हाल के दिनों में इतिहास
की पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन को लेकर खासा बवाल मचा है । केंद्र में नई सरकार के
गठऩ और फिर भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर अन्य संस्थाओं में में नई नियुक्तियों
को लेकर इस बात पर खूब विमर्श हो रहा है कि सरकार भारत के इतिहास को बदलना चाहती है
। पहले भी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तब भी इस तरह के आरोप उछले थे और
इस बार भी उछल रहे हैं । भारत के इतिहास के पुनर्लेखन को सांप्रदायिकता से जोड़ने का
खेल फिर से शुरू हो गया है । तर्कों के आधार पर बात होनी चाहिए कि क्यों नहीं प्राचीन
भारत से लेकर मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत का इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए । इतिहास
पुनर्लेखन के खिलाफ बात करनेवालों का एक ही तर्क होता है कि यह पुराने धर्मनिरपेक्ष
लेखन को दरकिनार करने की साजिश है । तर्क तो यह भी दिया जाता है कि जबरदस्ती हिंदू
राजाओं और हिंदू शासकों के बहाने से हिंदू धर्म को बढ़ावा देने के लिए इतिहास को फिर
से लिखने की कोशिश की जाती रही है । इन तर्कों के समर्थन में सबसे आसान होता है राष्ट्रीय
स्वंयसेवक संघ को शामिल करना । बहुधा यह कहा जाता है कि संघ के इशारे पर ही सरकार पाठ्यक्रमों
में पठाए जानेवाले इतिहास को बदलने की कोशिश कर रही है । यही तर्क तब भी दिए गए थे
जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने थे । जब मशहूर इतिहासकार बिपान चंद्रा
की अगुवाई में चल रहे शोध ‘टूवर्ड्स फ्रीडम’ का प्रजोक्ट रोक दिया
गया था । तब भी इन्हीं तर्कों के सहारे उस वक्त की सरकार को कठघरे में खड़ा करने की
कोशिश की गई थी । दरअसल इतिहास लेखन पर जिस तरह से राजनीति होती है और जिस तरह से पक्ष
विपक्ष एक दूसरे के आमने सामने आ जाते हैं उसमें असली मुद्दा दबकर रह जाता है । तर्क
राजनीतिक बयानबाजी का शिकार होकर रह जाती हैं । एक पक्ष इतिहास लेखन की बात करता है
या फिर उसको फिर से लिखवाने की मंशा जाहिर करता है तो विरोधी उनपर सांप्रदायिकता या
धर्म विशेष का पक्षधर होने का आरोप लगाना शुरू कर देते हैं । बजाए इन आरोपों में उलझने
के पाठ्यपुस्तक इतिहास पुनर्लेखन की जरूरतों के बारे में और पूर्व की गलतियों या कमियों
को सामने रखना चाहिए । किस तरह से पूर्व के इतिहासकारों ने कुछ पक्षों की जानबूझकर
या फिर अज्ञानतावश अनदेखी कर दी उसके बारे में जनता को बताना चाहिए । होता यह है कि
विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की हिंदूवादी छवि की आड़ में तर्कों को दूसरी दिशा में
मोड़ देते हैं । नतीजा यह होता है कि इतिहास लेखन की खामियों की ओर ध्यान नहीं जा पाता
है और सारा हल्ला गुल्ला सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के भंवर में फंस जाता है
। भारतीय इतिहास लेखन को देखें तो पाते हैं कि इसमें कई तरह की खामियां हैं । हमारे
अबतक के इतिहास लेखकों ने इस बात पर खासा जोर दिया कि भारत पर कौन कौन से आक्रमणकारी
आए, किसने हमारे देश को कितना लूटा, किसने कितने लोगों की हत्या की आदि आदि । मोटे
तौर पर छात्रों को आक्रमणकारियों और युद्ध का इतिहास पढाया जाता है । क्या इतिहास लेखन
में सिर्फ युद्ध का ही उल्लेख होना चाहिए । क्या किसी देश में बाहर से आए उन कारोबारियों
का उल्लेख नहीं होना चाहिए जिन्होंने हमारे देश को, हमारे समाज को गहरे तक प्रभावित
किया । आक्रमणकारियों का इतिहास लिखने में हम यह भूल जाते हैं कि पारसी और यहूदी कारोबारियों
का भी हमारे देश के इतिहास में क्या स्थान है । क्या हमारे अबतक के इतिहासकारों ने
उनके बारे में, उनके योगदान के बारे में सोचा । नहीं सोचा । अब अगर हम इससे थोड़ा अलग
हटकर बात करें तो सवाल यह भी उठता है कि क्या किसी भी देश का इतिहास सिर्फ उसके शासकों
के इर्द गिर्द घूमता है । इस सवाल से मुठभेड़ करते हुए मशहूर इतिहासकार रामशरण शर्मा
की अगुवाई में कई इतिहासकारों ने हाशिए के लोगों को भी इतिहास लेखन के केंद्र में रखा
। यह ठीक कदम था । सबाल्टर्न का इतिहास लिखा गया । फिर से वही सवाल उठता है कि क्या
किसी देश का इतिहास सिर्फ राजा और प्रजा, शासक और शासित या फिर राजा के जुल्म और प्रजा
