गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पहले बीजेपी संसदीय
बोर्ड में लाया गया । उसके बाद गोवा की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी की बैठक में उनको चुनाव प्रचार कमेटी की कमान सौंप कर पार्टी ने साफ कर
दिया कि आगामी लोकसभा चुनाव में वही पार्टी के चेहरा होंगे । उनके इस ऐलान के पहले
ही कई नेता सियासी बीमारी के शिकार हो गए । यशवंत सिन्हा ने तो खुलकर कह दिया कि उनको
‘नमो’निया नहीं हुआ है, लेकिन वो अन्य वजहों से गोवा नहीं गए । नेताओं
के बीमारी के बावजूद मोदी को कमान सौंपी गई लेकिन ब्रम्हास्त्र तो चला लालकृष्ण आडवाणी
ने । आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा सौंपा और एक बेहद कड़ा पत्र अध्यक्ष
राजनाथ सिंह को लिखा । आडवाणी के इस्तीफे के बाद भी पार्टी में कोई हलचल नहीं हुई ।
दिखाने के लिए मानमनौव्वल का दौर चला, लेकिन उनको मनाने के लिए मोदी खेमा का कोई नेता
सक्रिय नहीं हुआ । अगर हम सियासत के महीन सूत्र को पकड़ते हैं तो पाते हैं कि आडवाणी
को मनाने में उनके ही खेमे की सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, बलबीर पुंज और वैंकैया नायडू
लगे रहे । दिल्ली में होते हुए राजनाथ सिंह उनसे मिलने तक उनके घर नहीं गए । दिल्ली
में मोदी के नए नए सिपहसालार अमित शाह तो राजनाथ सिंह और अन्य लोगों से मिलते रहे लेकिन
आडवाणी को मनाने तो दूर उनसे बात तक नहीं की । संसदीय बोर्ड में आडवाणी के इस्तीफे
को अस्वीकार करने की औपचाकिता निभाई गई और फिर पार्टी में सबकुछ सामान्य हो गया । सब
अपने अपने काम में लग गए । आडवाणी को भी अपनी स्थिति का एहसास हुआ और संघ प्रमुख मोहन
भागवत के फोन के बाद मान जाने का ऐलान हुआ ।
दरअसल इस पूरे मामले में आडवाणी से हालात और मोदी के प्रभामंडल के आकलन में चूक हो गई । मोदी ने पार्टी में ऐसी घेरेबंदी कर ली है और अपने प्रचार तंत्र की बिनाह पर कार्यकर्ताओं के बीच अपनी छवि एक ऐसे नायक की बना ली है जो हर समस्या का अंत कर सकता है । लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पत्र में जो गंभीर सवाल उठाए उसका जवाब नहीं मिल पाया । हलांकि राजनाथ सिंह ने इस बात का भरोसा दिया कि वो आडवाणी के उठाए मुद्दों पर गौर करेंगे । अपने पत्र में आडवाणी ने कहा था कि पार्टी के ज्यादातर नेता अपने व्यक्तिगत हित को आगे बढ़ाने में लगे हैं । उनका सीधा इशारा मोदी की ताजपोशी के दौरान के घटनाक्रम की ओर था और यही उनकी नाराजगी की वजह भी । उन्होंने संघ से जुड़े नेताओं के दुहाई भी दी थी लेकिन पार्टी ने उनपर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा । राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी को यह लगने लगा है कि मनमोहन सरकार की नाकामियों और बदनामियों की वजह से वो सत्ता हासिल करने के बिल्कुल करीब है । बहुत संभव है कि यह मुमकिन भी हो । देश की जनता इस वक्त महंगाई और भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही है । लेकिन जिस तरह से मोदी और पार्टी में उनके कारिंदे अपनी चालें चल रहे हैं वो पार्टी और संघ के सिद्धांतों के एकदम उलट है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सार्वजनिक जीवन में शुचिता की एक परंपरा रही है । और संघ से दीक्षित बीजेपी नेता उस परंपरा का निर्वाह करते रहे हैं । बीजेपी भी अपने को पार्टी विद अ डिफरेंस होने का दावा करती रही है । राजनीति में अपने चाल चरित्र और चेहरे के अलग होने का भी ।
हाल के सालों में जिस तरह से बीजेपी में येनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जिस तरह से तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता । गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी ।
