कहते हैं कि बगैर काशी जाए मोक्ष नहीं मिलता है । लेकिन इन दिनों राजनीतिक मोक्ष
के लिए तमाम दलों के राजनेता काशी में डटे हुए हैं । काशी यानि बनारस में राजनीतिक
मोक्ष की तलाश में पहुंचे नेताओं ने देश की रचनात्मकता को विभाजित कर दिया है । काशी
की सियासी जंग में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी
के कूदने से हिंदी साहित्य के एक वर्ग विषेष के लेखकों को एतराज है । उनका आरोप है
कि मोदी के बनारस आने से बनारस का मिजाज बदल जाएगा । देश के कई नामचीन लेखकों ने मोदी
को हराने के लिए बनारस में कबीर के नाम तले एक मोर्चा बनाया और भाषण इत्यादि भी हुए।
इस मोर्चे में हिंदी के वरिष्ठ उपन्यासकार काशीनाथ सिंह, पूर्व पुलिस अधिकारी और लेखक
विभूतिनारायण राय के अलावा ज्यां द्रेज, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड आदि शामिल
थे । पहले यह खबर आई थी कि काशीनाथ सिंह ने कहा है कि मोदी के बनारस से जीतने के बाद
वहां के विकास में तेजी आएगी । बीबीसी में काशीनाथ सिंह के इस साक्षात्कार के बाद साहित्
जगत में भूचाल आ गया । सोशल मीडिया पर उनकी लानत मलामत होने लगी । बाद में काशीनाथ
सिंह ने सफाई दी कि उनके बयान को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है । उसके बाद काशीनाथ
सिंह लगातार सक्रिय हैं ताकि पूर्व में उनके हवाले से छपी बातों का उनके क्रियाकलापों
से प्रतिकार हो सके । हलांकि उनके विरोधियों का आरोप है कि काशीनाथ सिंह मोदी की तारीफ
कर कुछ ऐसा हासिल करना चाहते थे, पुरस्कार या सम्मान, जिससे उन्हें बड़ा कद हासिल हो
सके । काशीनाथ सिंह पर इस तरह के आरोप लगानेवालों को काशीनाथ सिंह की प्रतिबद्धता के
बारे में पता नहीं है । उधकर साहित्य में एक विशेष विचारधारा के विरोधी रहे लेखकों
ने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में बयान जारी कर उनका बनारस से उम्मीदवार होने का समर्थन
जताया है ।
ऐसा नहीं है कि यह विभाजन सिर्फ साहित्य में है । मोदी के मुद्दे पर बॉलीवुड में
भी दो खेमा हो गया है । महेश भट्ट और जावेद अक्तर सरीखे कलाकार मोदी के विरोध में हैं
तो निर्देशक मधुर भंडारकर और गायिका ऋचा शर्मा उनके समर्थन में हैं । हाल ही में दिल्ली
में एक कार्यक्रम में प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मान सिंह की अगुवाई में कलाकारों और
गायकों ने मोदी को समर्थन का एलान किया था । बनारस के प्रसिद्ध गायक छन्नू महाराज तो
मोदी के नामांकन के दौरान उनके प्रस्तावक के तौर पर वहां मौजूद ही रहे हैं । स्वस्थ
लोकतंत्र के लिए लेखकों कलाकारों और गायकों का स्वतंत्र मत रखना और उसे जाहिर करना
बेहतर स्थिति है । दिक्कत तब होती है जब कुछ खास लेखकों की तरफ से ये अभियान शुरू होता
है जिसमें दूसरे को अस्पृश्य साबित करने की तिकड़में शुरू हो जाती है । किसी भी लेखक
का जितना मोदी का विरोध करने का हक है, दूसरे लेखक को उतना ही हक मोदी के समर्थन का
है । मैं कई बार यह कह चुका हूमं कि विचार को धारा बनाना ठीक है लेकिन उसी धारा में
सबके बहने का दुराग्रह विचारधारा के लिए उचित नहीं है और कालांतर में उसके लिए ही घातक
सिद्ध होती है । यह लोकतंत्र की खूबसूरती और मैच्योरिटी का प्रतीक है कि किसी भङी व्यक्ति
या विचारधारा पर हर तरह के लोग खुलकर अपनी बात रखते हैं, विचारों को अभिव्यक्त करते
हैं । विचार की विशेष धारा में ही बहने का दुराग्रह भी तो फासीवाद ही है । हमारे देश
की जनता लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर इतनी सजग है कि वो किसी भी प्रकार के फासीवाद
का ना केवल पहचान लेती है बल्कि उसकी आहट को भी भांप लेती है । लिहाजा किसी भी प्रकार
की फासीवादी चालाकी पनप नहीं पाती है ।
No comments:
Post a Comment