमक पर है।‘ 
अगर हम देखें तो 1997-98 के बाद जिस तरह से दर्शकों ने शहरी पृष्ठभूमि की फिल्मों को पसंद करना शुरू कर दिया है वो दर्शकों की रुचि में एक बुनियादी बदलाव की ओर संकेत कर रहा था। एक के बाद एक धड़ाधड़ शहरी परिवेश पर बननेवाली फिल्मों की सफलता में सिंगल थिएटर का बंद होते जाना और शहरों में मल्टीप्लैक्स संस्कृति का विकास होना भी महत्वपूर्ण कारक रहा। हमारे देश के छोटे शहरों से, कस्बों से सिंगल थिएटर क्यों बंद होते चले गए ये गहन शोध का विषय है। एक जमाना था जब फिल्मों का अर्थशास्त्र बहुत हद तक इन एकल थिएटर पर निर्भर करता था। उस वक्त की ट्रेड पत्रिकाओँ को देखने पर ये पता चलता है कि किसी भी सफल फिल्मों में मुनाफा का चालीस से लेकर पैंतालीस प्रतिशत तक इन एकल सिनेमा हॉल से आता था। तब कहा भी जाता था कि हिंदी फिल्मों की सफलता ड्रेस सर्किल और बॉलकनी के दर्शकों की पसंद पर निर्भर करता है। ड्रेस सर्किल और बॉलकनी एकल थिएटर में उच्च टिकट दर वाली जगह होती थी जहां कस्बों और छोटे शहरों के उच्च आयवर्ग के लोग फिल्में देखते थे। जैसे-जैसे फिल्मों की प्रस्तुतिकरण का अंदाज शहरी होता गया तो ये शब्दावली भी बदलती चली गई। अब इसपर बात होने लगी कि अमुक फिल्म को मल्टीप्लैक्स के दर्शक पसंद करेंगे या नहीं। किसी फिल्म को कितने स्क्रीन मिले। मल्टीप्लैक्स के टिकटों की बिक्री ही किसी फिल्म को सफल और असफल करवाने लगे। फिल्मों के इस शहरी दौर में भी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर कुछ फिल्में बनीं जैसे 2001 में आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘लगान’ बनीं और वो जबरदस्त हिट रहीं। लेकिन आमिर अभिनीत फिल्म ‘मेला’ को उस तरह की सफलता नहीं मिली। 
आज जब पूरी दुनिया में अपनी परंपराओं और अपनी जड़ों की ओर जाने की बात होती है, नैरेटिव और विमर्श के केंद्र में परंपरा और पूर्व की स्थापनाएं होती हैं। ऐसे समय में हिंदी फिल्मों का शहरी होते चले जाना एक समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग भी करता है। अर्थशास्त्र तो साफ है कि वो अपने लक्षित दर्शक वर्ग को लेकर फिल्में बना रहा है। लेकिन ये जानना भी दिलचस्प होगा कि जब शहरों में रहनेवाले अधिकतर लोग गांवों से आ रहे हैं और वो फिल्में भी देख रहे हैं तो ऐसे में गांव की कहानियां उनको अधिक नॉस्टेल्जिक नहीं लगेंगी? 

