जानकीदास तेजपाल मैनशन । यह नाम है मशहूर उपन्यासकार अलका सरावगी के नए उपन्यास
का । उपन्यास के नाम और कवर को देखकर लगता है कि यह उपन्यास किसी हवेली के इर्द गिर्द
घूमता होगा । उपन्यास पढ़ने के बाद भी यही लगता है । यह उपन्यास कोलकाता के सेंट्रल
एवेन्यू पर पहले सीना ताने और कालांतर में विकास की आड़ में खेले जा रहे खेल के आगे
सर झुकाए खड़े जानकीदास तेजपाल मैनशन के इर्द गिर्द ही चलती है । इस उपन्यास के कथानक
के कई छोर हैं और केंदीय कथा के साथ साथ कई उपकथाएं भी चलती हैं । कई बार पाठक इन उपकथाओं
के साथ चलते हुए खुद को भ्रमित महसूस करते हैं लेकिन उनका यह भ्रम कहानी के आगे बढ़ने
के साथ दूर होता जाता है । एक ऐतिहासिक इमारत के बहाने उपन्यासकार ने सत्तर के दशक
के बाद भारतीय समाज में आए बदलाव को, पीढ़ियों के द्वन्द को, बदलते सामाजिक मूल्यों
को, छीजते आपसी विश्वास को, रिश्तों में पनपते अविश्वास को,विकास की वजह से हो रहे
विस्थापन को, धन कमाने की होड़ में कुछ भी कर गुजरने की तमन्ना को, एक ही इमारत में
रह रहे लड़कियों की यौनाकांक्षा को, पत्रकारिता में आ रहे ह्रास को, नेता, पुलिस उद्योगपति
गठजोड़ को समेट लिया है । लगभग पौने दो सौ पन्नो के इस छोटे से उपन्यास में लेखिका
ने इन तमाम विषयों को सिर्फ उठाया ही नहीं है बल्कि उनके साथ लगभग न्याय भी किया है
। इस किताब पर अशोक सेक्सरिया ने बेहद सटीक लिखा है – ‘जो सतह पर दिखता है, वह अवास्तविक है । कलकत्ता के सेंट्रल
एवेन्यू पर जानकीदास तेजपाल मैनशन नाम की अस्सी परिवारों वाली इमारतसतह पर खड़ी दिखती
है, पर उसकी वास्तविकता मेट्रो की सुरंग खोदने से ढहने और ढहाए जाने में है । अंग्रेजी
में एक शब्द चलता है अंडरवर्ल्ड, जिसका ठीक प्रतिरूप हिंदी में नहीं है । अंडरवर्ल्ड
गैरकानूनी ढंग से धन कमाने, सौदेबाजी और जुगाड़ की दुनिया है । इस दुनिया के ढेर सारे
चरित्र हमारे जाने हुए हैं, पर अक्सर हम नगीं जानते कि वे किस हद तक हमारे जीवन को
चलाते हैं और कब अपने में शामिल कर लेते हैं । तब अपने को बेदखल करने की पीड़ा दूसरों
को बेदखल करने में आड़े नहीं आती है ।‘ अशोक जी ने अपनी छोटी सी
टिप्पणी में पूरे उपन्यास को समेट लिया है जहां उसका नायक जयगोविन्द अपने विस्थापन
की पीड़ा को बेहाला की एक विधवा की जमीन खाली करवाते वक्त नहीं याद रखता है । तभी तो
उपन्यास की अंतिम पंक्ति है – बेदखल होना बेदखल करना
दोनों एक साथ होते ही हैं । यह तो जीवन का शाश्वत सत्य है । और इसी शाश्वत सत्य को
अपनी इस उपन्यास में अलका ने कथा के रूप में पिरोया है । अशोक सेक्सरिया अपनी टिप्पणी
में जिस जुगाड़ की बात करते है, कुछ वैसी ही टिप्पणी लगभग ढाई दशक से ज्यादा वक्त भारत
में गुजारनेवाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जॉन इलिएट ने अपनी किताब इंप्लोजन में
किया है । उन्होंने भारतीय राजनीति और समाज में जारी जुगाड़ और चलता है की मानसिकता
को उजागर किया है । इन सबको देखते हुए ही लगता
है कि आजादी के बाद नेहरू जी ने अपने पहले भाषण में ट्रायस्ट विद डेस्टनी कहा था जो
सत्तर के दशक के बाद ट्रायस्ट विद रियलिटी यानि यथार्थ से मुठभेड़ में तब्दील हो गया
