Translate

Saturday, July 18, 2015

साहित्य पत्रिकाओं की दुनिया

जब से बड़े संस्थानों से साहित्यक पत्रिकाएं निकलनी बंद हो गई तब से, या यों कहें उनके प्रकाशन जारी रहने के वक्त से ही लघु पत्रिकाओं के अस्तित्व को लेकर हिंदी साहित्य में चिंता जताई जाती रही है । लघु पत्रिकाओं के आर्थिक स्त्रोंतों पर भी हिंदी जगत में जोरशोर से चर्चा होती रही है । व्यक्तिगत आर्थिक प्रयासों से निकलनेवाली इन साहित्यक पत्रिकाओं को लेकर हिंदी जगत में खासी इज्जत रही है । होनी भी चाहिए । कई बार इन पत्रिकाओं में बेहतरीन साहित्य पढ़ने को मिल जाता है । अभी हाल ही में मशहूर कथाकार ज्ञानरंजन के संपादन में निकलनेवाली पत्रिता पहल का सौवा अंक बाजार में आया है । हिंदी साहित्य में इस अंक को लेकर खूब ढोल नगाड़े बजाए जा रहे हैं । बजाए भी जाने चाहिए क्योंकि सौ अंक का निकलना अपने आप में एक उपलब्धि तो है ही । लेकिन जिस तरह से पहल के इस अंक में लेखकों के परिचय छपे हैं उसपर कुछ विवाद हुआ है । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है । पहल के अलावा हाल ही में दो और पत्रिकाओं ने हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है । अभी हाल ही में जोधपुर से हसन जमाल के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका शेष का सतहत्तरवां अंक आया है । हर बार की तरह इस बार भी शेष में श्रेष्ठ रचनाओं की भरमार है । दो जबानों की किताब के नारे के साथ यह त्रैमासिक पत्रिका निकलती है । हसन जमाल साहब की जिद और जुनून की वजह से पत्रिका निकलती है और मेरे जानते देवनागरी में उर्दू के बेहतरीन रचनाओं के ये पत्रिका हिंदी के पाठकों का परिचय करवाती है । दिलचस्प बात यह है कि इस पत्रिका में छपता है- शेष उर्दू ज़बान के लिए उर्दू लिपि का हामी है । उर्दू के लिए देवनागरी का वकालत करनेवाले उर्दू ज़बान के खैरख्वाह नहीं हैं । लिपियां ज़बानों पर थोपी नहीं जाती हैंष लिपियां ज़बानों की हमजाद होती हैं । बाबजूद इस मत के शेष में कईऐसी रचनाएं मिल जाती हैं जो मूलत उर्दू में लिखी गई प्रतीत होती हैं । कहना नहीं होगा कि हसन जमाल साहब ने शेष को समकालीन हिंदी जगत की एक जरूरी किताब बना दिया है ।
कृष्ण बिहारी हिंदी के बेहतरीन कथाकारों में से एक हैं लेकिन हिंदी साहित्य ने उनकी कहानियों को उस तरह से नोटिस नहीं लिया जिसके वो हकदार हैं । मैं भी उनकी कहानियों से अपरिचित था लेकिन कुछ दिनों पहले वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र राव की के संस्मरणों की किताब आई थी । उस किताब में कृष्ण बिहारी की लेखन प्रतिभा को राजेन्द्र राव ने बेहद संजीदगी से याद किया है । उसके बाद मैंने उनकी कहानियां खोज कर पढ़ी । अभी हाल ही में लखनऊ से प्रज्ञा पांडे के सौजन्यसे कृष्ण बिहारी के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका निकट का अंक देखने का युयोग मिला । यह पत्रिका नौ वर्षों से निकल रही है । इसके मई अगस्त अंक में पढ़ने को बहुत कुछ है । कहानियों में मुझे आकांक्षा पारे की कहानी कठिन इश्क की आसान दास्तां ने प्रभावित किया । हिंदी से हास्य व्यंग्य लगभग गायब होता जा रहा है लेकिन निकट पत्रिका के इस अंक में साहित्य मसाला के नाम से एक स्तंभ है जिसमें मेला घुमनी के नाम से कुछ बेहद मजेदार टिप्पणियां हैं । इस तरह की टिप्पणियां साहित्य जगत को सजीव बनाए रखती हैं । यह पूरा अंक पठनीय है । इसी तरह से कथाकार अनंत कुमार सि्ंह के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका जनपथ का नया अंक भी मेरे सामने है । जनपथ का जून अंक पहले की अंकों की तुलना में कमजोर है । दो सह संपादक, तीन संपादकीय सहयोगी और पांच विशेष सहयोगी और सात संरक्षक होने के बावजूद इस अंक में चंद्रकिशोर जायसवाल और अरुण अभिषेक की रचनाओं के अलावा बढ़ने लायक कुछ भी नहीं हैं । संपादक को निर्ममता के साथ रचनाओं को छांटना भी उतना ही जरूरी होता है जितना कठोरता के साथ स्वीकार करना ।

No comments: