लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में राहुल गांधी को हार की जिम्मेदारी
से बाचने की कवायद तेज हो गई है । हार के कारणों के लिए कमेटी गठित करने से लेकर मनमोहन
सिंह पर ठीकरा फोड़ने की तैयारियों के संकेत नेताओं के बयान से मिलने लगे हैं । चुनाव
के दौरान ही पार्टी के दिग्गज नेता लगातार सार्वजनिक रूप से इस बात को स्वीकारने लगे
रहे थे कि सरकार की उपलब्धियों को जनता तक नहीं पहुंचा पाना भूल थी । यह विचित्र बात
है कि कोई भी पार्टी चुनाव के बीच अपनी गलतियों को ठीक करने के बजाए उसको स्वीकार करने
लगे । हम इन स्वीकारोक्तियों और लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक हार को सूक्ष्मता से परखने
की कोशिश करें तो राजनीति की एक अलहदा तस्वीर नजर आती है । वह तस्वीर है के कांग्रेस
अध्यक्ष सोनिया गांधी के दफ्तर और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दफ्तर के बीच
अपने आपको असर्ट करने की जंग । सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बीच किसी भी तरह का
कोई मतभेद नहीं है बल्कि भारतीय राजनीति में दोनों एक दूसरे के पूरक के तौर पर काम
करते हुए कांग्रेस को मजबूत कर रहे हैं । समस्या की शुरुआत होती है दो हजार नौ के लोकसभा
चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद । कांग्रेस की उस जीत का सेहरा राहुल गांधी के सर
बांधा गया था । लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में पार्टी की बेहतरीन सफलता का श्रेय
भी राहुल गांधी को ही दिया गया था । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद ही
सोनिया गांधी ने तय किया था कि पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप दी जाए । सोनिया
की इस इच्छा और उसके कार्यान्व्यन की उनकी चाहत के बाद राहुल गांधी के दफ्तर में काम
करनेवाले उनके सिपहसालारों की महात्वाकांक्षा हिलोरें लेने लगी । अब यहीं से कांग्रेस
के दो दफ्तरों का टकराव शुरू होता है । एक सत्ता केंद्र कांग्रेस अध्यक्ष का दफ्तर
था ही जिसे सीपी ऑफिस के नाम से जाना जाता है दूसरा सत्ता केंद्र भी उभरा जिसे आरजी
ऑफिस कहा जाने लगा । सोनिया गांधी ने जब राहुल गांधी को कमान दी तो कांग्रेस उपाध्यक्ष
के दफ्तर के लोगों ने असर्ट करना शुरू कर दिया । उनके सामने सीपी ऑफिस की हनक का मानक
था । सोनिया के साथ और उनके दफ्तर में पार्टी के पुराने लोग थे जो पारंपरिक तरीके से
राजनीति करते थे वहीं राहुल के दफ्तर के लोग बिल्कुल नए और आधुनिक तरीके की पॉवर प्वाइंट
राजनीति करनेवाले थे । जाहिर सी बात है टकराव तो होना ही था। वही हुआ । असर्ट करने
के क्रास फायर में पार्टी फंस गई ।
अब अगर हम थोडा़ पीछे जाएं तो आरजी ऑफिस के लोगों ने दो हजार दस में हुए बिहार
विधानसभा चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया और वहां के सारे फैसले लेने लेगे
। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरजी ऑफिस के फैसलों में कांग्रेस प्रेसिंडेट ऑफिस
को शामिल नहीं किया गया और स्वतंत्र रूप से फैसले होते चले गए । सोनिया के साथ काम
करनेवाले पुराने पीढ़ी के नेताओं की जब पूछ घटी तो वो लोग साइलेंट मोड में चले गए ।
यह वही दौर था जब कांग्रेस पार्टी ने लालू यादव से नाता तोड़ा था और अकेले दम पर बिहार
में चुनाव लड़ने का फैसला किया था । आरजी ऑफिस का दावा था कि इससे पार्टी अपने बूते
पर बिहार में खड़ी हो पाएगी । हुआ इसका उल्टा । जब नतीजे आए तो कांग्रेस को पिछले चुनाव से भी सीटें
मिलीं । लालू यादव जैसा मजबूत सहयोगी भी खो दिया । बिहार की हार से भी आरजी ऑफिस के