Thursday, April 2, 2020

डॉक्टरों का साहस और संघर्ष


इस वक्त कोरोना के खतरे से निबटने में डॉक्टरों की अहम भूमिका है। वो अपनी जान को खतरे में डालकर कोरोना संक्रमित लोगों का इलाज करने में और कोरोना से संक्रमित होने की आशंका वाले लोगों का टेस्ट करने में जुटे हैं। कई ऐसे डॉक्टर हैं जो कई कई दिनों तक अपने घर नहीं गए हैं। डॉक्टरों के साहस के कई किस्से दैनिक जागरण में लगातार छप भी रहे हैं। डॉक्टरों के इस साहस को हमारे देश ने हर दौर में देखा है, उनकी हिम्मत, उनके संघर्ष, उनकी मनोदशा से लेकर उनके मनोविज्ञान पर कई फिल्मों का निर्माण भी हुआ है। इस वक्त कोरोना वायरस और चीन की चर्चा हो रही है तो चीन और महामारी की पृष्ठभूमि पर बनी एक फिल्म डॉ कोटनीस की अमर कहानी की याद बरबस आ जाती है। ये फिल्म 6 मार्च 1946 को मुंबई में रिलीज हुई थी। इस फिल्म का मुख्य पात्र महाराष्ट्र के शोलापुर के डॉ द्वारकानाथ कोटनिस थे। इनको चीन जापान युद्ध के समय 1938 में भारत ने पांच डॉक्टरों के एक दल को चीन भेजा गया था। इसमें से चार डॉक्टर लौट आए लेकिन डॉ कोटनीस की वहां मरीजों की सेवा करते मौत हो गई। डॉ कोटनीस की असल जिंदगी में इतना बड़ा त्याग है कि उसको फिल्म के कैनवस पर समेटना बेहद मुश्किल था। जब चीन के सैनिक महामारी के शिकार हो जाते हैं और उसको बचाने के लिए कोई टीका नहीं था। डॉ कोटनीस टीका बनाना चाहते थे लेकिन उनके पास टीका को टेस्ट करने के लिए कोई जीव उपलब्ध नहीं था। वो इसको खुद पर टेस्ट करते थे। कई टेस्ट के बाद उनको सफलता मिली और उसके उपयोग से सैनिक ठीक होने लगे। खुद पर टीका को टेस्ट करने से उनकी हालत खराब हो गई और उनकी जान चली गई। इस पूरे सीन को फिल्म में निर्देशक ने बेहद संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ तब दिखाया है जब डॉ कोटनीस एक चाइनीज जनरल के शरीर से बुलेट निकाल रहे होते हैं। चार बुलेट निकालने के बाद जब वो पांचवां बुलेट निकालते हैं तो उनके हाथ कांपने लगते हैं और दौरा पड़ता है।   

मशहूर लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने डॉ कोटनीस के चीन में बिताए दिनों पर उनके साथी के हवाले से एक उपन्यास लिखा, ‘वन हू डिड नॉट कम बैक’. उन्होंने ही ये किताब व्ही शांताराम को दी थी. किताब पढ़ते ही शांताराम ने इसपर फिल्म बनाना तय कर लिया था। उन्होंने डॉ कोटनीस के मानवता के लिए किए गए अतुलनीय योगदान के लिए फिल्म बनाने का जब तय किया तो उन्होंने नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित और गांधी को इस बारे में पत्र लिखा और उनकी शुभकामनाओं की अपेक्षा की। विजयलक्ष्मी पंडित ने उनको पत्र लिखा, नेहरू ने उत्तर नहीं दिया और गांधी के सहायक ने उनको लिखा कि इस तरह के महत्वहीन विषयों को लेकर बापू को तंग न किया जाए। लेकिन शांताराम हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने  डॉ कोटनीस की भूमिका खुद निभाने का फैसला लिया और ये भी तय किया कि डॉ कोटनीस की प्रेमिका जो बाद में पत्नी बनीं की भूमिका जयश्री निभाएंगीं। जयश्री, शांताराम की पत्नी थीं। इन फैसलों के बाद एक और मुश्किल सामने आई, जयश्री की आंखें बड़ी थी और चीनी लड़कियों की आंखें छोटी होती थीं। चीनी लड़की दिखने के लिए जयश्री का स्पेशल मेकअप करके आंखें छोटी की गई थीं।
डॉ कोटनीस की अमर कहानी के अलावा एक और फिल्म है जो डॉक्टरों के संत्रास को उनकी पीड़ा को, हाशिए पर धकेले जाने की पीड़ा को सामने लाती है। इस फिल्म का नाम है ‘एक डॉक्टर की मौत’। शबाना आजमी और पंकज कपूर अभिनीत इस फिल्म में भी एक डॉक्टर को उसके अविष्कार का श्रेय नहीं मिलता है बल्कि बुरी तरह अपमानित किया जाता है। ये भी एक बेहद खूबसूरत फिल्म है। इस तरह से हम देखते हैं कि डॉक्टरों के योगदान को हिंदी फिल्मों ने शिद्दत से रेखांकित किया है। कोरोना के इस भयावह समय में हमें डॉक्टरों को हौसला और हिम्मत देना चाहिए।        

