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Sunday, July 26, 2015

पचहत्तर के जगूड़ी

पिछले दिनों वरिष्ठ कथाकार और उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल से उनके शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास हलाला पर बात हो रही थी । उस उपन्यास पर बात होते होते मेवात की सांस्कृतिक विरासत पर जब बात होने लगी तो मोरवाल जी ने वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी की कवितागुंडा समय की कुछ पंक्तियां सुनाई- नहीं होकर भी मैं हूं इस गुंडा समय में /जितना मैं भागता जाता हूं/उतनी ही फैलती जाती है आग/जितना मैं वापस आता हूं /उतना ही जला हुआ पाता हूं आस-पास । मोरवाल की चिंता में मेवात की साझा सांस्कृतिक विरासत का छीजना था । कुछ इसी तरह का इशारा लीलाधर जगूड़ी भी अपनी कविता में करते हैं । कवि और उपन्यासकार दोनों की रचनाओं की चिंताएं लगभग समान हैं । मोरवाल के उपन्यास बाबल तेरा देस में हो या फिर काला पहाड़ वहां सामाजित तानेबाने पर बढ़ रहे दबाव पर चिंता दिखाई देती है । यह संयोग ही था कि जब हमारी बातचीत में लीलाधर जगूड़ी की कविताओं का प्रसंग आया तो उसके दो दिन बाद ही दिल्ली में शनिवार को जगूड़ी साहब के पचहत्तर साल पूरा होने के मौके पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ । लीलाधर जगूड़ी अपने समय के बेहद महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि बहुपठित और समादृत कवि भी हैं । एक जुलाई उन्नीस सौ चालीस में धंगड़, टिहरी में पैदा हुए लीलाधर जगूड़ी ने कविता के अलावा नाटक भी लिखे हैं । जगूड़ी जी को साहित्य अकादमी समेत कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं । शंखमुखी शिखरों पर, ईश्वर की अध्यक्षता में, खबर का मुंह विज्ञापन से ढंका है समेत ग्यारह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । यह हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि इस वक्त भी लीलाधर जगूड़ी सृजनकर्म में लगे हैं ।
जगूड़ी की कविताओं में अन्य विशेशताओं के अलावा जो एक बात मुझे बहुत आकृष्ट करती है वो है उनकी समसामयिक विषयों पर टिप्पणी । जैसे खबरें कविता में वो लिखते हैं जो अच्छे दिन की कामना में /खराब जीवन जिए चले जाते हैं /जो उस जीवन से बाहर चला जाता है /उसकी खबर आती है /कहीं कोई शर्म से मरा /बताया यह गया उसमें साहस नहीं था /घबराहट थी! कुंठा थी!कायरता थी !/विपदाग्रस्त पीड़ित या मृत व्यक्ति की/असफलता दिखाई जाती है मौत में भी/घबराना खबर है/शर्म कोई खबर नही । यह कविता आज के संदर्भ में भी कितनी सटीक है । इसमें कवि पूरे समाज को कसौटी पर कसता हुआ व्यंग्यात्मक लहजे में चोट करता है । घबराना खबर है लेकिन शर्म कोई खबर नहीं है यह दो पंक्ति आज के हमारे समाज की बदलती मनोदशा पर सटीक टिप्पणी है । आज जब हम अच्छी और बुरी कविता के बीच के खत्म होते जा रहे भेद को लेकर गाहे बगाहे चिंता प्रकट करते हैं तो ऐसे समय में लीलाधर जगूड़ी की कविताएं हमें बताती हैं कि अच्छी कविता क्या होती है । कविता क्या है शीर्षक अपने लेख में नामवर सिंह ने विजयदेव नारायण साही के हवाले से कहा है कि- छायावादी काव्य रचना की प्रक्रिया जहां भीतर से बाहर की ओर है उसी तरह से नयी कविता की रचना प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर है । लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में हम इस बाहर से भीतर की ओर को रेखांकित कर सकते हैं । लीलाधर जगूड़ी की कविताओॆ में यथार्थ चित्रण इतना गहरा होता है कि उसमें जादुई तत्व डालने की आवश्यकता ही नहीं होती । उनका यथार्थ बोध उन्हें हिंदी के तमाम कवियों से अलग खड़ा करता है । ईश्वर उन्हें दीर्घायु बनाएं ।  

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