। चलता है और जुगाड़ की मानसिकता ने तो भारतीय समाज में अपनी जड़ें इतनी गहरी कर लीं
कि कानून भी बहुधा उसके सामने बौना लगता है ।
जानकीदास तेजपाल मैनशन
की शुरुआत बेहद रोचक तरीके से होती है और उपन्यास के कई पन्नों में मैनशन का पखाना
प्रसंग बहुत लंबा चलता है । इस प्रसंग को पढ़ते हुए मुझे अभी हाल ही में रिलीज हुई
अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण अभिनीत फिल्म पीकू की याद ताजा हो गई । इस फिल्म में
अमिताभ बच्चन भी पूरे वक्त तक पखाने की चर्चा करते रहते हैं । एक जगह उबकर दीपिका उनसे
कहती भी है कि कलर शेडकार्ड लेकर कमोड पर बैठा करो । ठीक उसी तरह इस उपन्यास में भी
एडवोकेट साहब और उनके बेटे का सुबह फारिग होने का लंबा प्रसंग है । जब जयगोविन्द अमेरिका
जाता है तो वहां भी कमोड उसको पहले काफी परेशान करता है । पखाने के इसी प्रसंग में
उस परिवार की एक जवान लड़की अंधेरे में उपन्यास के नायक को अंदर खींचना चाहती है, नतीजा
यह होता है कि नायक अंधेरे में उधर का मुंह नहीं करता है । इस उपन्यास में पाठक को
सबकुछ मिलेगा । जयगोविन्द जब अमेरिका जाने की सोचता है तो उसकी मां का मनोविज्ञान,
जब अमेरिका चला जाता है तो उसके पिता की मनोदशा, अमेरिका से लौटकर आने के बाद समाज
में उसको लेकर सोच, अमेरिका में रह रहे उसके बेटे की कोलकाता और भारत को लेकर सोच सब
एक दूसरे से गुंथे हुए हैं । दरअसल मेट्रो बनाने को लेकर जानकीदास मैनशन को तोड़ा जाना
है, वहां रहनेवाले अमूमन सभी परिवार उस हवेलीनुमा मकान को छोड़कर जा चुके हैं लेकिन
जयगोविन्द और उसकी पत्नी वहां डटे रहते हैं । वहां रहने की जद्दोजहद ही उपन्यास के
नायक को नेता बना देता है । इसी नेतागिरी के चक्कर में उसकी एक पत्रकार से मुलाकात
होती है जो मूलत: और अन्तत: धंधेबाज है । इलाके के गुंडे से उसका पाला पड़ता है जिसको वो बहुत कुशलता के साथ
साध लेता है । इन सारे घटनाक्रम के बीच उसकी पतिव्रता पत्नी है । जो खुद इंजीनियर है
लेकिन अपनी पति की खातिर पूरी तरह से समर्पित है । दीपा के इस चरित्र के बहाने अलका
ने उस दौर की ज्यादातर स्त्रियों की मनोदशा को भी सामने रखा है । अगर हम समग्रता में
इस उपन्यास को देखें तो इसमें शेयर घोटाला भी है, नक्सलबाड़ी भी है, नक्सलियों से मोहभंग
भी है । किस तरह से नक्सलियों के चंगुल से छूटने की तमन्ना रखनेवाले साथी को अपनी जान
का डर सताता है वह भी है । पहले नक्सली और
बाद में पूंजीपति बनने की कहानी भी है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि अलका सरावगी
का यह उपन्यास शहरी विस्थापन का आख्यान तो है ही, इसमें सत्तर के दशक के बाद समाज में
आ रहे बदलावों को भी बेहद सूक्षम्ता के साथ पकड़ते हुए लेखिका ने पूरी व्यवस्था को
एक्सपोज किया है । शहरी मध्यवर्गीय परिवार के अंदर जारी द्वंद्व को भी अलका ने उघाड़ा
है । हम यह कह सकते हैं कि काफी दिनों बाद हिंदी में इस तरह के छोटे से उपन्यास में
समाज का बड़ा फलक सामने आया है । बस एक सौ बयासी पृष्ठ के उपन्यास की कीमत चार सौ रुपए
अखरती है ।
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