हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की एक पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ 1982 में प्रकाशित हुई थी। तब उस पुस्तक की बहुत चर्चा हुई थी। इसकी भूमिका में नामवर सिंह ने स्वीकार किया था कि ‘परंपरा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रक्रिया है’। उसी गतिशील प्रक्रिया के तहत उन्होंने अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि की खोज की थी। इस पुस्तक के प्रकाशन के 37 साल बाद एक और मार्क्सवादी आलोचक सुधीश पचौरी ने ‘तीसरी परंपरा की खोज’ पुस्तक लिखी जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया। सुधीश पचौरी अपनी इस पुस्तक में ‘हिंदी साहित्य के उपलब्ध इतिहास की अबतक न देखी गई सीमा को उजागर करने’ का दावा करते हैं। ये भी कहते हैं कि ‘ये हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन का दरवाजा खोलती है’। इसमें नामवर सिंह की खोज से आगे जाकर सुधीश पचौरी ने कुछ ‘खोजा’ है। इस लेख का उद्देश्य इन दोनों पुस्तकों की तुलना करना नहीं है बल्कि सुधीश पचौरी की पुस्तक के कुछ निष्कर्षों पर विचार करना है। सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक में सूफियों को इस्लाम का प्रचारक कहा है। अपनी इस अवधारणा के समर्थन में उन्होंने पूर्व में लिखी गई पुस्तकों और वक्तव्यों का सहारा लिया है। सुधीश पचौरी लिखते हैं, ‘मध्यकाल के इतिहास ग्रंथों में सूफी कवियों की छवि ठीक वैसी नजर नहीं आती जैसा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में नजर आती है। साहित्य के इतिहास में वे सिर्फ कवि हैं जबकि इतिहास ग्रंथों में वो वे इस्लाम के प्रचारक के तौर पर सामने आते हैं। साहित्य के इतिहास का लेखन अगर अंतरानुशासिक नजर से किया जाता तो सूफियों की इस्लाम के प्रचारक की भूमिका स्पष्ट रहती।‘ सुधीश पचौरी ने इस बात को साबित करने की कोशिश की है कि सूफी लोग सुल्तानों के साथ आते थे। उनका काम इस्लाम का प्रचार होता था लेकिन यहां के यथार्थ की जटिलताओं को देखकर कई सुल्तान कट्टर की जगह नरम लाइन लेने लगते थे उसी तरह सूफी भी अपनी लाइन को बदलते थे।
इतिहासकार मुजफ्फर आलम की बातों से इसकी पुष्टि भी होती है। उनके हवाले से लिखा गया है कि ‘उत्तर भारत में ग्यारहवीं शताब्दी में गजनवी के हमलों के साथ ही सूफियों का आगमन हो गया था। तेरहवीं शताब्दी में जब सल्तनत स्थापित हो गया तब सूफियों ने भी अपना विस्तार आरंभ किया’। सूफियों के विस्तार का तरीका बहुत चतुराई भरा था। वो इस्लाम के धर्मगुरुओं से अलग तरीके से काम करते थे लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही होता था कि जिन इलाकों को सुल्तान जीतता था उन इलाकों में इस्लाम को मजबूत करते चलना। इस काम के लिए वो भारत के संतों और महात्माओं से संवाद करते थे और उनकी उन बातों को अपनी रचनाओं में शामिल कर लेते थे जो उनके धर्म को बढ़ावा देने के काम आ सकती थीं। इतिहासकार जियाउद्दनी बरनी के हवाले से ये भी बताया गया है कि जब सुल्तान शम्सुद्दीन अलतुतमिश से इस्लाम के धर्मशास्त्रियों ने शरीआ लागू करने की मांग की और हिंदुओं के सामने इम्माइल इस्लाम-इम्माइल कत्ल यानि इस्लाम या कत्ल में से एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो सुल्तान ने बेहद चतुराई से इस मसले को टाल दिया था। सुल्तान ने तब कहा था कि अभी अभी हिन्दुतान को जीता गया है जहां हिन्दू बड़ी संख्या में रहते हैं। अगर अभी शरीआ लागू की गई तो हिंदू एकजुट हो सकते हैं और विद्रोह हो सकता है। जब मुस्लिम सेनाएं और ताकतवर हो जाएंगी तब हिंदुओं को इस्लाम या मृत्यु में से एक विकल्प चुनने की बात होगी। इस प्रसंग में अगर सूफियों के उपयोग की बात जोड़कर देखें तो पूरा परिदृश्य साफ हो जाता है।