बीजेपी की लाख आलोचना करनेवाले राजनीतिक टिप्पणीकार यह मानते रहे हैं कि वहां आंतरिक लोकतंत्र है और पार्टी सामूहिक निर्णय से चलती है । लेकिन पार्टी में मोदी युग के प्रादुर्भाव के बाद जिस तरह से पार्टी एक वयक्ति के इर्द गिर्द सिमटने लगी है वह पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है । संघ में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वो कितना भी बड़ा क्यों ना हो , संगठन से बड़ा नहीं होता । लेकिन जिस तरह से पार्टी आजकल नमो नमो का जाप कर रही है उससे तो यही लगता है कि वयक्तिवाद की राजनीति बीजेपी पर हावी होने लगी है । संघ ने जिस तरह से आडवाणी के विद्रोह पर लगाम लगाई उसी तरह से उसको व्यक्तिवादी राजनीति पर भी लगाम लगाने की जरूरत है, ताकि देशभर के स्वयंसेवकों का संगठन पर भरोसा कायम रह सके और पार्टी में कांग्रेस की तरह से व्यक्ति पूजा ना हो । राजनीतिज्ञों का अंतिम लक्ष्य सत्ता होता है लेकिन स्वंयसेवकों के लिए यह रास्ता तय नहीं किया गया था ।
दरअसल इस पूरे मामले में आडवाणी से हालात और मोदी के प्रभामंडल के आकलन में चूक हो गई । मोदी ने पार्टी में ऐसी घेरेबंदी कर ली है और अपने प्रचार तंत्र की बिनाह पर कार्यकर्ताओं के बीच अपनी छवि एक ऐसे नायक की बना ली है जो हर समस्या का अंत कर सकता है । लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पत्र में जो गंभीर सवाल उठाए उसका जवाब नहीं मिल पाया । हलांकि राजनाथ सिंह ने इस बात का भरोसा दिया कि वो आडवाणी के उठाए मुद्दों पर गौर करेंगे । अपने पत्र में आडवाणी ने कहा था कि पार्टी के ज्यादातर नेता अपने व्यक्तिगत हित को आगे बढ़ाने में लगे हैं । उनका सीधा इशारा मोदी की ताजपोशी के दौरान के घटनाक्रम की ओर था और यही उनकी नाराजगी की वजह भी । उन्होंने संघ से जुड़े नेताओं के दुहाई भी दी थी लेकिन पार्टी ने उनपर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा । राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी को यह लगने लगा है कि मनमोहन सरकार की नाकामियों और बदनामियों की वजह से वो सत्ता हासिल करने के बिल्कुल करीब है । बहुत संभव है कि यह मुमकिन भी हो । देश की जनता इस वक्त महंगाई और भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही है । लेकिन जिस तरह से मोदी और पार्टी में उनके कारिंदे अपनी चालें चल रहे हैं वो पार्टी और संघ के सिद्धांतों के एकदम उलट है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सार्वजनिक जीवन में शुचिता की एक परंपरा रही है । और संघ से दीक्षित बीजेपी नेता उस परंपरा का निर्वाह करते रहे हैं । बीजेपी भी अपने को पार्टी विद अ डिफरेंस होने का दावा करती रही है । राजनीति में अपने चाल चरित्र और चेहरे के अलग होने का भी ।
हाल के सालों में जिस तरह से बीजेपी में येनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जिस तरह से तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता । गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी ।
बीजेपी की लाख आलोचना करनेवाले राजनीतिक टिप्पणीकार यह मानते रहे हैं कि वहां आंतरिक लोकतंत्र है और पार्टी सामूहिक निर्णय से चलती है । लेकिन पार्टी में मोदी युग के प्रादुर्भाव के बाद जिस तरह से पार्टी एक वयक्ति के इर्द गिर्द सिमटने लगी है वह पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है । संघ में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वो कितना भी बड़ा क्यों ना हो , संगठन से बड़ा नहीं होता । लेकिन जिस तरह से पार्टी आजकल नमो नमो का जाप कर रही है उससे तो यही लगता है कि वयक्तिवाद की राजनीति बीजेपी पर हावी होने लगी है । संघ ने जिस तरह से आडवाणी के विद्रोह पर लगाम लगाई उसी तरह से उसको व्यक्तिवादी राजनीति पर भी लगाम लगाने की जरूरत है, ताकि देशभर के स्वयंसेवकों का संगठन पर भरोसा कायम रह सके और पार्टी में कांग्रेस की तरह से व्यक्ति पूजा ना हो । राजनीतिज्ञों का अंतिम लक्ष्य सत्ता होता है लेकिन स्वंयसेवकों के लिए यह रास्ता तय नहीं किया गया था ।
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