लोगों ने सबक नहीं लिया उनकी ख्वाहिश सिर्फ ये थी कि सीपी यानि कांग्रेस प्रेसिंडेंट
ऑफिस जैसी हनक उनके ऑफिस को भी मिले, चाहे वो सरकार हो या पार्टी। इसी हनक की चाहत
में आरजी ऑफिस में तैनात लोगों ने अपने आप तो असर्ट करना जारी रखा । इस बीच आरजी ऑफिस
में झोला झाप एनजीओ के लोगों का बोलबाला हो गया । उनके विचारों को तरजीह मिलने लगी
। आरजी ऑफिस से जारी बयानों और राहुल के भाषणों में झोला छाप नीतियों का प्रभाव साफ
तौर पर दिखने लगा था । बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और सरकार के सामने सबसे
बड़ी चुनौती अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के रूप में आई । अन्ना आंदोलन से निबटने
में सरकार और कांग्रेस शुरुआत से ही गलतियां करती चली गई । पहले आंदोलन के दबाव में
ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर दिया गया । सरकार और कांग्रेस के लोग इस बात को नहीं भांप
पाए कि कमेटी के गठन से आंदोलन मजबूत हुआ । कमेटी की बैठकों से कुछ हासिल नहीं होने
से आंदोलनकारियों को सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करने का मौका मिला । यह वही दौर था
जब सोनिया गांधी बीमार थी और विदेश में इलाज करवा रही थी । पार्टी चलाने के लिए कुछ
लोगों की कमेटी अवश्य बनी थी पर कांग्रेस पर आरजी ऑफिस पूरी तरह से हावी था । सारे
फैसले सोनिया के निवास यानि दस जनपथ की बजाए राहुल के घर यानि बारह तुगलक लेन से होने
लगे । इस प्रक्रिया में चाहे अनचाहे सोनिया गांधी की टीम के लोग दरकिनार होते चले गए
। आंदोलन से निबटने की कांग्रेस की रणनीति का हश्र सबके सामने है । इस आंदोलन के दौरान
पार्टी की किरकिरी से प्रणब मुखर्जी जैसे नेता भी खिन्न हो गए थे । सरकार और पार्टी
के आकलन में हुई गलती का बेहतरीन नमूना था जब सरकार के नंबर दो के मंत्री प्रणब मुखर्जी
बाबा रामदेव को रिसीव करने एयरपोर्ट चले गए । अन्ना आंदोलन के बाद एक बार फिर से आरजी
ऑफिस ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को अपनी हनक स्थापित करने का मौका समझा । पूरा
चुनाव राहुल गांधी और ब्लैकबेरी और आईपैड से लैस उनकी टीम की अगुवाई और देखरेख में
चला । टिकट बंटवारे से लेकर प्रभारियों की नियुक्ति आरजी ऑफिस से हुई । खुद राहुल गांधी
ने पूरे सूबे में ताबड़तोल रैलियां की । एक बार फिर वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी । उत्तर
प्रदेश चुनाव के दौरान प्रणब मुखर्जी की लगभग डेढ दर्जन रैलियां लगी थी लेकिन अचानक
एक दिन सारी रैलियां रद्द कर दी गई । नतीजा एक बार फिर सिफर । उत्तर प्रदेश में पार्टी
का सूपड़ा साफ । कहीं ना कहीं तो रणनीति में कोई चूक रही होगी ।
कांग्रेस अध्यक्ष ऑफिस
से ज्यादा हनक साबित करने की आरजी ऑफिस के कारकुनों के फैसलों के बीच प्रधानमंत्री
कार्यालय में एक तीसरा गुट काम कर रहा था जिसे पीएमओ और योजना आयोग का आशीर्वाद प्राप्त
था । सरकार के राहुल गांधी ऑफिस की बढ़ती चाहत और वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने के
उनके फैसले के बाद पीएमओ भी सान्नूं की यानि हमें क्या वाले मोड में चला गया । खास
करके दागी नेताओं वाले अध्यादेश को फाड़ कर डस्टबिन में डाल देनेवाले राहुल के सार्वजनिक
बयान के बाद । लोकसभा चुनाव में भी पहले दो चरणों तक तो आरजी ऑफिस हावी रहा लेकिन जब
उस ऑफिस में प्रियंका गांधी पहुंची तो फिर सबको साथ लेकर चलने की कवायद शुरू हुई लेकिन
तबतक काफी देर हो चुकी थी ।
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