की जुल्म सहने की दास्तां होती है या फिर इससे इतर भी कुछ होता है । हमारे देश के इतिहास
लेखकों ने दरअसल अपना दायरा काफी छोटा रखा । इतिहास की किताबों में मुख्य रूप से आक्रमणकारियों,
राजाओं और बाद में मार्क्सवादी इतिहासकारों की वजह से आम लोगों को इतिहास का अंग माना
गया और उसके आधार पर ही इतिहास लेखन किया गया । कभी हमने यह सोचने की कोशिश की क्या
हमारे इतिहास में नदियों की धारा बदलने का कोई प्रभाव पड़ा । नदियों की धारा बदलने
से एक तरफ जहां गांव खत्म हुए वहीं दूसरी तरफ जमीन के बाहर आने से वहां नए गांव बसे
। इन सब का जिक्र हमारी इतिहास की किताबों में क्यों नहीं है । यह सवाल तो उठाया ही
जाना चाहिए और इसके आधार पर शोध करते हुए इतिहास को दुरुस्त भी किया जाना चाहिए ।
अब हम उन तर्को को सामने
रखते हैं जिसके आधार पर इतिहास पुनर्लेखन पर सांप्रदायिक होने के आरोप लगते हैं । भारतीय
विज्ञान का इतिहास लिखते वक्त क्या हमने अपनी गौरवशाली परंपरा की अनदेखी नहीं की ।
गणित से लेकर आयुर्वेद तक में भारत की जो उपलब्धियां रहीं उसको जानबूझकर या फिर एक
साजिश के तहत अनदेखा नहीं किया । जिस देश में वैदिक गणित का लंबा इतिहास रहा है उसको
दरकिनार किया गया । जब इस तरह के इतिहास लेखकों पर सवाल उठे तो पुष्पक विमान जैसी मिथकीय
चीजों को आगे कर उसका मजाक उड़ाया गया । अपनी कमी को ढंकने के लिए इस तरह की बात फैलाई
गई कि प्राचीन भारत में विज्ञान की बात करनेवाले पुष्पक विमान और राक्षसों के हवा में
उड़ने आदि की बात करते हैं। पौराणिक विज्ञान की बात करनेवाले कुछ अज्ञानी किस्म के
बाबाओं ने भी अनजाने इन तर्कों को बढ़ाया और मूल प्रश्न दबे रह गए । अब अगर हम ऐतिहासिक
चरित्रों की बात करें तो वहां भी वस्तुनिष्ठता के साथ लेखन का साफ आभाव दिखता है ।
जिन चरित्रों को उभारना था, चाहे वो अशोक हो या अकबर उनके सिर्फ अच्छे कारनामों को
आगे किया गया । सम्राट अशोक के चरित्र को अहिंसा का पुजारी और महान शासक के तौर पर
गढ़ने में कलिंग युद्ध में उनकी सेना के द्वारा किए गए नरसंहार को भी उनके हृद्य परिवर्तन
से जोड़ दिया गया है । बगैर किसी ऐतिहासिक सबूत के यह बात गढ़ी गई कि अशोक को उस नरसंहार
के बाद बेहद अफसोस हुआ था । ठीक है हम एक मिनट को इतिहास के इस अध्याय को मान भी लें
लेकिन क्या इतिहास कल्पना के आधार पर लिखा जानेवाला फिक्शन है या इतिहास सबूतों और
शिलालेखों पर मिले अवशेषों और संकेतों पर लिखा जाता है । यह बात अब तक सामने नहीं आई
है कि किस शिलालेख या किस दस्तावेज में अशोक के इस हृ्दय परिवर्तन की चर्चा है । बस
एक कहानी प्रतिपादित कर दी गई जो पीढ़ियों से पढाई जा रही है । क्या इस बात की जरूरत
नहीं है कि इस कहानी की पड़ताल की जाए ।
भारत में इतिहास लेखन
में एक और बात मुख्य रूप से देखने को मिलती है जहां इतिहासकार तथ्यों में अपनी राय
को जोड़ते हुए उसका विश्लेषण करता है । ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत के इतिहासकारों ने
इस पद्धति का उपयोग किया है । पूरी दुनिया के इतिहासकार इतिहास लेखन के वक्त तथ्यों
के साथ अपनी राय आरोपित करते चलते हैं । लेकिन भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने
इस छूट का बेजा इस्तेमाल किया और बहुधा तथ्यों पर अपनी राय को हावी कर दिया । क्या
इस बात की आवश्यकता नहीं है कि इतिहासलेखन में इतिहासकारों की राय को तथ्यों से अलग
कर देखा जाए । तथ्यों की व्याख्या आवश्यक है लेकिन व्याख्या के बोझतले तथ्यों को दबा
देना अपराध है । अंत में हम बात करते हैं इतिहास पुनर्लेखन पर लगनेवाले सांप्रदायिकता
के आरोप की । दरअसल अगर हम देखें तो यह तर्क भी गलत है । हम पूरे परिदृश्य पर नजर डालते
हैं तो पाते हैं कि दक्षिण भारत से लेकर उत्तर पूर्व तक के राजाओं को उतनी अहमियत नहीं
दी गई जितनी मध्य और उत्तर भारत के शासकों को दी गई । क्या सिर्फ मध्य और उत्तर भारत
के शासकों पर विस्तार से लिखकर भारत के इतिहास को समझा जा सकता है । क्या अशोक और अकबर
की तुलना में हमारे इतिहास में चोल वंश से लेकर सातवाहन या फिर अहोम राजवंश के बारे
में कितना मिलता है । इन तर्कों की कसौटी पर इतिहास लेखन को कसने की जरूरत है तो फिर
सारे धुंध खुद ब खुद साफ होते चले जाएंगे ।
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