चंद महीने पहले हमारे एक मित्र की कहानी हंस
पत्रिका में छपी थी । लंबी कहानी थी और अरसे बाद उनकी कोई कहानी हंस जैसी प्रतिष्ठित
साहित्यक पत्रिका में छपी थी लिहाजा वो काफी उत्साहित थे । कहानी छपने के बाद से तकरीबन
हर रोज उनके पास देश के कोने कोने से उस पर प्रतिक्रिया आ रही थी । कभी असम से किसी
प्रोफेसर का तो कभी पटना और गोरखपुर के किसी बुजुर्ग का । शुरुआती प्रतिक्रियाओं से
तो वो उत्साहित रहे लेकिन लगभग एक पखवाड़े बाद ही उनको इस बात का एहसास हुआ कि कहानी
पर प्रतिक्रिया देने वाले तकरीबन सभी लोग या तो रिटायर्ड थे या साठ साल की उम्र के
आसपास के थे । जब उन्होंने मुझे ये बात बताई तो मैं चौंका । मैंने कई कहानीकारों से इस बाबत बात की । पता चला
कि उन सबके अनुभव तकरीबन हमारे कहानीकार मित्र जैसे ही थे । सबों के अनुभव में यह एक
बात समान रूप से थी कि युवा वर्ग से प्रतिक्रिया नहीं मिलती है । यह स्थिति हिंदी साहित्य
के लिए बेहद चिंता की बात है । अगर किसी भी भाषा में उसके साहित्य को युवा वर्ग नहीं
पढ़ता है तो इसको लेकर उस भाषा में गंभीर विमर्श के साथ साथ युवाओं तक पहुंचने के प्रयास
भी किए जाने चाहिए । हिंदी में इस वक्त कम से कम चार से पांच पीढ़ियों के कथाकार एक
साथ सक्रिय हैं । अस्सी पार के कथाकारों से लेकर बिल्कुल टटके कथाकार तक । चार –पांच पीढ़ी की एक साथ सक्रियता चौंकानी वाली भी है लेकिन
उससे भी ज्यादा चौंकाने वाली है कहानियों को लेकर युवा पीढ़ी की उदासीनता ।
सात नवंबर 1987 को राजस्थान के श्रीडूंगरगढ़
में राजस्थान युवा लेखक शिविर में बोलते हुए मशहूर कथाकार राजेन्द्र यादव ने कहा था-
‘होता क्या है कि हर समय के लेखन की कुछ रूढियां बन जाती
है । दुर्भाग्य से कहानी में इस समय कुछ कथा रूढ़ियां बन गई हैं । वे रूढ़ियां जिस
तरह की कहानी हमारे सामने लाती हैं, वे एक खास फॉर्मूले के तहतत लिखी हुई होती हैं
। वे अनुभव, ऑब्वजर्वेशन, पार्टिसिपेशन, शेयरिंग से आई हुई कहानियां नहीं हैं । चूंकि
इस तरह की कहानियां चल रही हैं , इसलिए हैं, एक गरीब मजदूर है, उस पर अत्याचार है और
अगर औरत है तो उसपर बलात्कार है , वगैरह वगैरह ।‘ राजेन्द्र
यादव चूंकि विचारधारा और प्रतिबद्धता की जंजीर से बंधे हैं इसलिए खुलकर कह नहीं पाए
। लेकिन उनका इशारा साफ था कि एक खास विचारधारा और फॉर्मूले में बंधकर हिंदी कहानी
पतनोन्मुख हो रही है । आज से तकरीबन छब्बीस साल पहले यह बात कही गई थी लेकिन इतने लंबे
कालखंड में भी ना तो रूढियां टूटी और ना ही उसमें कुछ ज्यादा बदलाव आया । इतना अवश्य
हुआ कि आंदोलनों के नाम पर कहानी में नारेबाजी बढ़ती चली गई । पहले दलितों के नाम पर
उनके भोगे और झेले यथार्थ का चित्रण शुरु हुआ । बाद में स्त्री विमर्श के नाम पर कहानियों
में पुरुषों के खिलाफ जमकर गोलियां चली । दोनों आंदोलनों ने फॉर्मूलाबद्ध होकर अपनी
