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Sunday, March 22, 2015

गद्य की गद्दी पर कविता

हिंदी समाज से या यों कहें कि हिंदी प्रदेशों से कॉफी हाउस संस्कृति के लगभग खत्म हो जाने से साहित्य विमर्शों के लिए जगह बची नहीं थी । राजेन्द्र यादव के निधन से तो हिंदी साहित्य की जीवंतता भी लगभग खत्म हो गई । फिलहाल कोई ऐसा साहित्यकार नहीं दिखता है जो अपने लेखन से या फिर अपने वक्तव्यों से आसमान की तरफ कोई पत्थर तबीयत से उछाल सके । लिहाजा साहित्य में वैचारिक उष्मा होने के बाद उसकी आंच महसूस नहीं की जा रही है। इसी स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि हिंदी साहित्य ने तकनीक के साथ दोस्ती कर ली है ।फेसबुक पर तो साहित्यक बहसें होती ही हैं लेकिन वहां कमेंट करने की अराजकता ने लेखकों को व्हाट्सएप कीओर मोड़ दिया । इन दिनों व्हाट्सएप पर मेरे जानते कई साहित्यक ग्रुप चल रहे हैं जहां जमकर विषय विशेष पर बहसें होती हैं । ऐसे ही एक साहित्यक ग्रुप रचनाकार में कविता को लेकर गर्मागर्म बहस हुई । कविता की कम होती लोकप्रियता या खराब कविता की बहुतायत में अच्छी कविताओं के ढंक जाने जाने के मेरे तर्क पर वहां मौजूद कवियों ने जोरदार प्रतिवाद किया । इस विमर्श के बीच एक और बात उभर कर आई कि नई पीढ़ी के कवियों पर पुरानी पीढ़ी के कवियों का प्रभाव दिखाई देता है । कविता पर प्रभाव की बात तो मानी जा सकती है, होनी भी चाहिए लेकिन जब कविता खुद को दुहराने लगती है तो फिर वो निस्तेज भी होने लगती है । पूर्ववर्ती कवियों के प्रभाव से ही तो कविता की एक परंपरा का निर्माण होता है । जैसे रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति के स्वर दिखाई देते हैं तो दशकों बाद वही स्वर संजय कुंदन की कविताओं में भी सुनाई पड़ते हैं । स्वर का होना उस परंपरा को आगे बढ़ाने जैसा है लेकिन उन्हीं बिंबों और उन्हीं शब्दों से कविता गढ़ना पुरानी पीढ़ी के कवि का प्रभाव तो कतई नहीं माना जा सकता है । इस तरह के प्रभाव के लिए अभी हिंदी साहित्य को शब्द तलाशना होगा ।  नयी कविता वाद मुक्त होकर साहित्य में आई, प्रगतिवाद तो मार्क्सवाद की पीठ पर सवार होकर अपनी यात्रा पर निकली और प्रयोगवादी कविताएं वैज्ञानिक चेतना के आधार पर सामने आने का दावा करती रहीं । पहले कविता समग्रता में नयेपन के साथ सामने आती रही लेकिन अब जिस प्रकार से कविता बदल रही है वो पहले के जैसा नहीं है । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि नयेपन की जो अवधारणा या प्रस्तावना महावीर प्रसाद द्विवेदी ने की थी उसके अंजाम तक पहुंचने का वक्त आ गया है ।

अब वक्त आ गया है कि हिंदी के कवियों को स्थिर होकर सोचना चाहिए कि वो क्या और कैसा लिख रहे हैं । मेरा यह दुराग्रह नहीं है कि कविता किसी वाद या चेतना के प्रभाव में ही लिखी जाए, ना ही यह कि परंपरा का निषेध हो । मेरा सिर्फ मानना यह है कि फैशन या मैनेरिज्म का जो रोग हिंदी कविता को लगा है उसका इलाज होना चाहिए । ये इलाज कोई आलोचक नहीं करेगा ये इलाज कवियों को ही करना होगा अंत में शायर आलोक श्रीवास्तव कीकुछ पंक्तियां-मुझ जैसे कविता प्रेमी को वो नई कविता पढ़वाएं जिसका पथ निराला, नागार्जुन और शलभ श्रीराम सिंह जैसे दिग्गज बना, दिखा गए थे और जो सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय और कुंवर नारायण या केदारनाथ सिंह के यहां दिखती, मिलती है । विचार की आड़ में, विमर्श के पर्दे में, सरोकार के खेल में गद्य की भाषा में नई कविता के नाम पर बाबा और निराला की आत्मा ना दुखाइए । नई कविता के नाम पर शॉर्टकट ना अपनाइए और बड़े कवियों की छायाओं से प्रेरित कविताएं बिल्कुल ना सुनाइए । पहले नई कविता का व्याकरण सीख कर आइए । 

2 comments:

Suresh Tripathi said...

Wah.. bahut khoob.. bahut sateek tippani.. dharaprawah bhasha me..
Anant ji main bhsle hi aapse ab tak mila bahi hun par hamari baat mobile par ekaadh bar hui hai.. is bar dilli aaunga to milne ki koshish jarur karunga..
Congratulations n keep it up..

Suresh Tripathi said...

Wah.. bahut khoob.. bahut sateek tippani.. dharaprawah bhasha me..
Anant ji main bhsle hi aapse ab tak mila bahi hun par hamari baat mobile par ekaadh bar hui hai.. is bar dilli aaunga to milne ki koshish jarur karunga..
Congratulations n keep it up..