लोकसभा चुनाव के बाद देश में नए जनादेश के
मुताबिक भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे
। इस जनादेश ने सिर्फ देश की सियासी तस्वीर बदलेगी बल्कि इसका असर साहित्य और संस्कृति
पर भी पड़ना तय है । भारतीय जनता पार्टी की इस जीत तक हमारे देश में कमोबेश सभी साहित्यक
और सांस्कृतिक संस्थाओं पर वामपंथी सोच और विचार वाले लेखकों, साहित्यकारों और विश्वविद्यालय
शिक्षकों का कब्जा है । सरकारी पैसे से चलनेवाली इन संस्थाओं में स्वायत्ता के नाम
पर उन्हीं का एजेंडा चलता रहा है । देश में बदले सियासी हालात में इन संस्थाओं के सत्ता
समीकरण पर भी असर पड़ेगा ही। वामपंथी दलों और कांग्रेस से उनकी वफादारी का सुख भोगनेवाले
लोग जो इन संस्थाओं में लंबे समय से कायम हैं उनके माथे पर लोकसभा चुनाव नतीजों के
बाद से शिकन है । अगर हम देश की इन साहित्यक संस्थाओं के इतिहास पर नजर डालते हैं तो
सबसे पहले साहित्य अकादमी पर नजर जाती है । उन्नीस सौ चौवन में जब साहित्य अकादमी का
गठन किया गया था तो जवाहर लाल नेहरू उसके पहले अध्यक्ष बनाए गए थे । नेहरू को एक लेखक
के तौर पर अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया था प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं । यह वह दौर
था जब हमारे देश के राजनेता पढते लिखते थे । कालांतर में साहित्य अकादमी एरक खास विचारधारा
के लोगों के हाथों में चली गई । जब इमरजेंसी में प्रगतिशील लेखक संघ ने इंदिरा गांधी
का समर्थन कर दिया तो उसके बाद तो कांग्रेस ने इस तरह के संस्थाओं को वामपंथी बुद्धिजीवियों
के हवाले कर दिया । सत्तर और अस्सी के दशक में इन वामपंथियों ने योजनाबद्ध तरीके से
इन संस्थाओं पर कब्जा किया और अपने समर्थकों को आगे बढ़ना शुरू कर दिया । विरोधियों
को चुनचुन कर इस तरह के संस्थाओं से निकालना शुरू किया । अभी अभी साहित्य अकादमी ने
अपने साठसाल पूरे होने के मौके पर डी एस राव के संपादन में एक कॉफी टेबल बुक का प्रकाशन
किया है । प्रोडक्शन के लिहास से इस शानदार किताब में साहित्य अकादमी के उद्देश्यों
और बाद के दिनों में उसके क्रियाकलापों के बारे में कई दिलचस्प टिप्पणियां हैं । इस
किताब को शुरू से लेकर अंत तक पलटने और पढ़ने के बाद यह बात साफ हो जाती है कि साहित्य
अकादमी का स्तर कैसे उत्तरोत्तर गिरता गया ।
वामपंथी साहित्यकारों और कथित विचारकों में
एक और दुर्गुण यह भी है कि वो दूसरी विचारधारा की आवाज को दबाने के लिए किसी भी हदतक
जा सकते हैं । विश्वविद्यालयों में पीएचडी देने से लेकर नौकरी तक में ये खेल खुलकर
खेला जाता है । मैं बहुधा इसे वामपंथी फासीवाद कहता हूं । इस तरह की फासीवादी विचारधारा
के पोषकों को दिल्ली दरबार में सत्ता परिवर्तन से फर्क पड़ सकता है । वाराणसी के चुनाव
में धुर मोदी विरोधी तीस्ता शीतलवाड़ के नेतृत्व में या कह सकते हैं उनके साथ कंधे
से कंधा मिलाकर इन धुर वामपंथियों ने अपने इरादे तो साफ कर ही दिए थे । करीब दो दर्जन
साहित्यकारों ने मोदी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया और इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश
की कि मोदी के आने से लेखकों और बुद्धिजीवियों पर खतरा बढ़ जाएगा । यह हताशा और निराशा
अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए नहीं बर्ना अपनी मलाईदार कुर्सियां और साहित्य
अकादमी जैसी संस्थाओं से लाभ लेने के खत्म होने के डर से उपजा था । वाल्टेयर ने एक
बार कहा था कि वो हजारों चूहों के कुतरे जाने से खत्म होने की बजाए एक शेर के निगल
जाने से खत्म होने को पसंद करेंगे ।
1 comment:
बादशाहत बचाने की बेचैनी" है प्रश्न है क्या बेचैनी होनी भी चाहिए. दिल्ली विश्वविद्यालय में रामानुजन की 300 सौ रामायण पुस्तक को क्यों हटा दिया गया. क्या इस पर विचार नहीं होना चाहिए.
दूसरी बात यह है कि सच की जीत होनी चाहिए, चाहे वह किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, व्यक्ति विशेष से सम्बन्ध क्यों ही क्यों न हो. अपनी बात को मनवाने के लिए 'तानाशाही' और खाखला राष्ट्रवादी बनने की जरुरत नहीं होनी चाहिए. धर्म ऐसी चीज बन गयी है कि लोग एक दुसरे को मारने और मरने पर उतारू हो जाते हैं. जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. हमें किसी का भी मूल्यांकन विज्ञानिक आधार पर करना चाहिए.
विश्व में जितने भी 'तानाशाही' और खाखला राष्ट्रवादी शक्तियां बनी है, उन्होंने देश को बर्वाद ही किया. चाहे वह -हिटलर हो, मुसोलिनी या सद्दाम हुसैन. देश में राष्ट्रवाद जरुरी है, लेकिन समाजवाद से, लोगों में प्यार उत्पन कर के न की तोड़ के.
मेरा मानना है धर्म लोगों को जोड़ता है तोड़ता नहीं है.
लोगों ने बीजेपी को पूर्ण बहुमत दिया है, अब देखना यह है की क्या यह लोगों को पूर्ण बहुमत देती है.
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