ऑनलाइन संवाद से जुड़ रहे लेखक


कोरोना के खतरे को देखते हुए जो लॉकडाउन किया गया है उसने लेखकों, पुस्तकों, प्रकाशकों और पाठकों की श्रृंखला भी प्रभावित हुई है। ना तो पुस्तकें छप पा रही हैं और ना ही वो पाठकों तक पहुंच पा रही हैं। ऐसे माहौल पाठकों और लेखकों के बीच संवाद बाधित होता देख दिल्ली के कई प्रकाशकों ने एक बेहतर पहल की। उन्होंने लेखकों और पाठकों के बीच संवाद करवाने की ठानी। इसके लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म एक ऐसी जगह थी जिसका दायरा भी बड़ा था और जिससे हिंदी का पाठक वर्ग जुड़ा भी था। सभी हिंदी के बड़े प्रकाशक सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं और अह उन्होंने सोशल मीडिया का उपयोग लेखकों और पाठकों के बीच संवाद बनाने में किया। हलांकि इसमें एक चुनौती भी थी। हिंदी के वरिष्ठ लेखकों में से अब भी कई ऐसे हैं जो फेसबुक पर तो हैं पर उसके तकनीकी पक्ष से बहुत ज्यादा परिचित नहीं हैं। उनको तकनीक समझाना और लाइव करवाना एक बड़ी चुनौती थी. कहते हैं न कि आवश्यकता सबकुछ करवा लेती है लिहाजा थोड़ी मेहनत के बाद हिंदी के उन वरिष्ठ लेखकों ने भी फेसबुक पर लाइव करना सीख लिया, जो अबतक इसका उपयोग नहीं जानते थे। वाणी प्रकाशन ने ऑनलाइन साहित्य महोत्सव की शुरुआत की थी जिसमें देश-विदेश के लेखक भाग ले रहे हैं लेकिन बाद में इसका नाम बदलकर समय और समाज ऑनलाइन गोष्ठी कर दिया गया। अदिति के मुताबिक ये नाम इस वजह से बदला गया क्योंकि उन्होंने जब दिल्ली से बाहर जानेवालों की भीड़ और उनका दर्द देखा तो उनको लगा कि ऐसे माहौल में किसी तरह का महोत्सव उचित नहीं है, लिहाजा उसको गोष्ठी का नाम दे दिया गया।

ऑनलाइन साहित्य संवाद की पहल करनेवाली वाणी प्रकाशन की युवा निदेशक अदिति माहेश्वरी कहती हैं कि लॉकडाउन शुरू होने के बाद उनके पास लेखकों के फोन आते थे तो कईबार एक निराशा का भाव भी महसूस करती थी। उन्होंने कहा ’मैंने महसूस किया कि एक सवादहीनता की स्थिति बन रही है और मुझे लगा कि कहीं इससे निराशा न व्याप्त हो जाए। फिर मैंने ऑनलाइन साहित्य महोत्सव शुरू करने का फैसला लिया। कई लेखकों को लॉगइन करके लाइव करना सिखाना पड़ा, उनको वाणी प्रकाशन के पेज से लाइव किया। इसके बहुत अच्छे नतीजे रहे। लाइव के वक्त हजारों की संख्या में पाठक जुड़े।‘ अब तो रास्ता खुल गया था और हिंदी के कई प्रकाशकों ने भी लाइव करने शुरू कर दिया। राजपाल एंड संस की कर्ताधर्ता मीरा जौहरी कहती हैं कि ‘लेखकों को फेसबुक पर लाइव करवाने का अनुभव बेहद अच्छा है। इसका एक फायदा यह भी हुआ है कि आप अगर लाइव के दौरान अपने पसंदीदा लेखक की बात नहीं सुन सकते हैं तो आप बाद में भी उसको देख सकते हैं। लेखक का वीडियो और उनकी बातें हमारे फेसबुक पेज पर लगी ही रहती हैं, पाठकों को जब इच्छा होती है तो वो अपनी सुविधानुसार इसके देख सकते हैं। हां, लाइव में एक फायदा ये होता है कि कि कोई पाठक अगर चाहे तो अपने लेखक से सवाल भी पूछ सकता है, उनकी रचनाओं के बारे में बात भी कर सकता है.यह एक बिल्कुल नई शुरुआत है और इसने संवाद को लेकर एक नई उम्मीद जगाई है।‘
लॉकडाउन के इस दौर में जब सबलोग अपने घरों में ही रह रहे हैं और अभी लगभग एक पखवाड़ा तक ये दौर चलेगा उसमें दिल्ली के प्रकाशकों की इस पहल का असर हिंदी साहित्य पर असर डालनेवाला है। जैसे-जैसे इंटरनेट का दायरा बढ़ेगा वैसे-वैसे ये संवाद और भी बढ़ेगा। पश्चिम के देशों में इस प्रवृत्ति के कई लाभ देखने को मिले हैं। कुछ सालों पहले ई एल जेम्स की फिफ्टी शेड्स ट्राएलॉजी प्रकाशित हुई थी जिसने पूरी दुनिया में धूम मचा दी थी। इस उपन्यास का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसपर फिल्म भी बनी। लेखिका को करोड़ों की कमाई हुई थी। ई एल जेम्स ने इस उपन्यास को लिखने के पहले छोटे छोटे अंश लिखकर इंटरनेट पर डाले थे और पाठकों की प्रतिक्रिया मांगी थी। पाठकों की प्रतिक्रिया के आधार पर वो उस अंश को आगे बढ़ाती थी। उन्होंने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था इस उपक्रम से उसको फिफ्टी शेड्स लिखने में काफी मदद मिली थी। कहने का मतलब ये है कि ऑनलाइन इस तरह के संवाद से पाठकों की रुचि जानने में लेखकों को मदद मिल सकती है। अगर पाठकों के फीडबैक को लेखक अपनी रचनाओं में शामिल करते हैं तो हो सकता है कि पाठक उसको अधिक पसंद करें और लेखक की लोकप्रियता बढ़े।

