कोरोना के इस संकटग्रस्त समय में परंपरा और संस्कृति की
बहुत बातें हो रही हैं। सोशल मीडिया से लेकर अन्य संवाद माध्यमों पर भारतीय
पौराणिक कहानियों से लेकर पौराणिक उपचार की पद्धतियों को लेकर भी खासी रुचि देखी
जा रही है। इस आलोक में ही पिछले दिनों पांच मित्रों के बीच एक बेहद दिलचस्प चर्चा
हो रही थी। एक मित्र ने जब कहा कि भारतीय संस्कृति विश्व में सबसे अच्छी और समृद्ध
संस्कृति रही है, अब समय आ गया है कि भारत एक बार फिर से विश्व गुरू के तौर पर
स्थापित होगा। अपना पुराना गौरव वापस हासिल करेगा। वो लगातार भारतीय संस्कृति को
लेकर अपना मत रख रहे थे। मेरे साथ बाकी सभी तीन मित्र उसको बड़े ध्यान से सुन रहे
थे। जब पांच मित्र किसी मसले पर बात कर रहे हों तो कहीं न कहीं से उसमें राजनीति आ
ही जाती है। इस संवाद में यही हुआ और इसमें भी राजनीति आ गई। भारतीय संस्कृति के
गुणों का वर्णन करनेवाले मित्र ने भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं को संस्कृति
से जोड़ दिया। एक मित्र इस बात से सहमत नहीं हो रहा था और उसने कई तरह के तथ्य
रखने शुरू कर दिए कि मौजूदा सरकार संस्कृति को लेकर उतनी संजीदा नहीं है जितनी
अपेक्षित थी। उनका कहना था कि संस्कृति से जुड़े लोगों को लगता था कि भारतीय जनता
पार्टी की सरकार के दौरान संस्कृति को प्राथमिकता मिलेगी लेकिन पिछले छह साल में
संस्कृति मंत्रालय का क्या हाल रहा ये किसी से छिपा नहीं है। अब ये मित्र थोड़े
आक्रामक होने लगे थे और उन्होंने कहा कि अगर मौजूदा सरकार संस्कृति को लेकर इतनी
ही संजीदा होती तो क्या महीनों से संस्कृति सचिव का पद खाली रहता, क्या संगीत नाटक
अकादमी के चेयरमैन का पद खाली होता, उसके पास संस्थाओं में खाली पड़े पदों की
संख्या की लंबी सूची थी। उसने यह कहकर अपनी बात खत्म कि अगर कला, संस्कृति और
संस्कृतिकर्मी सरकार की प्राथमिकता में होते तो क्या ये संभव होता कि कलाकारों को
मिलनेवाले ग्रांट दो साल से रुके रहते। ये एक ऐसी राशि है जो बड़े कलाकारों को
संस्थाओं को चलाने के लिए दिए जाते हैं।
इन दोनों मित्रों की बात बड़े ध्यान से सुन रहे तीसरे
मित्र भी अब कुछ बोलने को आतुर दिख रहे थे। उन्होंने दूसरे मित्र को छेड़ने के लिए
कहा कि यार तुम राजनीतिक पार्टी से संस्कृति को लेकर अपेक्षा रखते हो, आश्चर्य।
उसने बड़े ही हल्के तरीके से कह दिया कि कला, साहित्य और संस्कृति से वोट नहीं
मिलते हैं। इनसे चुनाव नहीं जीते जाते हैं। उसने कहा कि वो पिछले बीस साल से
राजनीतिक रिपोर्टिंग कर रहा है और ये देखा है कि संस्कृति किसी भी राजनीतिक दल की
प्रथामिकता में नहीं रही है। उसने तो यहां तक कह दिया कि भारतीय जनता पार्टी के एक
बड़े नेता ने संगठन की एक बैठक में कहा भी था कि साहित्य-संस्कृति से वोट नहीं
मिलता। हमने उसपर बहुत दबाव डाला कि उस नेता का नाम हमें बता दो जिसने ऐसा कहा था
लेकिन उसने साफ इंकार कर दिया। उसका कहना था कि ये बताने का उद्देश्य किसी नेता का
नाम लेना नहीं है बल्कि वो तो राजनीति की सोच को रेखांकित करना चाहता था। उसने कहा
कि ये सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की समस्या नहीं है, कुछ इसी तरह की बातें कांग्रेस
के राज में भी होती थीं। वहां भी संस्कृति किसी की प्राथमिता पर थी नहीं। अब बारी
चौथे मित्र की थी जो कि बहुत कम बोलते हैं लेकिन जब वो बोलते हैं तो हमलोग बेहद
ध्यान से उनको सुनते भी हैं। संस्कृति में उनकी भी रुचि है और विश्वविद्यालय में
इतिहास के शिक्षक होने की वजह से हमेशा पुराने संदर्भों के साथ बात करते हैं।
इस मित्र ने कहा कि देखिए हमें राजनीति से मतलब नहीं, कौन
पार्टी भारतीय संस्कृति को लेकर गंभीर है कौन नहीं, मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं
कि संस्कृति किसी भी राजनीतिक दल के लिए बेहद आवश्यक है और वो राजनीति की पिछलग्गू
नहीं हो सकती। जिस भी दल के नेता की संस्कृति में रुचि होती है और वो संस्कृति को
लेकर सजग रहता है, वो लंबे समय तक जनमानस पर राज करता है। यह सही है कि साहित्य-संस्कृति
