एक बार कुछ लोग मोहम्मद साहब
के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि हुजूर आपके बाद अगर इस्लाम के नाम पर उसकी अनर्गल व्याख्या
की जाने लगे तो उसको कैसे परखा जाए कि वो सही है या गलत । मोहम्मद साहब ने कुछ देर
सोचने के बाद जबाव दिया कि इस्लाम की किसी भी तरह की व्याख्या को पवित्र कुरआन की कसौटी
पर कसना और अगर कोई भी व्याख्या, चाहे वो कितने भी विद्वान की क्यों ना हो,कुरआन की
कसौटी पर खरा ना उतरे तो उसको उठाकर दीवार पर मारना । मोहम्मद साहब के इस कथन को कई
व्याख्याकारों ने भुला दिया या फिर ये कह सकते हैं कि उसे दरकिनार कर दिया । नतीजा
यह हुआ कि इस्लाम में कट्टरपंथ को लागातर बढावा मिलता रहा । लेकिन यह कहना भी गलत होगा
कि सभी इस्लामी विद्वानों ने इस्लाम की व्याख्या में गलती की । वहां भी कई तरक्कीपसंद
और प्रगतिशील विचारधारा के स्कॉलर हुए जिन्होंने इस्लाम में फैली कुरीतियों के खिलाफ
आवाज उठाई । अस्सी के दशक में भारत में एक ऐसा ही चिंतक और विचारक सामने आया जिसने
इस्लाम और उसकी व्याख्या को तर्कों की कसौटी पर कसना शुरू किया । इस शख्स का नाम था
असगर अली इंजीनियर । अस्सी के दशक में ही असगर अली इंजीनियर साहब ने इस्लाम और भारत
में सांप्रदायिक हिंसा के नाम के नाम पर किताबों की एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की ।
असगर अली इंजीनियर के तर्कों ने कट्टरपंथियों को बेचैन कर दिया । उन्हें लगा कि अगर
इस शख्स को नहीं रोका गया तो उनकी दुकानदारी बंद हो सकती है । धर्म की गलत-सलत व्याख्या
कर अपनी दुकान चमकानेवालो ने असगर अली इंजीनियर पर एक नहीं, दो नहीं बल्कि आधा दर्ज
बार जानलेवा हमला करवाया । लेकिन असगर अली इंजीनियर अरने पथ से डिगे नहीं और अपनी कलम
के जोर पर कुरीतियों के खिलाफ जंग को जारी रखा ।
असगर अली का जन्म राजस्थान के दाउदी वोहरा समाज के आमिल परविार में हुआ 10 मार्च 1939 को हुआ था । उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई जहां उन्हें कुरान, हदीस और अरबी की तालीम दी गई । लेकिन असगर अली का दिल कहीं और लग रहा था । अपने मेहनत के बल पर उन्होंने इंदौर के इंजीनियर कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और नौकरी के लिए मुंबई जा पहुंचे । असगर अली साहब ने तकरीबन दो दशक तक मुंबई महानगर पालिका में इंजीनियर की नौकरी की और यहीं से उनके नाम के साथ इंजीनियर जुड़ गया । जब पूरा देश इमरजेंसी के सदमे और खौफ में था उस वक्त असगर अली साहब ने तय किया कि वो नौकरी नहीं करेंगे । नौकरी छोड़ने के बाद असगर अली साहब ने दाऊदी बोहरा समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी । 1977 में वो सेंट्रल बोर्ड ऑफ दाऊदी बोहरा कमेटी के महासचिव बने । इस पद पर पहुंचते ही उन्होंने इस समाज में जारी कठमुल्लेपन पर अपनी लेखनी और कार्यों के जरिए हल्ला बोल दिया । असगर अली साहब ने इस्लाम और इस्लामिक न्याय शास्त्र का तार्किक विवेचन शुरू कर दिया । नतीजा यह हुआ कि बोहरा समाज के धर्मगुरू ने उनको समाज से बाहर करने का फरमान जारी कर दिया । समाज बदर के फरमान के बाद उनके दफ्तरों पर हमले हुए लेकिन कोई भी इस्लामी संगठन उनके