हिंदी साहित्य कि बात करें तो सूफियों को इस तरह से स्थापित किया गया कि वो सामाजिक समरसता को बढ़ाने में या सामासिक संस्कृति की जड़ें मजबूत करने के लिए अपनी कविताओं और गीतों का उपयोग करते थे। उनको इस तरह से स्थापित किया गया कि कई लोग तो सूफी ‘संत’ तक कहे जाने लगे। साहित्य के इतिहास में ऐसे कई ‘संतों’ का उल्लेख मिलता है। जबकि वो उन दिनों अपने धर्म का प्रचार करने के लिए इस भूमि पर आए थे। उनका उपयोग उस दौर के आक्रमणकारियों ने साफ्ट पावर के तौर पर किया था। जो काम तलवार नहीं कर पा रही थी उस काम को इन कथित संतों ने अपनी बोली और वाणी से करने का काम किया। इन ‘संतों’ को स्थापित और लोकप्रिय करने के लिए कई मार्क्सवादी इतिहासकारों ने श्रमपूर्वक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा। सतीश चंद्रा ने मध्यकालीन भारत का इतिहास लिखते हुए भक्तिकाल के कवियों की चर्चा में सूफियों को तो याद किया लेकिन तुलसीदास का नाम भी नहीं लिया। ये भूल नहीं हो सकती, ये सायास था। ऐतिहासिक घटनाओं की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की गई जिसने हमारे देश में इस्लाम के प्रचार प्रसार को अलग ही रंग दे दिया। युद्ध में जय पराजय को उस वक्त हमारे देश में व्याप्त सामाजिक स्थितियों से जोड़कर देखा गया। नागरीय क्रांति जैसे पद गढे गए। भारतीय समाज को जातियों में बांटकर इतिहास लेखन किया गया। उस वक्त समाज में व्याप्त कुरीतियों को भी इतिहास लेखन का आधार बनाया गया। लेखन की इस पक्षपाती प्रविधि ने इतिहास को एकांगी कर दिया। अगर इतिहास को समग्रता में लिखा गया होता और सारी बातों जनता के सामने आती तो संभव है कि इतिहास के पुनर्लेखन की बात नहीं होती। दुनिया में इतिहास लेखन इस बात का गवाह है कि जब भी इतिहास लेखन एकांगी हुआ है तो उसको वर्षों बाद भी समावेशी करने की कोशिशें हुई हैं। अगर इतिहासकार किसी भी देश के इतिहास को यथार्थ से दूर लेकर जाते हैं और उसमें कल्पना या अपने सिद्धांत के आधार पर की गई व्याख्या को यथार्थ बनाने की कोशिश करते हैं तो फिर उसके पुनर्लेखन की बात होती ही है चाहे वो दशकों बाद हो या उससे भी बड़े कालखंड के बाद।
सूफियों का जिस तरह से महिमामंडन किया गया वो भले ही बहुत लंबे कालखंड तक स्वीकार्य रहा लेकिन अब साहित्य के अंदर से ही उस महिमामंडन पर प्रश्न खड़े होने आरंभ हो गए हैं। हिंदी साहित्य में अनेक प्रकार के ज्ञानात्मक विमर्श होते रहे हैं लेकिन साहित्य के इतिहास लेखन को लेकर बहुत अधिक उत्साह नहीं दिखाई देता। यूरोप और अमेरिका में आज से करीब पचास पूर्व ही इतिहास लेखन को लेकर एक बहुत गंभीर बहस चली थी। न सिर्फ बहस चली बल्कि इतिहास को नए नजरिए से देखने की कोशिशें भी हुईं। हमारे देश में इतिहास लेखन को राजनीति से जोड़ दिया जाता है इस वजह से हमारे यहां इतिहास लेखन की प्रविधियों को लेकर न तो विमर्श हो पाता है और न ही नए दृष्टिकोण से लेखन। नतीजा यह होता है कि जब भी कोई लेखक इतिहास को नए सिरे से लिखने की कोशिश करता है तो उसको हतोत्साहित किया जाता है। आज जब हमारा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है कि तो ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि इतिहास लेखन को लेकर ऐसा माहौल बनाया जाए कि अलग अलग तरीके से घटनाओं और प्रवृतियों पर विचार किया जाए। हिन्दुस्तान पर आक्रमण करके उसको गुलाम बनानेवाली ताकतों और उन ताकतों को भारत में स्थापित करने वाले तमाम लोगों, समूहों और शक्तियों के बारे में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर समग्र विश्लेषण हो। कोई तथ्य न दबाया जाए न छिपाया जाए। न तो सतीश चंद्रा जैसी गलती होने दी जाए और न ही सूफियों के बारे में उपलब्ध तथ्यों को दबाया जाए।
3 comments:
विचारोत्तेजक लेख है। इतिहास का पुनर्लेखन यदि हो तो इतिहास के नाम पर हुआ फ्राड जनता के सामने आ जाएगा।
👌👌👌👌
अतीत का एक काल खंड ऐसा रहा जब हमने दूसरों के लिखे को वैसे का वैसा ही स्वीकर कर डाला। उस दौर में निजी तौर पर पढने पढ़ाने का चलन बहुत कम हो रहा था। अब लोग पुनः जागरूक हो रहे हैं और दूसरे के लिखे को तथ्य मानने से पहले उसे कसौटियों पर कसने के लिए स्वाध्याय से या नेट पर खोज की आदत से रूबरू हो रहे हैं। यही कारण है कि सहज मान लेने वाले उस काल खंड के अनेक लेखकों के चेहरों पर चढ़े परदे के पीछे का "वाद" व "पक्षपोषण" का यथार्थ सामने आ रहा है। आप और नव-इतिहासकारों के लेख उसी परदा हटाओ अभियान के सशक्त हस्ताक्षर हैं.
इस लेख के लिए आभार!
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