किसे पता था कि 1945 में अपने मित्र डी के गुप्ता की
प्रिटिंग प्रेस से विभूति भूषण बनर्जी के उपन्यास ‘पाथेर पांचाली’ के लिए इलस्ट्रेशन बनाने वाले सत्यजित रे ठीक दस साल बाद
1955 में इसी नाम से एक फिल्म बना डालेंगे। दरअसल सत्यजित रे उस परिवार से आते थे
जिनका प्रिंटिंग प्रेस था। उनके दादा उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी बडे लेखक, चित्रकार
और संगीतकार थे जिन्होंने ‘यू रे एंड संस’ के नाम से एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की थी. इसी प्रिंटिंग
प्रेस से वो बच्चों की प्रतिष्ठित बांग्ला पत्रिका ‘संदेश’ निकालते थे। सत्यजित रे के पिता
सुकुमार रे भी बांग्ला के प्रतिष्ठित लेखक-कवि और इलस्ट्रेटर थे। 2 मई 1921 को जब
सत्यजित रे का जन्म हुआ तो उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हो गए और थोड़े ही दिन
बाद चल बसे। इसके पहले उनके दादा जी का भी निधन हो चुका था। परिवार के सामने संकट
की स्थिति थी। उनके पिता के निधन के तीन साल के अंदर प्रकाशन का कार्य बंद करना
पड़ा, अपना मकान छोड़कर रिश्तेदार के यहां रहने जाना पड़ा। यहां सत्यजित रे ने
जीवन के संघर्ष को बहुत पास से देखा। आठ साल की उम्र तक वो स्कूल नहीं जा सके। फिर
किसी तरह सरकारी स्कूल में नामांकन हुआ, लेकिन यहीं पर उनको फिल्मों का और पश्चिमी
संगीत का चस्का लग। फिर वो शांति निकेतन पहुंचे। वहां पहुंचकर फिल्मों और संगीत के
प्रति उनका प्यार परवान चढ़ गया। स्नातक करने के बाद उन्होंने आगे पढ़ने का इरादा
छोड़ दिया क्योंकि फिल्मों को लेकर उनकी दीवानगी बहुत बढ़ गई थी। शांति निकेतन में
भी और वहां से कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) लौटने पर भी।
शांति निकेतन में उनका मन जरा कम लगता था क्योंकि वो वहां
फिल्में नहीं देख पाते थे। मन बहलाने के लिए और अपने स्केचिंग के अभ्यास के लिए वो
शांति निकेतन कैंपस से बाहर निकलकर पास के गांवों में चले जाते थे। सत्यजित रे का
इस दौरान गांव और जीवन के यथार्थ दोनों से साक्षात्कार हो रहा था। यथार्थ और गांव
से हुआ ये साक्षात्कार बाद में चलकर उनकी फिल्मों में उपस्थित रहा। शांति निकेतन
में रहते हुए सत्यजित रे चित्रकला तो सीख रहे थे लेकिन उनका मन कोलकाता में ही
अटका रहता था। एक तो फिल्में देखने का आकर्षण दूसरा अपनी प्रेमिका से मिलने की
तड़प सत्यजित को हर सप्ताहांत कोलकाता ले जाती थी। नया सप्ताह शुरू होने पर शांति
निकेतन वापस लौटने का मन नहीं करता था लेकिन मजबूरी थी। जब दूसरे विश्वयुद्ध के
दौरान जापान ने दिसंबर 1942 में कोलकाता पर बम बरसाया तो फिर सत्यजित शांति निकेतन
में रुक नहीं सके और अपने परिवार के पास कोलकाता लौट आए।
कोलकाता आकर सत्यजित रे का मन फिल्मों मे ज्यादा रमने
लगा। उन्होंने अपने दो दोस्तों बंशी चंद्रगुप्त और चिदानंद दासगुप्ता के साथ मिलकर
कोलकाता की पहली फिल्म सोसाइटी शुरू की। इसके बैनर तले पहली फिल्म ‘बैटलशिप पोटेंकिन’ दिखाई गई। ये फिल्म रूस में बनी थी और नौसेना के एक
वॉरशिप पर आधारित थी। इसी समय सत्यजित रे ने फिल्मों के बारे में अंग्रेजी और
बांग्ला में लिखना शुरू कर दिया था और एक विज्ञापन एजेंसी में नौकरी भी करने लगे थे। उसी
दौरान मशहूर फ्रेंच निर्देशक जीन रेनवॉं अपनी फिल्म ‘द रिवर’ की शूटिंग के लिए लोकेशन की तलाश में कोलकाता आए थे। जब
सत्यजित रे को पता चला कि जीन रेनवॉं शहर में हैं तो वो उनसे मिलने उनको होटल
