तेरह दिसंबर दो हजार तीन को
गुजरात के कच्छ जिले के आदीपुर में बतौर रेल मंत्री बोलते हुए नीतीश कुमार ने नरेन्द्र
मोदी की तारीफों के पुल बांधे थे । उस वक्त नीतीश ने कहा था- मुझे पूरी उम्मीद है कि
बहुत दिन गुजरात के दायरे में सिमट कर नरेन्द्र भाई नहीं रहेंगे और देश को उनकी सेवा
मिलेगी । यह बयान उस वक्त आया था जबकि गुजरात में भयानक दंगे हो चुके थे और मोदी को
उन दंगों पर समय रहते काबू नहीं कर पाने के लिए कठघरे में खड़ा किया जा रहा था । उनपर
दंगों को रोकने में असफल रहने के लिए उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने
राजधर्म का पालन ना कर पाने का सार्वजनिक बयान दिया था । लेकिन नीतीश कुमार उनकी शान
में कसीदे गढ़ रहे थे । अपने उस बयान के करीब दस साल बाद जब नीतीश को अपनी उम्मीद सही
साबित होती दिखने लगी, यानि कि नरेन्द्र मोदी गुजरात के दायरे से बाहर निकलकर देश की
ओर बढ़े, तो वो मोदी के नाम पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो गए । दोष बीजेपी
पर मढ़ा कि उसने हालात ऐसे पैदा कर दिए कि गठबंधन में रहना संभव नहीं हो पाया । लेकिन
इन दस सालों में गुजरात की नर्मदा नदी और बिहार से होकर जानेवाली गंगा में भी काफी
पानी बह गया । नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में लगातार तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी
को जीत दिलाकर पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी दावेदारी को मजबूती प्रदान की । उधर
नीतीश कुमार ने रसातल में जा चुके बिहार को विकास की पटरी पर लाकर पूरे राष्ट्र का
ध्यान अपनी ओर खींचा था । बिहार का विकास दर गुजरात से ज्यादा पहुंचा दिया । नतीजा
यह हुआ कि दोनों नेताओं की महात्वाकांक्षा सातवें आसमान पर पहुंचने लगी । मोदी ने अपने
राजनीतिक कौशल से पार्टी में अपने आपको सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता के तौर पर स्थापित
कर लिया था । राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का भी एक बड़ा धड़ा मोदी में हिंदुत्व का नायक
देखने लगा था । यह बात गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और बाद में आडवाणी के इस्तीफे
और उसे वापस लेने के ड्रामे के बाद और साफ हो गई थी । उधर नीतीश कुमार को फेडरल फ्रंट
के सपने आने लगे थे । बीजेपी में आंतरिक कलह और कांग्रेस की अलोकप्रियता में नीतीश
अपनी संभावनाएं तलाशने लगे थे । नीतीश की इस महात्वाकांक्षा को भांपते हुए कांग्रेस
ने उसको हवा दे दी । इसी संभावना की तलाश में नीतीश को लगा कि मोदी का खुला विरोध करके
वो सेक्युलरवाद के सबसे बड़े झंडाबरदार बनकर उभर सकते हैं । लिहाजा उन्होंने मोदी का
बैगर नाम लिए खुला विरोध शुरू कर दिया । नीतीश कुमार ने दिल्ली की अपनी अधिकार रैली
में साफ कर दिया था कि उन्हें नरेन्द्र मोदी कतई मंजूर नहीं हैं । नरेन्द्र मोदी की
काट के लिए नीतीश ने आडवाणी का नाम आगे बढाया लेकिन इस आकलन में नीतीश से चूक हो गई
। बीजेपी में आडवाणी अब लगभग इतिहास हो चुके हैं, उनका युग और दौर दोनों खत्म हो चुका
है ।
नीतीश कुमार आज नरेन्द्र मोदी को सांप्रदायिक बताते हुए अटल-आडवाणी के गुणगान में लगे हैं । परोक्ष रूप से उन्होंने यह भी संकेत दिया कि अगर आडवाणी को बीजेपी अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे तो उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बने रहने में कोई परहेज नहीं है । यह तो वही बात हुई कि गुड़ खाए लेकिन गुलगुल्ले से परहेज । आज नीतीश की नजर में आडवाणी सेक्युलर हो गए हैं । अपनी सुविधाजनक सियासत के हिसाब से नीतीश यह भूल गए कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद के विध्वंस में आडवाणी की कितनी बड़ी और अहम भूमिका थी । आडवाणी की रथयात्रा से देश में कितना वैमनस्य फैला था । नीतीश यह भी भूल गए कि आडवाणी का रथ जिन इलाकों से गुजरा था वहां कितने दंगे हुए थे । नीतीश यह भी भूल गए कि आडवाणी ने संघ की कट्टर और उग्र हिंदूवादी धारा को ना केवल प्रश्रय दिया बल्कि उसको देशभर में फैलाने और मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी । दरअसल नीतीश कुमार की अपनी मौकापरस्ती की राजनीति है । उन्हें जहां फायदा दिखता है उसके साथ हो लेते हैं औ सुविधानुसार तर्क गढ़ लेते हैं । नीतीश कुमार राजनीति में सही टाइमिंग के लिए जाने जाते हैं और सही समय पर सही पाले में रहकर उन्होंने सियासत में अपनी एक मजबूत जमीन तैयार की है । नब्बे के दशक में जब उनको लालू की पार्टी में भविष्य नहीं दिखा तो जॉर्ज की उंगली पकड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया ।
