उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में महाराजा महेंद्र प्रताप सिंह राज्य विश्वविद्यालय की आधारशिला रखने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के राष्ट्र नायकों और राष्ट्र नायिकाओं को याद करते हुए कहा कि उनकी तपस्या से देश की अगली पीढियों को परिचित ही नहीं कराया गया। बीसवीं सदी की उन गलतियों को आज इक्कीसवीं सदी का भारत सुधार रहा है। अलीगढ़ के समारोह के दो दिन बाद प्रधानमंत्री ने दिल्ली में संसद टीवी का शुभारंभ किया। संसद टीवी का गठन लोकसभा टीवी और राज्यसभा टीवी के विलय के बाद किया गया है। जब प्रधानमंत्री संसद टीवी का शुभारंभ कर रहे थे तो उनका अलीगढ़ में दिया उपरोक्त भाषण याद रहा था कि बीसवीं सदी की गलतियों को आज इक्कसीवीं सदी का भारत ठीक कर रहा है। आपके मन में प्रश्न उठ सकता है कि कैसे? इसको समझने के लिए हमें तीन दशक पूर्व जाना होगा। 1989 में ये संसद सत्र के दौरान की कार्यवाही का कुछ अंश दूरदर्शन पर दिखाने का फैसला हुआ। इस तरह से दूरदर्शन लोकसभा की शुरुआत हुई। कुछ सालों बाद दूरदर्शन लोकसभा पर प्रश्नकाल का प्रसारण आरंभ हुआ। ये व्यवस्था चलती रही। 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। लोकसभा के अध्यक्ष बने सोमनाथ चटर्जी। सरकार के गठन के कुछ महीने बाद ही लोकसभा के अलग चैनल को लेकर चर्चा शुरु हो गई थी। 2006 में लोकसभा टीवी के नाम से एक स्वतंत्र सैटेलाइट चैनल अस्तित्व में आया। उस समय की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक स्वतंत्र लोकसभा चैनल शुरु करने के लिए आरंभिक निवेश 8 करोड़ रुपए था और चैनल चलाने के लिए 12 से 15 करोड़ रु वार्षिक खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। ये चैनल लोकसभा सचिवालय के अधीन था।
जब लोकसभा के लिए स्वतंत्र चैनल आरंभ हुआ तो राज्यसभा से जुड़े लोगों में भी अपने चैनल को लेकर चर्चा आरंभ हो गई। 2006 में राज्यसभा की एक समिति ने इसपर विचार किया। समिति इस नतीजे पर पहुंची कि राज्यसभा के लिए एक स्वतंत्र चैनल की जरूरत नहीं है। मामला ठंडे बस्ते में चला गया। लेकिन उसके बाद भी बैठकों का दौर चलता रहा और अंत में कई तरह की आपत्तियों के बावजूद 2011 में राज्यसभा ने अपना एक स्वतंत्र चैनल लांच कर दिया गया। ये चैनल राज्यसभा सचिवालय के अधीन था। उस वक्त राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी थे। इस चैनल को लांच करने का अनुमानित खर्च 28 करोड़ रुपए था और चलाने का सलाना खर्च 15 करोड़ के करीब था। ये खर्च बढ़ता ही चला गया। फिर तो राज्यसभा ने संविधान के नाम से सीरीज बनावाया और एक फिल्म का भी निर्माण करवाया। इन खर्चों पर विवाद भी उठे। इतना विस्तार से बताने का उद्देश्य ये है कि आपत्तियों के बावजूद हामिद अंसारी की मंजूरी मिली। जो चैनल प्राथमिक रूप से राज्यसभा की कार्यवाही दिखाने के लिए आरंभ किया गया था वो एक खास विचारधारा के लोगों का अड्डा बनने लगा था। कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के लोगों को वहां जगह मिलने लगी थी और वो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपनी विचारधारा का पोषण करने में जुटे थे।
फिर 2014 में लोकसभा के चुनाव हुए और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी। सुमित्रा महाजन लोकसभा की अध्यक्ष बनीं लेकिन उपराष्ट्रपति का दूसरा कार्यकाल मिलने की वजह से हामिद अंसारी राज्यसभा के सभापति बने रहे। अब ऐसी स्थिति बनी कि राज्यसभा टीवी पर सरकार के कार्यक्रमों की आलोचना करनेवाले लोग बैठकर पैनल चर्चा करने लगे। उन तमाम पत्रकारों और तथाकथित विचारकों को वहां जगह मिलने लगी जो मोदी सरकार का विरोध करनेवाले और कांग्रेस के समर्थक थे। राज्यसभा टीवी से कांग्रेस का एजेंडा चलने लगा। जनता के पैसे का अपव्यय तो हो ही रहा था। 2017 तक तो यही स्थिति बनी रही। 2017 में हामिद अंसारी का कार्यकाल समाप्त हुआ लेकिन वहां काम करनेवाले वही लोग बने रहे। इसी दौर में दोनों चैनलों को मिलाकर एक चैनल करने की शुरुआत हुई जो अब जाकर मूर्त रूप ले सकी। लोकसभा और राज्यसभा चैनल का विलय करके संसद टीवी बना। जब संसद का सत्र चलेगा तो उसकी कार्यवाही दिखाने के लिए दो चैनल चलेंगे, एक पर राज्यसभा और दूसरे पर लोकसभा की कार्यवाही प्रसारित की जाएगी। बीसवीं सदी कि गलती को इक्कीसवीं सदी में सुधारने का प्रयास।
