हिंदी साहित्य जगत पर रचनात्मकता के संकट
की बहुत बातें होती रहती हैं । नब्बे के दशक में राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस
के माध्यम से लेखन पर महसूस किए जा रहे इस संकट पर लंबी बहस चलाई थी । हंस में चलाई
गई उस बहस से कुछ हासिल हुआ हो या नहीं लेकिन कुछ लेखकों ने नहीं लिख पाने पर अपनी
सफाई पेश कर दी थी । दरअसल हिंदी में लेखऩ पर संकट से ज्यादा जरूरी बहस होनी चाहिए
कि कविता, कहानी, उपन्यास के अलावा अन्य विषयों पर हिंदी में संजीदगी से कोई कृति क्यों
नहीं रची जा रही है । आज अगर हम हिंदी साहित्य के इतिहास और वर्तमान पर नजर डालें तो
वहां साइंस फिक्शन, संगीत, कला, खेल,गीत, भारतीय संगीत, हेत्थ फिक्शन आदि पर बेहद कम
किताबें नजर आती हैं । हिंदी के कउच लेखकों ने अवश्य इन विषयों पर विषयों पर मुकम्मल
किताब लिखने का साहस दिखाया लेकिन उनकी संख्या इतनी कम है कि वो एक विधा के तौर पर
हिंदी में स्थापित नहीं हो सकी । फिल्मों को लेकर हिंदी साहित्य के इतिहास में एक खास
किस्म की उदासीनता दिखाई देती है । भारतीय फिल्म जगत में एक से बढ़कर एक कलाकार हुए,
एक से बढ़कर एक संगीतकार हुए, एक से बढ़कर एक गीतकार हुए और लता मंगेशकर से लेकर मुहम्मद
रफी जैसे गायक हुए । फिल्मों से जुड़े इन महान शख्सियतों पर हिंदी में इतनी कम सामग्री
उपलब्ध है कि एक आलोचक ने सही टिप्पणी की थी कि फिल्मों के मुतल्लिक हिंदी में एक खास
किस्म का सन्नाटा नजर आता है । फि्लमी दुनिया से कलाकारों के व्यक्तित्व, उनके संघर्ष
और उनके योगदान को परखते हुए किताबों की भारी कमी है । जो है भी वो बेहद चालू किस्म
की सुनी सुनाई बातों पर लिखी गई हैं । कुछ किताबें अवश्य छपकर सामने आई लेकिन ज्यादातर
तो विभिन्न पत्र पत्रिकाओॆं में छपे लेखों के संग्रह ही हैं । मुझे लगता है कि हिंदी
में प्रगतिशीलता के जोर और साहित्य पर वामपंथियों का कब्जा इस सन्नाटे के लिए जिम्मेदार
है । प्रगतिशील समुदाय फिल्म, गीत-संगीत, नृत्य आदि को उल्लास, वैभव, हर्ष का प्रतीक
मानता रहा है । वामपंथी विचारधारा इसको सर्वहारा के खिलाफ और अभिजात्य वर्ग का पोषक
मानते रहे हैं । जब विचारधारा ही खिलाफ हो तो उसकी सुबह शामआरती उतारनेवाले अनुयायी
तो उस दिशा में झांकने भी नहीं जाएंगें । उनके लिए तो कुमार गंधर्व और बिस्मिल्लाह
खान पर लिखना भी गुनाह था, अमिताभ और ओमपुरी तक तो इनकी सोच ही नहीं पहुंच पाई । ज्ञानपीठ
के एक कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन को बुलाने पर बेवजह का विवाद खड़ा करने की कोशिश
की गई थी। लिहाजा लंबे समय तक वामपंथ के प्रभाव में रहा हिंदी का साहित्य समाज इन विषयों
को अछूत मानता रहा । जिसने लिखने की कोशिश की उनपर वामपंथी लेखकों ने जमकर हमले किए
और उन्हें साहित्य से खारिज करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । नतीजा यह हुआ कि हिंदी
लेखन इन विषयों में पिछड़ता चला गया । गाहे बगाहे कोई गंभीर किताब इन विषयों पर आती
रहती है । जैसे दो हजार छह में पंकज राग ने –धुनों की यात्रा-
लिखी । धुनों की यात्रा हिंदी फिल्म के संगीतकारों पर पर केंद्रित अहम किताब है जिसमें
1931 से लेकर 2005 तक के संगीतकारों की सृजनात्मकता को सामने लाया गया है । कुछ किताबें