चिता खुद सजा ली । दलित लेखन में तो इस कदर फॉर्मूला लेखन हुआ कि हर कहानी में एक उच्च
तबके का दबंग होता था जो दलित महिलाओं की अस्मत लूटता था । उसके बाद पीड़ित महिला का
लड़का, भाई, चाचा आदि आदि में से कोई एक उच्च वर्ग खासकर ब्राह्मण लड़की से प्यार करता
था और उसके साथ के अंतरंग क्षणों में उसके अंदर बदला लेने की खुशी हिलोरें मारती थी
। यह प्लॉट सैकडो़ं कहानियों में दोहराया गया । यही हश्र स्त्री विमर्श के नाम पर कलम
की बजाए एके सैंतालीस लेकर घूमनेवाली लेखिकाओं ने भी अपनी कहानियों का किया । पहले
तो कहानियों में पति का ऐसा चित्रण हुआ जिसने पाठकों को जबरदस्त शॉक दिया लेकिन बाद
में जब वही वही बातें दुहराई जाने लगी तो पाठकों में स्वाभाविक तौर पर एक उब आ गई ।
स्त्री विमर्श के नाम पर चला लेखन रूपी आंदोलन भी दम तोड़ गया और नए पाठकों को जोड़ने
में बुरी तरह से विफल रहा । अगर हम देखें तो राजेन्द्र यादव ने अपने राजस्थान युवा लेखक शिविर के भाषण में चार चीजों के बारे में ध्यान दिलाया । अनुभव, ऑब्वजर्वेशन, पार्टिसिपेशन और शेयरिंग । इसमें मैं एक और चीज जोड़ना चाहता हूं वो है रिसर्च । इक्कीसवीं शदी के आगाज के साथ उभरे कहानीकारों ने हवा हवाई और फैशन की कहानियां लिखनी शुरू कर दी । कहानीकारों का अनुभव संसार छोटा होता चला गया, सामाजिक सरोकार खत्म होते चले गए । रूस के विघटन के बाद भी हिंदी साहित्य अबतक मार्क्सवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया है । विचारधारा की जड़े हमारे यहां के सृजनात्मक लेखन में इतनी गहरे तक है कि उसको हिलाना मुश्किल है । आज भी साहित्य की किसी भी विधा में बगैर मार्क्स बाबा के नाम के टैग के आपको गंभीरता से नहीं लिया जाता । यह टैग हिंदी साहित्य के विकास और उसके समय के साथ चलने में सबसे बड़ी बाधा है । विचारधारा के प्रभाव में हुए कहानी लेखन ने पाठकों को एक तरह से उबा दिया क्योंकि हर दूसरी कहानी में एक खास तरह के प्लॉट होते थे और उसका अंत भी तकरीबन वही होता था । शैली में कोई खास फर्क नहीं होता था । विचारधारा के प्रभाव में हुए लेखन से कहानियों से किस्सागोई गायब होती चली गई और उसकी जगह नारेबाजी ने ले ली । हिंदी की काहनियों में यातना, संघर्ष, यथार्थ का बोलबाला हो गया नतीजा क्या हुआ कि कहानियों से पठनीयता गायब होती चली हई । प्रेमचंद पर लिखते हुए आलोचक डॉ रामविलास शर्मा ने कहा था- कथा के आनंद को प्रेमचंद अधूरा नहीं रखते । लेकिन हमारे कहानीकारों ने कथा के आनंद की महत्ता को या तो समझा नहीं या जानबूझकर दरकिनार कर दिया ।