बचाव के लिए आगे नहीं आाया । इस वक्त असगर अली इंजीनियर बेहद जांबाजी के साथ कठमुल्लों से लोहा लेते रहे और यह साबित किया कि क्रांति के लिए हथियार उठाना जरूरी नहीं बल्कि कलम के जोर पर भी समाज में बदलाव के बीज बोए जा सकते हैं । उनके इस काम में हिंदी की उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका सारिका और उसके तत्कालीन संपादक कमलेश्वर ने साथ दिया । असगर अली इंजीनियर के कई लेख उस दौर में सारिका में छपे जिसके बाद गैर उर्दू पाठकों के बीच भी असगर अली इंजीनियर साहब की एक छवि निर्मित हुई । इस्लाम की व्याख्या का असगर अली इंजीनियर का अपना एक अलहदा तरीका था । असगर अली मानते थे कि इस्लाम में जिनकी आस्था नहीं है वो भी इ्स्लामिक नागरिकों की तरह के ही इंसान हैं । जोर जबरदस्ती से धर्म के प्रचार के वो खिलाफ थे, उनकी यही बातें कठमुल्लों को रास नहीं आती थी ।
आज के मौजूदा हालात में भारत के अलावा विश्व के कई देशों में इस्लाम को लेकर बहुत भ्रांतियां व्याप्त हैं । अलग अलग तरह की टीकाओं और व्याख्याओं के चलते इस्लाम की छवि एक कट्टरपंथी धर्म के रूप में दिनों दिन मजबूत होती जा रही है । इस्लाम की सही व्याख्या करती हुई किताबें भी भारत में लगभग नहीं के बराबर मौजूद हैं । असगर अली इंजीनियर ने अपने लेखन से भरसक इस कमी को दूर करने की कोशिश की । उनकी कई किताबें- इस्लाम एंड इट्स रेलिवेंस टू ऑवर एज, इस्लाम एंड रिवोल्यूशन, इस्लाम एंड मुस्लिम्स जैसी किताबों ने धर्म पर छाए धुंध को हटाने का काम किया । भारत में दंगों पर भी असगर अली इंजीनियर साहब ने काफी काम किया । दंगा पीड़ित इलाकों का भ्रमण करने के बाद वहां के लोगों को मनोविज्ञान पर भी उन्होंने किताबें लिखी । इस विषय पर लिखी उनकी दो किताबें- कम्युनिल्ज्म और कॉमिन्यूल वॉयलेंस इन इंडिया और कम्युनल रॉयट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडिया- बेहतरीन हैं । भारत के सामाजिक तानेबाने को समझने के लिए इन दो किताबों को पढ़ना मुझे जरूरी सा लगता है ।
असगर अली इंजीनियर साहब इस्लाम में स्त्रियों की स्थिति को लेकर खासे चिंतत रहा करते थे । उनका मानना था कि कुरआन में स्त्रियों को जो जगह दी गई है वो अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाई हैं । असगर अली साहब कहते थे कि मुसलमानों में जिस तरह का पितृसत्तात्मक समाज है वहां महिलाओं का अभी तक बराबरी का हक नहीं दिया जा सका है । वो ताउम्र मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ते रहे । असगर साहब का मानना था कि आधुनिक जमाने की महिलाएं ज्यादा पढ़ी लिखी और संवेदनशील हैं लिहाजा उन्हें यह गंवारा नहीं है कि वो अपने पति का प्यार अपनी सौतन के साथ बांटे । उनका मानना था कि स्त्रियों को बराबरी का हक देने की वकालत नहीं करनेवाले लोग धार्मिक नहीं हो सकते । असगर अली के आलोचक इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते थे । उनके विरोधियों का तर्क है कि असगर अली ने कुरआन की व्याख्या बेहद आधुनिक तरीके से की है । जिस वक्त कुरआन अस्तित्व में आया था उलस वक्त के हालात अलग थे । लेकिन असगर अली इंजीनियर अपनी बातों पर अडिग रहे । असगर अली इंजीनियर साहब ने पचास से ज्यादा किताबें लिखी ।अभी कुल सालों पहले ही उनकी आत्मकथा भी आई थी।
