केंद्रीय गृह मंत्रालय के हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा
देने का विरोध शुरू हो गया है । गृह मंत्रालय ने सोशल मीडिया पर हिंदी के उपयोग को
बढ़ावा देने की पहल और कोशिश शुरू की है । गृह मंत्रालय ने अपने आदेश में कहा है कि
सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों के ट्विटर, फेसबुक और अन्य जगहों पर बनाए गए
आधिकारिक खातों में राजभाषा हिंदी को नजरअंदाज करके केवल अंग्रेजी का ही प्रयोग किया
जा रहा है । गृह मंत्रालय के मुताबिक सभी विभागों को इन आधिकारिक खातों में हिंदी अथवा
अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में प्रयोग किया जाना चाहिए जिसमें हिंदी को पहले रखा
जाने का आदेश है । इस आदेश के खबर बनते ही लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद तमिलनाडू
में सियासी जमीन की तलाश में जुटे डीएमके के नेता करुणानिधि को इसमें संभावना नजर आई
। उन्होंने फौरन गृह मंत्रालय के हिंदी को बढ़ावा देने के निर्देश के फैसले का विरोध
करते हुए बयान जारी कर दिया। करुणानिधि ने कहा कि हिंदी को प्राथमिकता दिए जाने को
गैर-हिंदी भाषी लोगों के साथ भेदभाव करने और उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक मानने के
प्रयास की दिशा में पहला कदम समझा जाएगा । डीएमके नेता करुणानिधि का यह बयान ना केवल
हास्यास्पद है बल्कि पूरे तरीके से राजनीति से प्रेरित है । दोनों बेटों के बीच जारी
कलह, टेलीकॉम घोटाले में बेटी और पत्नी के आरोपी होने और सबसे बड़ी बात लोकसभा चुनाव
में पूरे राज्य से सूपड़ा साफ होने के बाद करुणानिधि के पास कोई मुद्दा बचा नहीं है
और वो हाशिए पर चले गए हैं । इस स्थिति में वो एक बार फिर से हिंदी विरोध का राग अलापकर
तमिलनाडू के लोगों की भावनाएं भड़काकर अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में हैं । हिंदी
का एक कहावत है, शायद करुणानिधि को पता ना हो, काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती । साठ
के दशक में हिंदी की हांडी को राजनीति के चूल्हे पर चढ़ाकर करुणानिधि और उनकी पार्टी
ने लंबे समय तक तमिलनाडू पर राज किया । साठ के दशक का वह वक्त कुछ और था और पांच दशक
बाद का वक्त अब कुछ और है । देश की, देशवासियों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं । अब वो
भाषा के नाम पर मरने मारने के लिए उतारू होनेवाले नहीं हैं । इसके अलावा भाषा के नाम
पर राजनीति चमकाने की नेताओं की चाल भी जनता की समझ में आ चुकी है, लिहाजा हिंदी विरोध
की हांडी से इस बार सत्ता निकलने वाली नहीं है । करुणानिधि का सवाल है कि संविधान की
आठवीं अनुसूचि में शामिल सभी भाषाओं में से हिंदी को ही प्राथमिकता देने का एलान क्यों
किया गया है । उन्होंने संचार के लिए हिंदी में रुचि दिखाने के केंद्र के फैसले को
भटकावपूर्ण कदम करार दिया है । करुणानिधि स्वयं अच्छे लेखक रहे हैं लेकिन उनका यह तर्क
कि संचार के माध्यम के लिए भाषा विशेष को तवज्जो देना भटकाव है, गले नहीं उतरता है
। हिंदी को तमाम विरोध और संघर्षों के बाद राजभाषा का दर्जा हासिल हुआ था । अब अगर
राजभाषा में सरकारी कामकाज के प्रचार प्रसार को बढ़ावा देने पर अमल शुरू करने की पहल
हो रही है तो यह भटकाव कैसे है । करुणानिधि के बयान के बाद जयललिता ने भी विरोध जताने
की रस्म अदायगी कर दी है ।
दरअसल अगर हम इतिहास पर एक नजर डालें तो डीएमके की बुनियाद
ही भारत विरोध रहा है । मद्रास प्रेसिडेंसी में तमाम दलों ने साथ आकर डीएमके की स्थापना
की थी । उसके अगुवा रहे सी एम अन्नादुरैई ने जोर शोर से अलग तमिल देश की मांग उठाई
थी और कहा था कि तमिल राज्य के बनने के बाद ही तमिल अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल कर सकते
हैं । डीएमके के अलगाववावदी रुख की वजह से इस पार्टी के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा
दी गई थी । इसकी वजह संविधान का अनुच्छेद उन्नीस था जो किसी भी तरह के अलगाववादी दल
को चुनाव लड़ने से रोकता था । 1962 में चीन के आक्रमण के दौरान डीएमके के नेताओं ने
जेल से ही चीनी हमले का विरोध किया था । उसके बाद नेहरू के रुख में बदलाव आया और उन्होंने
आर्टिकल उन्नीस में संशोधन करवा दिया ताकि डीएमके चुनाव लड़ सके । यह ठीक है कि बाद
के वर्षों में डीएमके का अलगाववादी रुख उस तरह से मुखर नहीं हुआ । लेकिन जनवरी उन्नीस
सौ पैंसठ में एक बार फिर से हिंदी के विरोध में तमिलनाडू में जबरदस्त हिंसा शुरू हो