संसद टीवी की शुरुआत से पूर्व की गलती सुधरी लेकिन दूरदर्शन में सुधार कब होगा। प्रसार भारती बनने के बावजूद दूरदर्शन सरकारी चैनल ही माना जाता है। प्रत्यक्ष न सही पर परोक्ष रूप से सरकार का दखल तो है ही। दूरदर्शन के करीब तीस चैनल इस वक्त चल रहे हैं। जिनमें से सात राष्ट्रीय चैनल हैं और बाकी के क्षेत्रीय चैनल हैं। अभी टेलीविजन चैनलों की रेटिंग देख रहा था तो ब्राडकास्ट आडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के ताजा आंकड़ों की सूची में टॉप टेन में दूरदर्शन कही नहीं है। टेलीविजन रेटिंग में दूरदर्शन की अनुपस्थिति इस ओर संकेत करती है कि उसके कार्यक्रमों को देखा नहीं जा रहा है या कार्यक्रम का वो स्तर नहीं है कि उसको दर्शक पसंद करें। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं हैं जब कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान लाकडाउन लगा था तो दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल दिखाया गया था। इन सीरियल ने फिर से लोकप्रियता का नया कीर्तिमान रचा था। निष्कर्ष ये कि अगर कार्यक्रम बेहतर हों तो लोकप्रिय होंगे और बार्क की रेटिंग में स्थान बना पाएंगे। लेकिन कार्यक्रमों का तो ये हाल है कि दूरदर्शन किसान चैनल पर मनोरंजन के कार्यक्रम से लेकर गीत संगीत की प्रतियोगिता आयोजित होती है।
दूरदर्शन की अलग ही कहानी है। जब से दूरदर्शन आरंभ हुआ वहां अपेक्षित कार्य संस्कृति का विकास ही नहीं हो पाया। इंजीनियरिंग विभाग को प्रोग्रामिंग विभाग से ज्यादा महत्व दिया गया। आज भी कमोबेश वही स्थिति बनी हुई है। यहां इंजीनियरिंग और संपादकीय विभाग के कर्मचारियों का अनुपात बहुत असंतुलित है। इस असंतुलन की वजह से बाधाएं उत्पन्न होती हैं। दूरदर्शन को मैन पावर आडिट करवाना चाहिए और उसके आधार पर सुधार करना चाहिए। कई बार तो महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की कवरेज के दौरान दूरदर्शन का तामझाम देखकर ही लगता था कि क्या सचमुच इतने कैमरे की जरूरत थी ? जहां तीन या चार कैमरे के सेटअप से काम हो सकता है वहां बीस कैमरे लगा दिए जाते थे। ये अलग बात है कि उनमें से तीन चार काम भी नहीं करते थे। पर मानव संसाधन तो लगता था। इससे भी अधिक दोषपूर्ण दूरदर्शन के नए चैनल खोलने की नीति रही है। नए चैनल खोलने का आधार उसके दर्शक होने चाहिए थे लेकिन आधार राजनीति होती थी। कांग्रेस के शासनकाल में ये पुरानी प्रविधि रही है कि अपने लोगों को खुश करने और सेट करने के लिए संस्थान बना दिए जाते थे। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं । चिंता की बात ये है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार को आए भी सात साल से अधिक वक्त हो गया है लेकिन दूरदर्शन में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया। राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों में पढ़ा था कि सिस्टम को बदलना बहुत आसान नहीं होता है, लेकिन सिस्टम को बदले बगैर उसमें सुधार तो किया ही जा सकता है। कई मंत्रालयों के अधीन कई ऐसी संस्थाएं हैं जो एक ही तरह का काम करती हैं। इस स्तंभ में पहले भी इस बारे में लिखा जा चुका है। नीति आयोग ने भी इन संस्थाओं के पुनर्गठन की बात की थी, उस दिशा में पहल भी हुई लेकिन अबतक ठोस परिणाम सामने नहीं आया है जिसकी प्रतीक्षा है।
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