14 मई को असगर अली इंजीनियर साहब ने मुंबई में अंतिम सांसे ली । उन्हें उनकी आखिरी इच्छा के मुताबिक दाऊदी बोहरा संप्रदाय के कब्रिस्तान में नहीं दफनाकर सांताक्रूज के मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया गया जहां उनके दोस्त मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी दफ्न हैं । उन्हें उनके बेटे इरफान के साथ उनके निकट सहयोगी राम पुनियानी ने कब्र में उतारा । एक मुसलमान स्कॉलर को एक हिंदू ने कब्र में उतारा, इसका एक बड़ा संदेश है जो अली असगर इंजीनियर साहब देना चाहते थे । असगर अली इंजीनियर साहब को श्रद्धांजलि–
हजारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
असगर अली का जन्म राजस्थान के दाउदी वोहरा समाज के आमिल परविार में हुआ 10 मार्च 1939 को हुआ था । उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई जहां उन्हें कुरान, हदीस और अरबी की तालीम दी गई । लेकिन असगर अली का दिल कहीं और लग रहा था । अपने मेहनत के बल पर उन्होंने इंदौर के इंजीनियर कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और नौकरी के लिए मुंबई जा पहुंचे । असगर अली साहब ने तकरीबन दो दशक तक मुंबई महानगर पालिका में इंजीनियर की नौकरी की और यहीं से उनके नाम के साथ इंजीनियर जुड़ गया । जब पूरा देश इमरजेंसी के सदमे और खौफ में था उस वक्त असगर अली साहब ने तय किया कि वो नौकरी नहीं करेंगे । नौकरी छोड़ने के बाद असगर अली साहब ने दाऊदी बोहरा समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी । 1977 में वो सेंट्रल बोर्ड ऑफ दाऊदी बोहरा कमेटी के महासचिव बने । इस पद पर पहुंचते ही उन्होंने इस समाज में जारी कठमुल्लेपन पर अपनी लेखनी और कार्यों के जरिए हल्ला बोल दिया । असगर अली साहब ने इस्लाम और इस्लामिक न्याय शास्त्र का तार्किक विवेचन शुरू कर दिया । नतीजा यह हुआ कि बोहरा समाज के धर्मगुरू ने उनको समाज से बाहर करने का फरमान जारी कर दिया । समाज बदर के फरमान के बाद उनके दफ्तरों पर हमले हुए लेकिन कोई भी इस्लामी संगठन उनके बचाव के लिए आगे नहीं आाया । इस वक्त असगर अली इंजीनियर बेहद जांबाजी के साथ कठमुल्लों से लोहा लेते रहे और यह साबित किया कि क्रांति के लिए हथियार उठाना जरूरी नहीं बल्कि कलम के जोर पर भी समाज में बदलाव के बीज बोए जा सकते हैं । उनके इस काम में हिंदी की उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका सारिका और उसके तत्कालीन संपादक कमलेश्वर ने साथ दिया । असगर अली इंजीनियर के कई लेख उस दौर में सारिका में छपे जिसके बाद गैर उर्दू पाठकों के बीच भी असगर अली इंजीनियर साहब की एक छवि निर्मित हुई । इस्लाम की व्याख्या का असगर अली इंजीनियर का अपना एक अलहदा तरीका था । असगर अली मानते थे कि इस्लाम में जिनकी आस्था नहीं है वो भी इ्स्लामिक नागरिकों की तरह के ही इंसान हैं । जोर जबरदस्ती से धर्म के प्रचार के वो खिलाफ थे, उनकी यही बातें कठमुल्लों को रास नहीं आती थी ।
