हमारे देश में पिछले
दो तीन वर्षों में लिटरेचर फेस्टिवल की संख्या में खासा इजाफा हुआ है । अब तो देशभर
के अलग अलग शहरों में अलग अलग लिटरेचर फेस्टिव या साहित्य उत्सव मनाया जाता है । कई
अखबारों ने भी साहित्य को ध्यान में रखते हुए अपने अपने लिट फेस्ट शुरू कर दिए हैं
। परंतु ज्यादातर लिटरेचर फेस्टिवल में अंग्रेजी हावी रहती है, अंग्रेजी के लेखकों
को प्राथमिकता दी जाती है । अच्छी बात यह हुई है कि अब हिंदी समेत कुछ अन्य भारतीय
भाषाओं ने अपनी भाषा में साहित्योत्सव शुरू कर दिया है । सतह पर देखने ये साहित्य महोत्सव
पाठकों को ध्यान में रखकर आयोजित किए जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि इनका उद्देश्य
और मंशा साहित्य और समाज के सवालों से टकराने का है । वरिष्ठ लेखक आपस में साहित्य
की समकालीन समस्याओं से लेकर नई लेखकीय प्रवृत्तियों पर चर्चा करते हैं । माना यह जाता
है कि इससे उस भाषा के पाठक संस्कारित होंगे । होते ही हैं । परंतु हाल के दिनों में
इन लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों और गंभीर लेखकों के बीच का फर्क मिट सा गया है । जिस
तरह से प्रकाशकों को यह लगता है कि फिल्मी सितारों, राजनेताओं, सेलिब्रिटी पत्रकारों
की किताबें छापने से उनको लाभ होगा उसी तरह से अब इन साहित्यक मेला आयोजकों को भी अपने
बीच सितारों से लेकर पूर्व और वर्तमान राजनेताओं को लाने की होड़ लगी रहती है । देशभर
के कई लिटरेचर फेस्टिवल में गुलजार साहब स्थायी भाव की तरह मौजूद रहते हैं, हिंदी के
कवि के तौर पर । भले ही उन साहित्यक मेलों में केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी या विनोद
कुमार शुक्ल हों या ना हों । गुलजार को बुलाने के पीछे की मंशा उनकी बेहतरीन कविताएं
सुनने की अवश्य रहती होंगी लेकिन भीड़ जुटाना और पाठकों को आकर्षित करना भी एक मकसद
रहता है । इसके अलावा अब तो फिल्मी सितारों को भी लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाने का चलन
शुरू हो गया है । अमिताभ बच्चन से लेकर शर्मिला टैगोर तक को इन साहित्यक महोत्सवों
में बुलाया जाने लगा है । लिटरेचर फेस्टिवल से जुडे लोगों का कहना है कि सितारों के
आने से भीड़ अवश्य जुट जाती है लेकिन इन मेलों के मूल उद्देश्य, साहित्य पर गंभीर चिंतन,
की पूर्ति नहीं हो पाती है । कई बार तो इन सितारों की खातिरदारी या लेटलतीफी की वजह
से सत्रों को छोटा भी करना पड़ता है या अन्य सत्रों को रद्द भी करना पड़ता है । मेले
के आयोजन से जुड़े लोगों का कहना है कि साहित्योत्सवों में आनेवाले सितारों पर जितना
पैसा खर्च होता है उसका असर लेखकों पर पड़ता है और यह सिर्फ भारत में होता है ऐसा नहीं
है । पूरी दुनिया में लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों की चनक नहसूस की जा सकती है । बेस्टसेलर
उपन्यास चॉकलेट की लेखक जॉन हैरिस ने भी एक बार कहा था कि कई लिटरेचर फेस्टिवल इन सितारों
के चक्कर में लेखकों पर होनेवाले खर्चे में भारी कटौती करते हैं । आयोजकों को लगता
है कि सितारों के आने से ही उनको हेडलाइन मिलेगी । उन्होंने कहा था कि हाल के दिनों
में लिटरेचर फेस्टिवल की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन लेखकों को इससे बहुत फायदा
नहीं हुआ है ।
जब हमारे देश में जयपुर
लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत हुई थी तब शायद ही किसी को अंदाजा रहा हो कि ये फेस्टिवल
अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने के बाद अंतराष्ट्रीय स्तर पर विश्व के अलग अलग देशों
में आयोजित होगा । जयपुर में आयोजित ये लिटरेचर फेस्टिवल साल दर साल मजबूती से साहित्य
की दुनिया में अपने को स्थापित कर रहा है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भी सितारों
और विवादों की खासी भूमिका रही है । सितारों की चमक से जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल चमकता
रहता है । आपको वहां फिल्म से जुडे़ जावेद अख्तर, शबाना आजमी, शर्मिला टैगोर, गुलजार
आदि किसी ना किसी साल पर किसी ना किसी सेशन में अवश्य मिल जाएंगे । प्रसून जोशी भी
। यहां तक कि अमेरिका की मशहूर एंकर ओपरा विनफ्रे भी यहां आ चुकी हैं । इन सेलिब्रिटी
की मौजूदगी में बड़े लेखकों की उपस्थिति दब जाती है । इन लिटरेचर फेस्टिवल में प्रसिद्धि
की एक वर्ण-व्यवस्था दिखाई देती है । इसको साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है । यह सिर्फ
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ही नहीं बल्कि दुबई के लिट फेस्ट से लेकर एडिनबर्ग इंटरनेशनल
बुक फेस्टिवल में देखा जा सकता है । लेखकों में भी सेलिब्रिटी की हैसियत या फिर मशहूर
शख्सियतों की किताबों या फिर उनके लेखन को गंभीर साहित्यकारों या कवियों पर तरजूह दी
जाती है । यह सब किया जाता है पाठकों के नाम पर । लंदन में तो इन साहित्यक आयोजनों
में मशहूर शख्सियतों को लेखकों की बनिस्पत ज्यादा तवज्जो देने पर पिछले साल खासा विवाद
हुआ था । यह आवश्यक है कि इस तरह के साहित्यक आयोजनों की निरंतरता के लिए मशहूर शख्सियतों
का उससे जुड़ना आवश्यक होता है क्योंकि विज्ञापनदाता उनके ही नाम पर राशि खर्च करते
हैं । विज्ञापनदाताओं को यह लगता है कि जितना बडा नाम कार्यक्रम में शिरकत करेगा उतनी
भीड़ वहां जमा होगी और उसके उत्पाद के विज्ञापन को देखेगी, लिहाजा आयोजकों पर उनका
भी दबाव होता है । परंतु सवाल यही है कि क्या इस तरह के आयोजनों में साहित्य या साहित्यकारों
पर पैसे को तरजूह दी जानी चाहिए । कतई नहीं । अगर उद्देश्य साहित्य पर गंभीर विमर्श
है, अगर उद्देश्य पाठकों को साहित्य के प्रति संस्कारित करने का है तब तो हरगिज नहीं
। हां अगर उद्देश्य साहित्य के मार्फत कारोबार करना है तो फिर इस तरह से लटके झटके
तो करने ही होंगे ।
अब अगर हम जयपुर लिटरेटर
फेस्टिवल को ही लें तो यह साफ हो गया है कि आठ नौ साल के अंदर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल
ने विश्व के साहित्यक पचल पर अपना एक स्थान बना लिया है । इसको विश्व में लोकप्रिय
बनाने में इसके आयोजकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और वी एस नायपाल से लेकर जोनाथन फ्रेंजन
तक की भागीदारी इस लिटरेचर फेस्टिवल में सुनिश्चित की गई । अब इस लिटरेचर फेस्टिवल
को आयोजकों ने विश्व के अन्य देशों में ले जाने का फैसला किया । इस क्रम में पहले लंदन
में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित किया गया । इस साल मई में लंदन के साउथबैंक सेंटर
में दो दिनों तक लेखकों ने साहित्य और राजनीति के सवालों से मुठभेड़ की । जयपुर लिटरेटर
फेस्टिवल को आयोजित करनेवाले लेखक द्वय नमिता गोखले और विलियम डेलरिंपल ने लंदन में
भी सफलतापूर्व इसका आयोजन किया जिसमें कई भारतीय लेखकों ने भी शिरकत की । जयपुर की
तरह लंदन का दो दिनों के फेस्टिवल में मुफ्त में प्रवेश नहीं था बल्कि एक निर्धारित
शुल्क लेकर श्रोताओं को प्रवेश दिया गया । लंदन में सफलतापूर्वक आयोजन के बाद अब जयपुर
लिटरेचर फेस्टिवल अमेरिका जा रहा है । आठारह लेकर बीस सितंबर तक तक अमेरिका में अब
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन होगा । आयोजकों का दावा है कि अमेरिका में होने वाले
इस लिटरेचर फेस्टिवल में करीब सौ से ज्यादा लेखक शामिल होंगे । कोलोराडो में आयोजित
होनेवाले इस फेस्टिवल में लेखकों के साथ विमर्श के अलावा राजनीति और पर्यावरण की चिंताओं
पर भी बात होगी । इसका मतलब यह है कि ये लिटरेचर फेस्टिवल लगातार अपना दायरा बढाता
जा रहा है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में एक खास बात यह है कि इसमें विमर्श पर भी तवज्जो
दी जाती है । लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने यह साबित कर दिया कि हमारे
देश में साहित्य का बहुत बड़ा बाजार है । उसने यह भी साबित कर दिया कि साहित्य और बाजार
साथ साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते हैं । साबित तो यह भी हुआ कि बाजार का विरोध करनेवाले
नए वैश्विक परिवेश में कहीं ना कहीं पिछड़ते जा रहे हैं । पिछड़ते तो वो पाठकों तक
पहुंचने में भी जा रहे हैं । इसके विरोध में तर्क देनेवाले यह कह सकते हैं कि यह अंग्रेजी
का मेला है लिहाजा इसको प्रायोजक भी मिलते हैं और धन आने से आयोजन सफल होता जाता है
। सवाल फिर वही कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में हमने कोई कोशिश की? बगैर किसी कोशिश के अपने
ठस सिद्धातों पर यह मान लेना कि हिंदी में इस तरह का भव्य आयोजन संभव नहीं है, गलत
है । आसमान में सूराख हो सकता है जरूरत इस बात की है कि पत्थर जरा तबीयत से उछाली जाए
। विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को खासा चर्चित
किया । आयोजकों की मंशा विवाद में रही है या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन
इतना तय है कि विवाद ने इ, आयोजन को लोकप्रिय बनाया । चाहे वो सलमान रश्दी के कार्यक्रम
में आने को लेकर उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच का विवाद हो, सबने
मिलकर इस फेस्टिवल को साहित्य की चौहद्दी से बाहर निकालकर आम जनता तक पहुंचा दिया ।
नतीजा यह हुआ कि साहित्य का ये फेस्टिवल धीरे धीरे मीना बाजार, यह शब्द इस स्तंभ में
कई बार इस्तेमाल किया जा चुका है, बन गया । आयोजकों को स्पांसरशिफ से फायदा हुआ तो
इस पेस्टिवल का दायरा और इसका प्रोडक्शन बेहतर होता चला गया ।
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