गई थी । तमिलनाडू के लोगों को लगता था कि हिंदी को बढ़ावा देने से तमिलों का हक छिन
जाएगा । जबकि ऐसा था नहीं । उस वक्त की सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने बगैर
प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को बताए तमिलनाडू जाकर भाषाई हिंसक आंदोलन को बातचीत
से सुलझाया था । इंदिरा गांधी की पहल का दाद दी गई थी । हलांकि लालबहादुर शास्त्री
को इंदिरा गांधी का यह कदम अच्छा नहीं लगा था । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी
बाद में चर्चा होगी । इस पूरे प्रसंग को बतलाने का मतलब यह है कि हिंदी को बढ़ावा देने
से अन्य भाषाओं पर कोई खतरा नहीं है, यह बात अन्य भाषा के लोगों को समझानी होगी । अन्य
भारतीय भाषाओं के लोगों से संवाद कायम करना होगा नहीं तो करुणानिधि जैसे लोग भाषा की
भावना भड़का कर राजनीति की रोटी सेंकने में कामयाब होते रहेंगे ।
महात्मा गांधी ने यह बात आजादी के पहले ही साफ कर दी थी कि हिंदी के प्रचार प्रसार
से किसीभी अन्य प्रांतीय भाषा को कोई खतरा नहीं उत्पन्न होगा । 20 अप्रैल 1935 को हिंदी
साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन में इंदौर में गांधी जी ने कहा था – ‘मैं हमेशा यह मानता रहा हूं कि किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को मिटाना नहीं
चाहते । हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए
हम हिंदी सीखें । ऐसा कहने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता ।
हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं । वह राष्ट्रीय होने के लायक है । वही भाषा राष्ट्रीय
बन सकती है जिसे अधिक-संख्यक लोग जानते बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो । ऐसी भाषा
हिंदी ही है ।‘ हिंदी के प्रति गांधी का प्रेम सर्वविदित है लेकिन
वो हिंदी के साथ साथ सभी भारतीय भाषाओं की प्रगति के भी सबसे बड़े पैरोकार थे । नौ
जुलाई उन्नीस सौ अड़तीस के हरिजन सेवक में गांधी जी ने लिखा- शिक्षा का माध्यम तो एकदम
और हर हालत में बदलना चाहिए और इन्य प्रान्तीय भाषाओॆ को उसका वाजिब स्थान मिलना चाहिए
। इसके अलावा संविधान सभा में पुरुषोत्तमदास टंडन ने कहा था कि –‘ मैं नहीं चाहता कि हिंदी को अनिच्छुक लोगों पर लादा
जाए , यदि आप यह समझते हैं कि जिन लोगों का आप प्रतिनिधित्व करते हैं, वे इसे स्वीकार
नहीं करेंगे, तो मैं माननीय सदस्यों से कहूंगा कि वो इस विधान के पक्ष में मत ना दें
।‘ हिंदी के लोगों की अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमेशा
से सोच रही है । कुछ निहित स्वार्थ के लोगों ने हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के दुश्मन
के तौर पर पेश कर प्रचारित कर दिया । यहां एक और उदाहरण देना सही होगा । सरकारी भाषा
आयोग की एक बैठक में भाषा के सवाल पर सदस्यों के बीच तीखी बहस हो रही थी । उस बहस में
हस्तक्षेप करते हुए बालकृष्ण शर्मा नवीन ने कहा था कि – यदि हिंदी देश की एकता में रोड़ा बनती है तो मैं इसे
गहरे सागर में डुबो दूंगा । हिंदी के नुमाइंदों की इस तरह की प्रतिक्रियाएं यह साफ
करती हैं कि वो हिंदी को सर्वग्राह्य बनाना चाहते थे । हिंदी को अन्य भारतीय भाषा पर
थोपना नहीं चाहते थे, अब भी नहीं चाहते हैं । यह बात गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी साफ
कर दी । राजनाथ सिंह ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएं अहम हैं और उनका मंत्रालय सभी भारतीय
भाषाओं के विकास और प्रचार के लिए प्रतिबद्ध है । यह प्रतिबद्धता जरूरी भी है क्योंकि
अन्य भाषाओं के सहयोग को लेकर ही हिंदी को बढ़ाया जा सकता है । अन्य भारतीय भाषा के लोगों को भी समझना होगा कि
उनकी भाषा के फैलाव के लिए भी हिंदी का होना आवश्यक है । एक छोटे से उदाहरण से इसको
समझा जा सकता है । अगर किसी अन्य भारतीय भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करवाना हो तो
पहले उसके हिंदी अनुवाद की जरूरत पड़ती है । क्योंकि हिंदी को छोड़कर ऐसे अनुवादक कम
हैं जो भारतीय भाषाओं में ही अुनवाद कर सकें । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सहोदर
भाषा के तौर पर काम करना होगा ताकि दोनों एक दूसरे के साथ चलकर अपनी अपनी मंजिल पा
सकें । करुणानिधि जैसे लोगों राजनीति को पहचानकर तमिल भाषियों को ही उनके मंसूबों को
असफल करना होगा ।
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