इस वक्त कोरोना के खतरे से निबटने में डॉक्टरों की अहम भूमिका है। वो अपनी जान को खतरे में डालकर कोरोना संक्रमित लोगों का इलाज करने में और कोरोना से संक्रमित होने की आशंका वाले लोगों का टेस्ट करने में जुटे हैं। कई ऐसे डॉक्टर हैं जो कई कई दिनों तक अपने घर नहीं गए हैं। डॉक्टरों के साहस के कई किस्से दैनिक जागरण में लगातार छप भी रहे हैं। डॉक्टरों के इस साहस को हमारे देश ने हर दौर में देखा है, उनकी हिम्मत, उनके संघर्ष, उनकी मनोदशा से लेकर उनके मनोविज्ञान पर कई फिल्मों का निर्माण भी हुआ है। इस वक्त कोरोना वायरस और चीन की चर्चा हो रही है तो चीन और महामारी की पृष्ठभूमि पर बनी एक फिल्म डॉ कोटनीस की अमर कहानी की याद बरबस आ जाती है। ये फिल्म 6 मार्च 1946 को मुंबई में रिलीज हुई थी। इस फिल्म का मुख्य पात्र महाराष्ट्र के शोलापुर के डॉ द्वारकानाथ कोटनिस थे। इनको चीन जापान युद्ध के समय 1938 में भारत ने पांच डॉक्टरों के एक दल को चीन भेजा गया था। इसमें से चार डॉक्टर लौट आए लेकिन डॉ कोटनीस की वहां मरीजों की सेवा करते मौत हो गई। डॉ कोटनीस की असल जिंदगी में इतना बड़ा त्याग है कि उसको फिल्म के कैनवस पर समेटना बेहद मुश्किल था। जब चीन के सैनिक महामारी के शिकार हो जाते हैं और उसको बचाने के लिए कोई टीका नहीं था। डॉ कोटनीस टीका बनाना चाहते थे लेकिन उनके पास टीका को टेस्ट करने के लिए कोई जीव उपलब्ध नहीं था। वो इसको खुद पर टेस्ट करते थे। कई टेस्ट के बाद उनको सफलता मिली और उसके उपयोग से सैनिक ठीक होने लगे। खुद पर टीका को टेस्ट करने से उनकी हालत खराब हो गई और उनकी जान चली गई। इस पूरे सीन को फिल्म में निर्देशक ने बेहद संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ तब दिखाया है जब डॉ कोटनीस एक चाइनीज जनरल के शरीर से बुलेट निकाल रहे होते हैं। चार बुलेट निकालने के बाद जब वो पांचवां बुलेट निकालते हैं तो उनके हाथ कांपने लगते हैं और दौरा पड़ता है।
मशहूर लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने डॉ कोटनीस के चीन में बिताए दिनों पर उनके साथी के हवाले से एक उपन्यास लिखा, ‘वन हू डिड नॉट कम बैक’. उन्होंने ही ये किताब व्ही शांताराम को दी थी. किताब पढ़ते ही शांताराम ने इसपर फिल्म बनाना तय कर लिया था। उन्होंने डॉ कोटनीस के मानवता के लिए किए गए अतुलनीय योगदान के लिए फिल्म बनाने का जब तय किया तो उन्होंने नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित और गांधी को इस बारे में पत्र लिखा और उनकी शुभकामनाओं की अपेक्षा की। विजयलक्ष्मी पंडित ने उनको पत्र लिखा, नेहरू ने उत्तर नहीं दिया और गांधी के सहायक ने उनको लिखा कि इस तरह के महत्वहीन विषयों को लेकर बापू को तंग न किया जाए। लेकिन शांताराम हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने डॉ कोटनीस की भूमिका खुद निभाने का फैसला लिया और ये भी तय किया कि डॉ कोटनीस की प्रेमिका जो बाद में पत्नी बनीं की भूमिका जयश्री निभाएंगीं। जयश्री, शांताराम की पत्नी थीं। इन फैसलों के बाद एक और मुश्किल सामने आई, जयश्री की आंखें बड़ी थी और चीनी लड़कियों की आंखें छोटी होती थीं। चीनी लड़की दिखने के लिए जयश्री का स्पेशल मेकअप करके आंखें छोटी की गई थीं।
डॉ कोटनीस की अमर कहानी के अलावा एक और फिल्म है जो डॉक्टरों के संत्रास को उनकी पीड़ा को, हाशिए पर धकेले जाने की पीड़ा को सामने लाती है। इस फिल्म का नाम है ‘एक डॉक्टर की मौत’। शबाना आजमी और पंकज कपूर अभिनीत इस फिल्म में भी एक डॉक्टर को उसके अविष्कार का श्रेय नहीं मिलता है बल्कि बुरी तरह अपमानित किया जाता है। ये भी एक बेहद खूबसूरत फिल्म है। इस तरह से हम देखते हैं कि डॉक्टरों के योगदान को हिंदी फिल्मों ने शिद्दत से रेखांकित किया है। कोरोना के इस भयावह समय में हमें डॉक्टरों को हौसला और हिम्मत देना चाहिए।
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