Wednesday, April 1, 2020

पीएम के संबोधन ने रचा कीर्तिमान

कोरोना वायरस की आशंका से पूरे देश में लॉकडाउन करने के लिए प्रधानमंत्री ने मंगलवार को रात आठ बजे का समय चुना। प्रधानमंत्री जब भी रात आठ बजे राष्ट्र को संबोधित करने आते हैं तो लोगों के बीच एक खास किस्म की उत्सुकता पैदा हो जाती है। 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा की तब भई रात के आठ ही बजे थे। 19 मार्च 2020 को जब उन्होंने राष्ट्र को संबोधित करते हुए रविवार को जनता कर्फ्यू का आह्वान किया तब भी रात के आठ बजे थे। इसलिए जब 22 मार्च को प्रधानमंत्री के राष्ट्र के संबोधन की खबर आई तो भी समय आठ बजे का ही दिया गया था। लोगों में इस बात को लेकर जबरदस्त उत्सुकता थी कि प्रधानमंत्री क्या बोलेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ठीक आठ बजे आए और उन्होंने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए 21 दिनों के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर की। कोरोना के तमाम तरह के खतरों से भी देश को आगाह किया, अपनी क्षमताओं और सीमाओं का भी उल्लेख किया। दर्शकों के बारे में जानकारी और टेलीविजन चैनलों की रेंटिंग जारी करनेवाली एजेंसी ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के मुताबिक आठ से साढे आठ बजे के बीच पीएम मोदी के उस संबोधन को 19.7 करोड़ दर्शकों ने टेलीविजन पर देखा। इस टेलीकास्ट को भारत में 210 चैनलों ने प्रसारित किया था। दर्शकों की ये संख्या के लिहाज से अबतक का कार्तिमान है। अभी तक किसी भी जॉनर में किसी भी शो या समाचार को इतने दर्शकों ने एक साथ नहीं देखा है। जानकारों के मुताबिक ये कोरोना की आशंका में उपजी उत्सुकता तो थी ही लोगों की ये जानने में भी रुचि थी प्रधानमंत्री मोदी इससे निबटने के लिए किस तरह के कदमों का एलान करते हैं।  
बार्क के आंकड़ों का अगर विश्लेषण किया जाए तो हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं क्रिकेट के इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) का फाइनल भी इतनी बड़ी संख्या में दर्शकों ने नहीं देखा। पिछले साल के आईपीएल फाइनल को 13.3 करोड़ दर्शकों ने देखा था। जब पीएम मोदी ने जनता कर्फ्यू का एलान करते हुए देश को संबोधित किया था तब 8.3 करोड़ दर्शकों ने उस संबोधन को सुना था। इसके पहले भी जब प्रधानमंत्री का कश्मीर से धारा 370 हटाने के संबंध में उद्बोधन हुआ था तब भी देशभर में साढे छह करोड़ दर्शकों ने देखा था. प्रधानमंत्री के उस भाषण को 163 चैनलों पर एक साथ दिखाया  गया था। नोटबंदी की घोषणा के लिए नरेन्द्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को देश की जनता को संबोधित किया था तो उस समय 114 चैनलों ने उस भाषण को दिखाया था और 5.7 करोड़ दर्शकों ने देखा था।
कोरोना जैसी रहस्यमय बीमारी और उससे निबटने के कदमों को लेकर देश की जनता की उत्सकुकता इतना बड़ा दर्शक वर्ग खड़ा करने की एक वजह हो सकती है लेकिन अगर सूक्षम्ता से प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों के दर्शक संख्या का विश्लेषम करें तो एक वजह और सामने आती है वो है उनपर भरोसा और विश्वास।