बदले हालात में अब नीतीश कुमार को लगने लगा कि मोदी के आगे आने से बिहार में अकलियत का वोट उनसे अलग हो सकता है । बिहार में मुसलमानों की संख्या लगभग सत्रह फीसदी है । माना जाता है कि नीतीश कुमार अपना दोस्त और दुश्मन दोनों बहुत सोच समझकर चुनते हैं । नीतीश का आकलन था कि अगर मोदी का दामन नहीं छोड़ा तो बिहार के सत्रह फीसदी वोटर उनसे छिटककर लालू यादव के पाले में जा सकते हैं । महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में इस बात के भी संकेत मिले थे कि बिहार की मजबूत और दबंग मानी जानेवाली भूमिहार जाति उनसे दूर जा रही है । नीतीश ने बिहार में महादलितों और पासमंदा मुसलमान को अपने पाले में लाने और बनाए रखने के लिए पिछले आठ सालों में काफी मेहनत की थी । लेकिन बदले माहौल में मुसलमानों को अपने पाले में बनाए रखना मुमकिन नहीं था । मोदी और मुसलमान दोनों एक साथ आ नहीं सकते । लिहाजा नीतीश के सामने अपने आप को सेक्यूलरिज्म का चैंपियन घोषित करने के अलावा और कोई चारा नहीं था और इसके लिए मोदी का विरोध जरूरी था । बीजेपी से अलग होकर नीतीश कुमार ने अपने सियासी करियर का सबसे बड़ा दांव चल दिया है । फिलहाल उनके पास कामचलाऊ बहुमत है और बिहार में उनकी सरकार पर कोई खतरा भी नहीं नजर आता । पिछले सत्रह सालों से दोनों पार्टियां मिलकर बिहार में चुनाव लड़ रही थी और नीतीश कुमार को बीजेपी के संगठन का लाभ मिलता रहा है । लेकिन अब बीजेपी से अलग होने के बाद उनके सामने संगठन सबसे बड़ी चुनौती होगी ।
ऐसा नहीं है कि गठबंधन के टूटने से सिर्फ नीतीश के सामने ही मुश्किलें बढ़ी हैं – दिल्ली की गद्दी पर बैठने का ख्बाव देख रहे नरेन्द्र मोदी के लिए भी नीतीश जैसे सहयोगी के चले जाने की भारपाई करना आसान नहीं होगा । आगामी लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है । इन हालात में सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन के तौर पर उभरना बेहद जरूरी है । बीजेपी के साथ अब ले देकर शिवसेना और अकाली दल बचे हैं । शिवसेना भी मोदी को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखती है क्योंकि बाला साहब ठाकरे ने अपनी मौत के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए सुषमा स्वराज की वकालत की थी । हां अकाली दल बेहद मजबूती के साथ बीजेपी के साथ खड़ा है । लोकसभा चुनाव की तैयारियों और रणनीतियों के लिए ग्यारह महीने का वक्त बहुत कम होता है । खासकर तब जबकि देश लगभग आधे हिस्से में आपका जनाधार नहीं हो और आपके सहयोगी आपसे छिटक रहे हों । जहां एक एक सीट के लिए मारामारी मचनेवाली हो वहां इक्कीस लोकसभा सीट जीतनेवाली सहयोगी पार्टी के अलग होने से मोदी के सपनों पर ग्रहण लगने का खतरा बढ़ जाता है । ऐसे में मोदी के सामने अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की बड़ी चुनौती है । इसके अलावा मोदी को नए सहयोगियों की तलाश भी करनी होगी । अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो देश में फिर से अस्थिर सरकारों का दौर शुरू हो सकता है जो ना तो देश के हित में होगा और ना ही जनता के ।
