भारतीय जनता पार्टी के सबसे वरिष्ठ
नेता लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे की पेशकश और संसदीय बोर्ड के उसके ठुकराए जाने के
बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी रणनीति पर कोई असर नहीं पड़ा है । गोवा
की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आडवाणी गुट के तमाम नेताओं के बहिष्कार के बावजूद
मोदी की राजनीति ने पार्टी को अपने पक्ष में खड़ा होने को मजबूर कर दिया। दो दिन की
मशक्कत के बाद जब मोदी को पार्टी की चुनाव प्रचार समिति की कमान सौंपी गई थी तो किसी
को अंदेशा नहीं था कि आडवाणी अपने इस्तीफे का फच्चर फंसा सकते हैं । इस्तीफे के बाद
के हालात में संघ बहुत मजबूती के साथ मोदी के पीछे खड़ा है और पार्टी के ज्यादातर नेताओं
का समर्थन भी । हलांकि 2002 में गुजरात दंगों के बाद गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी
की बैठक में मोदी के सामने सवालों का पहाड़ था। कहा जाता है कि उनपर अपने पद से इस्तीफे का भयानक
दबाव था । अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि मोदी का इस्तीफा हो लेकिन तब आडवाणी उनके पक्ष में थे । ग्यारह साल बाद उसी गोवा से ही वो विजेता के तौर पर उभरे । इऩ ग्यारह
सालों में नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश में अपनी छवि विकास पुरुष और मजबूत और निर्णायक
नेता की बनाने में कामयाबी हासिल की । अब अपनी ही पार्टी में उन्हें सर्वस्वीकार्यता
की जांग लड़नी पड़ रही है । आडवाणी के इस्तीफे को दरकिनार कर भले ही बीजेपी ने मोदी
को अपना चेहरा बनाना तय कर लिया है लेकिन आडवाणी को इतनी आसानी से हाशिए पर नहीं डाला
जा सकता है । सुषमा स्वराज ने भी कार्यकारिणी की बैठक के बाद की रैली में शामिल नहीं
होकर अपनी नाराजगी उजागर कर दी उससे भी आने वाले दिनों के संकेत मिले हैं । पार्टी
के कई नेता ओखुलकर आडवाणी के पक्ष में नहीं आ रहे हैं लेकिन खामोश विरोधियों को जोड़ाने
की चुनौती मोदी के सामने है । घोषित तौर तो यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, शत्रुध्न सिन्हा,
बीसी खंडूरी और भगत सिंह कोश्यारी ने अपनी सांकेतिक नाराजगी जता ही दी है । इसके अलावा
राजनाथ सिंह की खुद के पक्ष की परोक्ष राजनीति से निबटना भी मोदी के लिए आसान नहीं
होगा ।
नरेन्द्र
मोदी के भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में आने से देश की राजनीति में जबरदस्त ध्रुवीकरण
देखने को मिल सकता है । मोदी की छवि एक कट्टर हिंदूवादी नेता की है। इस ध्रुवीकरण का असर आगामी चुनावों पर साफ तौर पर
देखने को मिलेगा । विरोधियों का दावा है कि दंगों
के ग्यारह साल बाद मोदी ने एक बार भी उसपर अफसोस तक नहीं जताया है, माफी की बात
तो दूर । मोदी इसे अपनी ताकत समझते हैं लेकिन
अब जबकि वो गुजरात के बाहर की राजनीति करेंगे तो यह उनकी कमजोरी बनेगी या शक्ति देखना होगा। पश्चिम बंगाल, बिहार. उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश जहां अकलियत की बड़ी आबादी
है जो लोकसभा चुनाव में सीटों के नतीजों को तय करते हैं । इस ध्रुवीकरण का 2104 के चुनाव परिणाम पर क्या असर होगा। अभी देश में
यूपीए के खिलाफ जो वातावरण बना है उसमें भ्रष्टाचार और महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा है
लेकिन मोदी के आने के बाद बहुत संभव है कि ये मु्ददे सेक्युलरिज्म के सामने गौण हो
जाएं । अपनी तमाम नाकामी छुपाने के लिए कांग्रेस भी यही चाहेगी कि चुनाव धर्मनिरपेक्षता