से वोट नहीं मिलते लेकिन साहित्य संस्कृति से जुड़े होने की वजह से आपको राजनीति
में दीर्घजीविता मिलती है। सीध वोट नहीं मिलते हों लेकिन जनता आपको पसंद करती है। उन्होंने
आगे कहा कि दुनिया में इस बात के कई उदाहरण हैं जहां नेता अगर अपनी संस्कृति को
लेकर संजीदगी से काम करता है तो वो सालों तक जन का दुलारा बना रहता है। जैसे ही वो
संस्कृति से दूर होता है तो जनता उससे दूर हो जाती है। इस मसले पर उन्होंने
जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का नाम लिया। बोले कि ‘जवाहरलाल लगातार साहित्य-संस्कृति से जुड़े रहते थे, इन
गतिविधियों में सक्रियता के साथ भाग भी लेते थे। जीवनपर्यंत देश के प्रधानमंत्री
बने रहे। उनकी बेटी इंदिरा गांधी में पिता के संस्कार आए थे लेकिन इमरजेंसी में जब
कम्युनिस्टों ने उनका समर्थन किया तो उसके एवज में उन्होंने कला, साहित्य और
संस्कृति उनको आउटसोर्स कर दिया। नतीजा क्या हुआ जनता का उनमें भरोसा कम हुआ। उन्होंने
सत्ता गंवाई भी। अगर उनकी हत्या नहीं हुई होती तो स्थिति और साफ होती। राजीव गांधी
के दौर में भी साहित्य, कला और संस्कृति कम्युनिस्टों के ही जिम्मे रही, ये
नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में भी दिखा और उसके बाद के मनमोहन सिंह के
कार्यकाल में भी। नतीजा क्या है आप खुद ही देख लीजिए। कांग्रेस जनता से किस कदर
दूर हो गई है। उसको लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने के लिए
संघर्ष करना पड़ रहा है। बीच में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, कला संस्कृति को
लेकर अटल जी के मन में आदर था, जब भी मौका मिलता था तो वो इस ओर ध्यान भी देते थे
और समय भी। नरेन्द्र मोदी की सरकार को अभी छह साल हुए हैं, यह कालखंड किसी के भी
क्रियाकलापों को कसौटी पर कसने के लिए कम होता है। लेकिन ये अवश्य तय है कि अगर
साहित्य कला और संस्कृति के इनकी प्राथमिकता में रहेगा तो फिर लंबे समय तक जनता का
प्यार इनको मिलता रहेगा”।
प्रोफेसर साहब ने बहस को गंभीरता प्रदान कर दी थी और
उद्धरणों के साथ अपनी बात रख रहे थे तो बहुत अधिक असहमति कोई उनसे जता नहीं रहा
था। धीरे-धीरे बात इस ओर चली गई कि जबसे शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय को अलग किया
गया तभी से अधिक गड़बड़ियां शुरू हुई। कभी पर्यटन के साथ तो कभी नागरिक उड्डयन के
साथ संस्कृति मंत्रालय को जोड़ दिया जाता है। दोनों विभागों के मंत्री एक ही होते
हैं तो ऐसे में संस्कृति मंत्रालय प्राथमिकता में आ नहीं पाता है। शिक्षा और
संस्कृति मंत्रालय को एक साथ होना चाहिए क्योंकि शिक्षा संस्कृति का एक बेहद अहम
हिस्सा है। बल्कि संस्कृति मंत्रालय को लेकर अगर सरकार गंभीर है तो उसको
मंत्रालयों के पुनर्गठन के बारे में विचार करना चाहिए। संस्कृति मंत्रालय के
अंतर्गत मानव संसाधन विकास मंत्रालय के भाषा संबंधी विभाग, गृह मंत्रालय का
राजभाषा विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय का सिनेमा और प्रकाशन संबंधी विभाग आदि
को जोड़कर संस्कृति मंत्रालय को नया स्वरूप देना चाहिए। इसके अलावा संस्कृति
मंत्रालय के अंतर्गत ही जो अलग अलग विभाग एक ही काम कर रहे हैं उनके कार्यों को
ध्यान से देखकर उसके बीच बेहतर तरीके से कार्य विभाजन करना चाहिए। संगीत नाटक
अकादमी भी कलाकारों के परफॉर्मेंस आयोजित करता है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला
केंद्र में भी इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के होते
हुए संगीत और नाटक की एक अलग अकादमी भी है। केंद्रीय हिंदी संस्थान के होते हुए भी
बेंगलुरू में एक भाषा संस्थान अलग से है। इन सबको वस्तुनिष्ठता के साथ देखकर आकलन
करते हुए दोहराव को दूर करना चाहिए। इसके दो फायदे होंगे एक तो काम सुचारू रूप
होगा और दूसरा करदाताओं के पैसे का अपव्यय रुकेगा. संस्कृति को मजबूती मिलेगी सो
अलग।
2 comments:
बेहतरीन ।
कई विचारणीय बिंदु हैं लेख में। बधाई।
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