इक्कीसवीं सदी में हमारे समाज में कई बदलाव होने शुरु हुए जो लगातार जारी हैं । आप उसे बाजारवाद का प्रभाव कहें । वैश्विकरण का नतीजा कहें जो चाहे नाम दे लें लेकिन समाज के साथ साथ लोगों की मानसिकता भी बदली । आज की युवा पीढ़ी इतनी स्मार्ट है कि उसे किसी तरह से भी बरगलाया नहीं जा सकता । हिंदी के हमारे ज्यादातर कहानीकार समय के साथ कदमताल नहीं कर पाए और लगातार पिछड़ते चले गए । इंटरनेट के युग की भाषा अलग है, उसकी मानसिकता अलग है, प्राथमिकताएं अलग हैं । इंटरनेट के जमाने में जहां प्यार तक के मायने बदल गए, देह को लेकर वर्जनाएं खत्म हो गई, अपनी जिंदगी के फैसले युवा खुद लेने लगे वहां हमारे कहानीकारों की मानसिकता में कोई खास बदलाव नहीं हो पाया । । आज हिंदी के कहानीकारों को उसको समझने की जरूरत है । आज अगर कहानी युवाओं से दूर जा रही है तो उसकी वजह यही सब है । हिंदी के कुछ उत्साही कथाकारों ने इस तरह की भाषा में लिखने की कोशिश की लेकिन वो अतिरेक के शिकार हो गए और संतुलन नहीं बना पाने की वजह से उनका लेखन फूहड़ होता चला गया । हमें इस बात पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है कि आज हिंदी में हमारे पास कोई चेतन भगत या अनुजा चौहान या अद्वैत काला जैसा किस्सागो क्यों नहीं है । हिंदी कहानी में युवा लेखकों की इस वक्त एक बड़ी फौज है लेकिन युवाओं को अपना पाठक बना पाने में सफलता नहीं मिल पा रही है ।
हिंदी कहानी के पाठकों से दूर जाने की एक और वजह है कि हिंदी कहानी यथार्थ और संघर्ष से इतनी ऑबसेस्ड हो गई कि उससे प्रेम गायब सा ही हो गया । सिर्फ युवा ही क्यों हर उम्र के पाठकों को प्रेम कहानी अपनी ओर खींचती है लेकिन लंबे अरसे से हिंदी में कोई बेहतरीन प्रेम कहानी नहीं लिखी गई । सिनेमा ने तो अपने आपको बदल लिया वहां प्रेम की वापसी हुई लेकिन हिंदी कथा साहित्य अब भी एक अदद अच्छी प्रेम कहानी के लिए तरस रहा है । कहानी के पाठकों से दूर जाने की एक और वजह है किताबों के शीर्षक । चाहे वो किसी भी पीढ़ी के कथाकार हों उनकी कहानी संग्रहों के नाम बेहद ही अनाकर्षक होते हैं । अभी अभी लंदन के कथा यूके सम्मान का ऐलान हुआ है वो जिस कहानी संग्रह को मिला है उसका नाम है – महुआ घटवारिन तथा अन्य कहानियां । अब आज के युवाओं के लिए घटवारिन शब्द इतना कठिन और अबूझ सा है कि वो इस संग्रह को खरीदने के पहले सौ बार सोचेगा । जरूरत इस बात की है कि युवाओं को अगर साहित्य से जोड़ना है तो हमें उनके मिजाज के हिसाब से लुभावने शीर्षक देने ही होंगे । कहानियों के चरित्र को आधुनिक बनाना ही होगा । कुछ महिला कथाकारों ने इस दिशा में लेखन शुरु किया है लेकिन उनको पाठकों तक पहुंचाने में काफी श्रम करना होगा । कुछ संपादकों ने कहानीकारों को कंधे पर बिठाकर प्रसिद्ध बनाने की कोशिश की, फौरी प्रसिद्धि दिलाने में सफल भी हो गए लेकिन उनको भी लोकप्रियता हासिल नहीं हो पाई । अगर युवा पाठकों को हिंदी कहानी से जोड़ना है तो विचारधारा से मुक्त होकर समय के मिजाज के हिसाब से लेखन करना होगा बरना वो दिन दूर नहीं जब कहानी के पाठकों की तलाश में हमें भटकना पड़े ।