के आधार पर लड़ा जाएगा । अगर ऐसा हो जाता है तो विकास पुरुष की जो छवि मोदी ने पिछले
एक दशक में श्रमपूर्वक बनाई है उसके सामने चुनौती बढ़ जाएगी। अपनी पार्टी में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करने के अलावा मोदी को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए एनडीए का दायरा बढा़ना होगा । 2004 के बाद से लगातार एनडीए का कुनबा बिखरता जा रहा है । सहयोगी दल एक एक कर गठबंधन से अलग होते चले गए । फिलहाल एनडीए में मोटे तौर पर शिवसेना, अकाली दल और जेडीयू ही बीजेपी के साथ हैं । उसमें भी जेडीयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई बार प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मोदी की रहनुमाई को लेकर अपना कड़ा विरोध प्रकट कर चुके हैं । आडवाणी के इस्तीफे के बाद शिवसेना ने भी साफ कर दिया है कि आडवाणी के जाने से एनडीए का नेतृत्व फीका पड़ेगा । इन दोनों को एनडीएण में बनाए रखने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ सकती है । इसके अलावा ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे पुराने साथियों की वापसी के फिलहाल तो कोई संकेत नहीं है । मोदी को अपने पुराने साथियों को अपने साथ बनाए रखने के अलावा नए साथियों की तलाश भी करनी होगी । साथियों के अलावा मोदी को पार्टी के खिसकते जनाधार को रोकने और उसको बढ़ाने की भी बड़ी चुनौती है । सालभर के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक में सत्ता गंवाई है। मोदी को इन राज्यों में बीजेपी की जमीन वापस दिलाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा । पार्टी के क्षत्रपों को अपने पाले में लाकर पार्टी को मजबूत करना होगा ।
मोदी-मोदी और नमो-नमो के कोलाहल के बीच बीजेपी यह भूल गई है कि बिंध्य के पार और पू्र्वोतर राज्यों में पार्टी अपनी पहचान बनाने का संघर्ष कर रही है। अगर हम लोकसभा सीटों के आधार पर देखें तो आंध्र प्रदेश की 42, पश्चिम बंगाल की 42, तमिलनाडु की 39, उड़ीसा की 21 और केरल की 20 और हरियाणा की 10 यानि कुल 174 सीटों में से बीजेपी की उपस्थिति शून्य है । इसके अलावा असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में भी पार्टी सिर्फ नाम के लिए मौजूद है । अगर हम गौर करें तो देश के तीन अन्य बड़े राज्य मध्य प्रदेश की 29, कर्नाटक की 28 और झारखंड की 14 सीटों के योग 71 में से बीजेपी को 43 सीटें मिली थी तो क्या मोदी इससे ज्यादा सीटें दिलवा पाएंगे । इसके अलावा बिहार में पार्टी नीतीश की बैसाखी के सहारे चल रही है । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा है । ये सब बेहद अहम और बड़े सवाल हैं । तीन बार केंद्र की सत्ता पर काबिज़ हो चुकी बीजेपी को अब तक लोकसभा में बहुमत मिलना तो दूर की बात पार्टी दो सौ सीटों से उपर नहीं जा पाई है । 2009 में तो बीजेपी के हिस्से में महज़ 116 सीटें आईं थी जबकि बहुमत के लिए 272 का आंकड़ा चाहिए । इन आंकड़ों के विश्लेषण से नरेन्द्र मोदी की राह बहुत आसान नहीं लगती । उनके पास तकरीबन सालभर का वक्त है और चुनौतियां बहुत ज्यादा है । सूबे की राजनीति और देश की राजनीति अलग होती है । अगर इन चुनौतियों से निबटने में मोदी कामयाब हो जाते हैं तो वो इतिहास पुरुष बन जाएंगे और अगर नाकाम होते हैं तो इतिहास के पन्नों में खो जाने का बड़ा खतरा उनके सामने है ।
1 comment:
your analysis is realistic and calculative .
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