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Sunday, July 5, 2015

संगीत कला की दुर्दशा क्यों ?

हमारे यहां लंबे समय से कहा जाता है कि कलाएं सरकारी संरक्षण में ही फलती फूलती और विस्तार पाती है । हमारे देश में इसका एक लंबा इतिहास भी रहा है । कलाओं को राजा- रजवाड़ों ने ने खूब सहेजा । राजा के दरबार में कलाकार, संगीतज्ञ आदि को संरक्षण मिलता था । आजादी के बाद जब रजवाड़े खत्म हुए तो कलाकारों और कलाओं को संभालने का जिम्मा भारत सरकार पर आ गया । भारत सरकार में अलग से संस्कृति मंत्रालय का गठन हुआ । कला अकादमियां बनाईं गईं । हमारे देश का संस्कृति मंत्रालय हर साल कलाकारों को फेलोशिप देती है लेकिन वह राशि पर्याप्त नहीं है और ना ही पर्याप्त है फेलोशिप की संख्या । फिर उसमें जिस तरह से चयन होता है वह भी बहुधा सवालों के घेरे में आता रहता है । इतने विशाल देश में जिसकी इतनी समृद्ध विरासत हो वहां कलाओं को सहेजने का काम बहुत गंभीरता से हो नहीं रहा है । साहित्य और कला अकादमियों का हाल सबके सामने है । ये अकादमियां चंद अफसरों या फिर विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की जमींदारी बन गई है जहां कलाकारों के बजाए उन अफसरों और अकादमी के सदस्यों का भला होता है । ललित कला अकादमी में पिछले दिनों जिस तरह से भ्रष्टाचार के गंभीर मसले सामने आए उससे तो साफ हो गया है कि कला के विकास के नाम पर उस संस्था में लंबे वक्त से लूट चल रही थी । स्वायत्ता का ढोल पीटनेवालों ने उसकी आड़ में ललित कला अकादमी में जमकर मलाई काटी । कलाकार बेचारा गरीब रहा । अब जब भारत सरकार ने ललित कला अकादमी को अपने अंदर ले लिया है तो एक बार फिर से स्वायत्ता पर शोर मचना शुरू हो गया है । स्वायत्ता के नाम पर छाती कूटनेवालों ने कभी इस बात को लेकर हल्ला मचाया या कोई आंदोलन किया कि लेखकों को या फिर कलाकारों को इन अकादमियों से मदद नहीं मिलती हैं । ललित कला अकादमी से कई ऐतिहासिक पेंटिग्स गायब हो गईं उसपर तो कभी हो हल्ला नहीं मचा । हमें बेहद संजीदगी से ये सवाल उठाना चाहिए कि क्या स्वायत्तता की आड़ में लूट की इजाजत दी जा सकती है । साहित्य अकादमी का हाल भी सबके सामने है । अभी हाल ही में साहित्य अकादमी की आम सभा के सदस्यों की एक बैठक गुवाहाटी में हुई । लगभग आधे घंटे की बैठक के लिए देशभर से लोग जुटे लेकिन उस बैठक में क्या निकला ये शोध का विषय है । इस तरह की बैठकों पर जितना पैसा खर्च होता है उसमें कई लेखकों को आर्थिक सुरक्षा दी जा सकती है । लेखकों के हितों को लेकर कई सार्थक योजनाएं बनाईं जा सकती हैं ।  इस बात की गंभीरता से पड़ताल होनी चाहिए कि हमारे देश में कलाकारों और साहित्यकारों की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी क्यों है । सरकार को भी इस दिशा में व्यापक विमर्श के बाद एक ठोस और नई सांस्कृतिक नीति बनानी चाहिए जिसमें कलाकारों और साहित्यकारों के आर्थिक सुरक्षा का ध्यान रखा जाना चाहिए । इस वक्त तो हालात यह है कि कई कलाकार गुमनामी में अपनी जिंदगी शुरू करते हैं और गुमनामी में ही उनकी जिंदगी खत्म हो जाती है । भारत कला और संगीत को लेकर भी बहुत समृद्ध है लेकिन उस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और फिर उसको बढ़ाने में हम लगभग नाकाम रहे हैं । जबतक किसी भी विधा में आर्थिक सुरक्षा नहीं होगी उस तरफ नए लोग अपना कदम नहीं बढ़ाएंगे और जबतक किसी भी विधा से नए लोग नहीं जुड़ेंगे तबतक उस विधा को लंबे वक्त तक जिलाए रखना मुश्किल होगा ।
संगीत हमारे समाज में बच्चे के जन्म से लेकर शवयात्रा तक का अंग है, अलग अलग रूप में , अलग अलग ध्वनियों के साथ। जीवन में संगीत की इस अहमियत को हम नहीं समझ पा रहे हैं, लिहाजा संगीतकारों को उचित सम्मान तो कभी कभार मिल भी जाता है लेकिन उनको आर्थिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है । इन्हीं स्थितियों की अभिव्यक्ति बिस्मिल्ला खां और दिनकर के कथऩ में मिलती है । भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान को जब एक बार कोई पुरस्कार मिला था तो उन्होंने कहा था कि सम्मान और पुरस्कार से कोई फायदा नहीं होता है इसकी बजाए धन मिल जाता तो बेहतर होता । बाद में बिस्मिल्लाह खां को भारत रत्न मिला लेकिन उनकी और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति उनके जीवनकाल तक बहुत बेहतर नहीं हो पाई। बनारस में उनसे मिलने जानेवाले उनकी मृत्यु के कई साल बाद