मधुप शर्मा ने भी लिखी हैं । संभव है कि कुछ और गंभीर किताबें प्रकाशित हुई हों लेकिन
हिंदी साहित्य में फिल्म और उससे जुड़े लेखन को साहित्य की मुख्यधारा में अब तक जगह
नहीं मिल पाई है और ना ही लेखक को प्रतिष्ठा । इसके अलावा हिंदी के युवा रचनाकारों
में यतीन्द्र मिश्र गंभीरता से संगीत और संगीतकारों पर काम कर रहे हैं ।यतीन्द्र मिश्र
ने श्रम पूर्वक गुलजार की रचनात्मकता को हिंदी में एक नए सिरे से परिभाषित करते हुए
पेश किया है । इसके अलावा यतीन्द्र मिश्र ने गिरिजा देवी, सोनल मानसिंह और बिस्मिल्लाह
खान पर मुक्कमल किताब लिखी जिसकी हिंदी साहित्य में उतनी चर्चा नहीं हो पाई नतीजे में
लेखक को वो यश नहीं मिल पाया जिसके वो हकदार थे । इसके अलावा यतीन्द्र फिल्मों पर भी
गंभीरता से काम कर रहे हैं लेकिन यतीन्द्र मिश्र मूलत: कवि हैं जो अपनी कविता में भी तरह तरह के प्रयोग करते रहते हैं ।
अभी हाल ही में यतीन्द्र
मिश्र का ना कविता संग्रह विभास आया है । यह कविता संग्रह कबीर की कविताओं और उनके
शब्दों को नए युग के मुताबिक परिभाषित करने की कोशिश है । लेखक के मुताबिक – यह कविताएं एक हद तक कबीप की वाणी को समकालीन अर्थों में नए सिरे से खोजने और
अभिव्यक्ति के लिए एक नया बेहद रतने की कोशिश में लिखी गई है । अठासी पन्नों की इस
किताब में कुछ पचास कविताएं संकलित हैं । इस किताब की विशेषता यह है कि कबीर और कविता
के पांच विशेषज्ञों की छोटी छोटी टिप्पणी के आधार पर पांच खंड बनाए गए हैं । यतीन्द्र
ने अपनी इस किताब में कबीर के शब्दों और मुहावरों को आधुनिक संदर्भों में पेश किया
है । इस संग्रह में एक कविता है – बाजार में खड़े होकर ।
इसमें कवि ने कबीरा खड़ा बजार के शब्दों से एक नया मुहावरा गढ़ा है । कवि कहता है – कभी बाजार में खड़े होकर /बाजार के खिलाफ देखो/उन चीजों के खिलाफ/जिन्हें पाने के लिए आए हो इस तरफ/जरूरतों की गठरी कंधे से उतारकर देखो/कोने में खड़े होकर
नकली चमक से सजा/तमाशा-ए-असबाब देखों । यहां कवि सीधे
सीधे बाजारवाद पर हमला करता है और तंज करते हुए बाजार के खिलाफ खड़े होने की चुनौती
भी देता है । इन कविताओं में कबीरियत साफ तौर पर देखी जा सकती है । इसी तरह से अगर
इस संग्रह की अन्य कविताओं को भी देखें तो हमें कबीर के लेखन और फक्कडपन का आस्वादन
होता है । कुछ कविताएं बेहद गूढ़ और गद्य की तरह लिखी गई हैं लेकिन कविता के सारे गुणों
से लैस । जैसे भला हुआ मोरी गगरी फूटी या शामिलबाजे के विरुद्ध । कुल मिलाकर यह कह
सकते हैं कि यतीन्द्र मिश्र का यह संग्रह हिंदी में कविताओं की बाढ़ के बीच चट्टान
की तरह सर उठाकर खड़ा है और आलोचकों को उसे व्याख्यायित करने की चुनौती दे रहा है ।
यतीन्द्र की इन कविताओं के बारे में चित्रकार मनीष पुष्कले की टिप्पणी बेहद सटीक है
– इन कविताओं में कबीर मात्र विषय नहीं हैं, यतीन्द्र यहां बेहद रोचकता से अपनी
भाषा की ऐसी माटी गढ़ पाते हैं जिसमें कबीर की कबीरियत और यतीन्द्र की काबिलियत स्वत: प्रगट होती है । लिंडा हेस की टिप्पणी भी गौर करने लायक है- बानी कबीर का सूत था
जिससे वो दुनिया बुनते थे । मैं सिर्फ इसमें यह जोड़ना चाहता हूं कि उसी वाणी से यतीन्द्र
ने कविताएं बुन दी हैं ।
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