आज के मौजूदा हालात में भारत के अलावा विश्व के कई देशों में इस्लाम को लेकर बहुत भ्रांतियां व्याप्त हैं । अलग अलग तरह की टीकाओं और व्याख्याओं के चलते इस्लाम की छवि एक कट्टरपंथी धर्म के रूप में दिनों दिन मजबूत होती जा रही है । इस्लाम की सही व्याख्या करती हुई किताबें भी भारत में लगभग नहीं के बराबर मौजूद हैं । असगर अली इंजीनियर ने अपने लेखन से भरसक इस कमी को दूर करने की कोशिश की । उनकी कई किताबें- इस्लाम एंड इट्स रेलिवेंस टू ऑवर एज, इस्लाम एंड रिवोल्यूशन, इस्लाम एंड मुस्लिम्स जैसी किताबों ने धर्म पर छाए धुंध को हटाने का काम किया । भारत में दंगों पर भी असगर अली इंजीनियर साहब ने काफी काम किया । दंगा पीड़ित इलाकों का भ्रमण करने के बाद वहां के लोगों को मनोविज्ञान पर भी उन्होंने किताबें लिखी । इस विषय पर लिखी उनकी दो किताबें- कम्युनिल्ज्म और कॉमिन्यूल वॉयलेंस इन इंडिया और कम्युनल रॉयट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडिया- बेहतरीन हैं । भारत के सामाजिक तानेबाने को समझने के लिए इन दो किताबों को पढ़ना मुझे जरूरी सा लगता है ।
असगर अली इंजीनियर साहब इस्लाम में स्त्रियों की स्थिति को लेकर खासे चिंतत रहा करते थे । उनका मानना था कि कुरआन में स्त्रियों को जो जगह दी गई है वो अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाई हैं । असगर अली साहब कहते थे कि मुसलमानों में जिस तरह का पितृसत्तात्मक समाज है वहां महिलाओं का अभी तक बराबरी का हक नहीं दिया जा सका है । वो ताउम्र मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ते रहे । असगर साहब का मानना था कि आधुनिक जमाने की महिलाएं ज्यादा पढ़ी लिखी और संवेदनशील हैं लिहाजा उन्हें यह गंवारा नहीं है कि वो अपने पति का प्यार अपनी सौतन के साथ बांटे । उनका मानना था कि स्त्रियों को बराबरी का हक देने की वकालत नहीं करनेवाले लोग धार्मिक नहीं हो सकते । असगर अली के आलोचक इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते थे । उनके विरोधियों का तर्क है कि असगर अली ने कुरआन की व्याख्या बेहद आधुनिक तरीके से की है । जिस वक्त कुरआन अस्तित्व में आया था उलस वक्त के हालात अलग थे । लेकिन असगर अली इंजीनियर अपनी बातों पर अडिग रहे । असगर अली इंजीनियर साहब ने पचास से ज्यादा किताबें लिखी ।अभी कुल सालों पहले ही उनकी आत्मकथा भी आई थी।
14 मई को असगर अली इंजीनियर साहब ने मुंबई में अंतिम सांसे ली । उन्हें उनकी आखिरी इच्छा के मुताबिक दाऊदी बोहरा संप्रदाय के कब्रिस्तान में नहीं दफनाकर सांताक्रूज के मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया गया जहां उनके दोस्त मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी दफ्न हैं । उन्हें उनके बेटे इरफान के साथ उनके निकट सहयोगी राम पुनियानी ने कब्र में उतारा । एक मुसलमान स्कॉलर को एक हिंदू ने कब्र में उतारा, इसका एक बड़ा संदेश है जो अली असगर इंजीनियर साहब देना चाहते थे । असगर अली इंजीनियर साहब को श्रद्धांजलि–
हजारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
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शूभ लाभ Seetamni. blogspot. in
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