तक उनकी आर्थिक बदहाली और कला के इस महान साधक की पीड़ा के बारे में बातें करते रहते थे । देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान पानेवाले शहनाई के जादूगर की पीड़ा सबके सामने है लेकिन उसको लेकर क्या किया गया ये सोचनेवाली बात है । कुछ इसी तरह की बात रामधारी सिंह दिनकर के बारे में भी कही जाती है । उनको जब साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कारों में से एक भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था तब उन्होंने संभवत : अपनी डायरी में लिखा था या किसी से कहा था कि चलो पुरस्कार की राशि से उनकी घर की एक लड़की का ब्याह हो जाएगा । भारत रत्न बिस्मिल्ला खां और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के बयान में शब्दों का हेरफेर हो सकता है लेकिन भाव लगभग समान हैं । एक पुरस्कार में धन की आकांक्षा कर रहा है तो दूसरा पुरस्कार में धन मिलने से इस वजह से खुश है कि घर की एक बेटी का ब्याह हो जाएगा । एक भारत रत्न से सम्मानित कलाकार और दूसरा ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी से सम्मानित राष्ट्रकवि । यह सोच कल्पना से परे है कि जब इतने बड़े कलाकार और लेखक की यह स्थिति है तो मंझोले और छोटे कलाकारों, लेखकों की आर्थिक स्थिति कैसी होगी । क्या हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारी कला, हमारे कलाकार इतने समर्थ नहीं हो पा रहे हैं कि वो अपने हुनर के बूते एक सम्मानित जिंदगी जी सकें । हम लाख अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की बात करें, हम लाख इस बात का ढिंढोरा पीटें कि हमारी संस्कृति हमारी भाषा, हमारी कला विश्व में श्रेष्ठ है लेकिन अगर ये श्रेष्ठ कला कलाकारों को सम्मान से जीने लायक माहौल और धन मुहैया नहीं करवा पाती है तो फिर उसका कोई अर्थ रह जाता है क्या, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ।
हाल के दिनों में संगीतकारों की मदद के लिए कुछ निजी प्रयास शुरू हुए हैं । इन्हीं प्रयासों में से एक है मुंबई की संगीतम संस्था का एक प्रयास रहमतें । इस कार्यक्रम में देशभर के पचास जरूरतमंद कलाकारों को एक लाख रुपए का जीवन बीमा करवा कर दिया जाता है । पिछले साल मुंबई में आयोजित इस कार्यक्रम में जितना पैसा इकट्ठा किया गया वो संगीतकार ख्य्याम और गजल गायक राजेन्द्र मेहता को दिया गया । इसके अलावा कई जरूरतमंद और युवा कलाकारों को भी संगीतम मदद करता है । अच्छी बात यह है कि युवा कवयित्री स्मिता पारिख और सोरभ दफ्तरी के इस प्रयास में गायक हरिहरन, भजन सम्राट अनूप जलोटा और गजल गायक तलत अजीज का सहयोग हासिल है । इस तरह के निजी प्रयासों को स्वागत किया जाना चाहिए । इस साल भी मुंबई में जगजीत सिंह की याद में आयोजित होनेवाले कार्यक्रम रहमतें से होनेवाली आय से कलाकारों की मदद की जाएगी । देशभर के जरूरतमंद कलाकारों की सूची विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाती है । स्मिता और सौरभ दफ्तरी के इस साझा प्रयास की तरह की इस मुहिम को देशभर में फैलाने की जरूरत है । अब अगर हमें बिहार की मधुबनी पेंटिंग को बचाना है तो उसके कलाकारों को आर्थिक मदद तो देनी होगी । अगर उस कला को वैश्विक मंच देना है तो उसके लिए राज्य सरकारों के अलावा निजी कारोबारी संस्थाओं को भी अपने सामाजिक दायित्व के निर्वाह के तहत आगे बढ़कर काम करना होगा । अगर भारत में संगीत और कला को आगे बढ़ाकर कलाकारों को आर्थिक रूप से मजबूत करना है तो इसके लिए सरकार, निजी संस्थाएं और कारोबारी समूहों को साझा तौर पर काम करना होगा । इसके अलावा ललित कला अकादमियों और साहित्य अकादमी को अफसरों और गैर साहित्यकारों कलाकारों के चंगुल से मुक्त करना होगा । संस्कृति मंत्रालय को निजी प्रयासों को प्रोत्साहित करना होगा, अकादमियों में जारी मनमानी पर रोक लगानी होगी । ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी को कलाकारों के हितों के लिए काम करनेवाली संस्था के तौर पर पुनर्स्थापित करना होगा । संस्कृति नीति को इस तरह से बनाना होगा कि नए कलाकारों को प्रोत्साहन मिले और पुराने कलाकारों को आर्थिक सुरक्षा मिल सके । अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो यह एक बेहतर स्थिति होगी वर्ना भारत रत्न से सम्मानित कलाकार भी मुफलिसी में जिंदगी बिताने और गरीबी में मर जाने को अभिशप्त रहेगा ।





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