पहुंच गए। दोनों में थोड़ी देर बातचीत हुई। जीन रेनवॉं उनसे बेहद प्रभावित हो गए,
दोनों के बीच लगभग मित्रता हो गई। एक दिन जीन ने रे से पूछा कि क्या वो फिल्म
बनाना चाहते हैं तो उन्होंने साफ तौर पर कहा था, हां। ये पहली बार था जब सत्यजित
रे ने किसी से अपने मन की बात साझा की थी। लेकिन जब रेनवॉं अपनी फिल्म ‘द रिवर’ बनाने कोलकाता आए तो उसी समय सत्यजित रे को अपनी कंपनी
के काम से लंदन जाना पड़ा। दोनों साथ काम
नहीं कर सके।लंदन जाने के रास्ते में सत्यजित रे अपनी पत्नी बिजया के साथ बैठकर ‘पाथेर पांचाली’ फिल्म के निर्माण की योजना बनाई, उसको अपनी कॉपी में
लिखा।
कोलकाता लौटने के बाद उन्होंने फिल्म बनाने की कोशिशें
शुरू कीं तो उनको कोई फाइनेंसर नहीं मिला। तब सत्यजित रे अपने इश्योंरेंस पॉलिसी
को गिरवी रखकर काम शुरू किया लेकिन यहां भी बाधा आई। एक दिन की शूटिंग के बाद जब वो
अपनी टीम के साथ अगले दिन बाग में पहुंचे तो देखा कि वहां के सारे फूल तो पशु चर
गए हैं। शूटिंग रद्द। पैसे बर्बाद। काम रुक गया। क्योंकि एक दिन की शूटिंग फूलों
के बीच हुई थी। एक लंबे अंतराल के बाद फिर से फिल्म बनाने मे जुटे तो पत्नी के
गहने बेच दिए। तब भी फिल्म के लिए पैसे कम पड़े। बंगाल सरकार की मदद ली। किसी तरह
फिल्म पूरी हुई। लंबी कहानी है कि कैसे इस फिल्म का प्रीमियर न्यूयॉर्क में हुआ। जब
1955 में भारत में फिल्म रिलीज हुई तो पहले दो सप्ताह तो ऐसा लगा कि मेहनत बेकार
गई। लेकिन दो सप्ताह के बाद इस फिल्म ने सत्यजित रे को शोहरत और पैसा दोनों दिलवाए।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जब इस फिल्म को देखा तो वो चमत्कृत रह गए।
उन्होंने प्रयासपूर्वक इसको कान फिल्म फेस्टिवल में भिजवाया जहां इसको स्पेशल
प्राइज मिला था।
ऐसी ही दिलचस्प कहानी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के साथ जुड़ी है, लखनऊ में लोकेशन के चयन से लेकर
स्क्रिप्ट लिखने तक को लेकर। अगर हम सत्यजित रे की पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ से लेकर उनकी आखिरी फिल्म ‘आगन्तुक’ के छत्तीस साल के सफर पर नजर डालें तो एक ऐसा शख्स दिखाई
देता है जिसमें फिल्म निर्माण की बारीकियों की विलक्षण समझ थी। सत्यजित रे हर
फ्रेम को कलात्मकता का एक ऐसा रूप दे देते थे जिसका समुच्चय एक क्लासिक के रूप में
दर्शकों के सामने आता था। सत्यजित रे अपनी फिल्मों में इमोशन को तकनीक के माध्यम
से इतना प्रभावोत्पादक बना देते थे कि दर्शक उसके मोहपाश से जल्द मुक्त नहीं पाता
था। सत्यजित रे की एक खूबी और थी कि वो अभिनेताओं के कॉस्ट्यूम से लेकर फिल्म के सीक्वेंस
का रेखाचित्र बनाते थे। वो पहले सीन दर सीन कागज पर गढ़ते थे और फिर उसको रील में
उतारते थे। उनकी कई ऐसी कॉपियां अब भी मौजूद हैं दिनमें उन्होंने फिल्मों के सीन बनाए
थे। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते सत्यजित रे विश्व के तमाम बड़े और कालजयी
फिल्मकारों की अग्रिम पंक्ति में शामिल हैं।
2 comments:
संयोग ऐसे ही घटित होते हैं, जैसे सत्यजित राय के जीवन में घटित हुए। आपने बहुत कम शब्दों में फ़िल्म निर्देशक और व्यक्ति सत्यजित राय की छवि उकेर दी है। बधाई!
संयोग ऐसे ही घटित होते हैं, जैसे सत्यजित राय के जीवन में घटित हुए। आपने बहुत कम शब्दों में फ़िल्म निर्देशक और व्यक्ति सत्यजित राय की छवि उकेर दी है। बधाई!
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