नीतीश कुमार आज नरेन्द्र मोदी को सांप्रदायिक बताते हुए अटल-आडवाणी के गुणगान में लगे हैं । परोक्ष रूप से उन्होंने यह भी संकेत दिया कि अगर आडवाणी को बीजेपी अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे तो उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बने रहने में कोई परहेज नहीं है । यह तो वही बात हुई कि गुड़ खाए लेकिन गुलगुल्ले से परहेज । आज नीतीश की नजर में आडवाणी सेक्युलर हो गए हैं । अपनी सुविधाजनक सियासत के हिसाब से नीतीश यह भूल गए कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद के विध्वंस में आडवाणी की कितनी बड़ी और अहम भूमिका थी । आडवाणी की रथयात्रा से देश में कितना वैमनस्य फैला था । नीतीश यह भी भूल गए कि आडवाणी का रथ जिन इलाकों से गुजरा था वहां कितने दंगे हुए थे । नीतीश यह भी भूल गए कि आडवाणी ने संघ की कट्टर और उग्र हिंदूवादी धारा को ना केवल प्रश्रय दिया बल्कि उसको देशभर में फैलाने और मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी । दरअसल नीतीश कुमार की अपनी मौकापरस्ती की राजनीति है । उन्हें जहां फायदा दिखता है उसके साथ हो लेते हैं औ सुविधानुसार तर्क गढ़ लेते हैं । नीतीश कुमार राजनीति में सही टाइमिंग के लिए जाने जाते हैं और सही समय पर सही पाले में रहकर उन्होंने सियासत में अपनी एक मजबूत जमीन तैयार की है । नब्बे के दशक में जब उनको लालू की पार्टी में भविष्य नहीं दिखा तो जॉर्ज की उंगली पकड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया ।
बदले हालात में अब नीतीश कुमार को लगने लगा कि मोदी के आगे आने से बिहार में अकलियत का वोट उनसे अलग हो सकता है । बिहार में मुसलमानों की संख्या लगभग सत्रह फीसदी है । माना जाता है कि नीतीश कुमार अपना दोस्त और दुश्मन दोनों बहुत सोच समझकर चुनते हैं । नीतीश का आकलन था कि अगर मोदी का दामन नहीं छोड़ा तो बिहार के सत्रह फीसदी वोटर उनसे छिटककर लालू यादव के पाले में जा सकते हैं । महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में इस बात के भी संकेत मिले थे कि बिहार की मजबूत और दबंग मानी जानेवाली भूमिहार जाति उनसे दूर जा रही है । नीतीश ने बिहार में महादलितों और पासमंदा मुसलमान को अपने पाले में लाने और बनाए रखने के लिए पिछले आठ सालों में काफी मेहनत की थी । लेकिन बदले माहौल में मुसलमानों को अपने पाले में बनाए रखना मुमकिन नहीं था । मोदी और मुसलमान दोनों एक साथ आ नहीं सकते । लिहाजा नीतीश के सामने अपने आप को सेक्यूलरिज्म का चैंपियन घोषित करने के अलावा और कोई चारा नहीं था और इसके लिए मोदी का विरोध जरूरी था । बीजेपी से अलग होकर नीतीश कुमार ने अपने सियासी करियर का सबसे बड़ा दांव चल दिया है । फिलहाल उनके पास कामचलाऊ बहुमत है और बिहार में उनकी सरकार पर कोई खतरा भी नहीं नजर आता । पिछले सत्रह सालों से दोनों पार्टियां मिलकर बिहार में चुनाव लड़ रही थी और नीतीश कुमार को बीजेपी के संगठन का लाभ मिलता रहा है । लेकिन अब बीजेपी से अलग होने के बाद उनके सामने संगठन सबसे बड़ी चुनौती होगी ।
ऐसा नहीं है कि गठबंधन के टूटने से सिर्फ नीतीश के सामने ही मुश्किलें बढ़ी हैं – दिल्ली की गद्दी पर बैठने का ख्बाव देख रहे नरेन्द्र मोदी के लिए भी नीतीश जैसे सहयोगी के चले जाने की भारपाई करना आसान नहीं होगा । आगामी लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है । इन हालात में सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन के तौर पर उभरना बेहद जरूरी है । बीजेपी के साथ अब ले देकर शिवसेना और अकाली दल बचे हैं । शिवसेना भी मोदी को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखती है क्योंकि बाला साहब ठाकरे ने अपनी मौत के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए सुषमा स्वराज की वकालत की थी । हां अकाली दल बेहद मजबूती के साथ बीजेपी के साथ खड़ा है । लोकसभा चुनाव की तैयारियों और रणनीतियों के लिए ग्यारह महीने का वक्त बहुत कम होता है । खासकर तब जबकि देश लगभग आधे हिस्से में आपका जनाधार नहीं हो और आपके सहयोगी आपसे छिटक रहे हों । जहां एक एक सीट के लिए मारामारी मचनेवाली हो वहां इक्कीस लोकसभा सीट जीतनेवाली सहयोगी पार्टी के अलग होने से मोदी के सपनों पर ग्रहण लगने का खतरा बढ़ जाता है । ऐसे में मोदी के सामने अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की बड़ी चुनौती है । इसके अलावा मोदी को नए सहयोगियों की तलाश भी करनी होगी । अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो देश में फिर से अस्थिर सरकारों का दौर शुरू हो सकता है जो ना तो देश के हित में होगा और ना ही जनता के ।
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