गगन गिल हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। उनके
कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्होंने विपुल अनुवाद भी किया है। अंग्रेजी
साहित्य में एम ए करने के बाद गगन गिल ने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया
लेकिन पत्रकारिता को छोड़कर वो पूर्णकालिक लेखक हो गईं। उनकी कई कविताएँ अमेरिका,
इंगलैंड और जर्मनी के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं।
मेरा जन्म दिल्ली के ही इरविन अस्पताल में हुआ और
.हीं पली बढ़ी और रह रही हूं। मेरा बचपन दिल्ली के ढका गांव के आसपास बीता है।
पहले मेरा परिवार ढका के पास के एनडीएमसी कॉलेनी में रहता था। हमलोग वहां से थोड़ी दूर राजपुर रोड के बनी
प्रसाद जयपुरिया स्कूल में पढ़ते थे। बाज में इस स्कूल का नाम बदलकर रुक्मणि देवी
स्कूल कर दिया गया। इस स्कूल की बिवडिंग बहुत आकर्षक थी, कोलोनियल डिजायन से बना
था। मेरा स्कूल आना-जाना बस से होता था। जब हम स्कूल में थे तो बस में सीट घेरने
के लिए काफी भागदौड़ करते थे और फिर बस में बैठकर बेर खाते हुए घर वापस लौटते थे। मेरे
बचपन की याद में तो ढका गांव की कॉलोनी और मॉरिस नगर ही बसा है। तब वो इलाका इतना
बसा नहीं था, बाद में मुखर्जी नगर, हडसन लाइन आदि कॉलोनियां विकसित हुईं तो मेरे
माता-पिता ने मुखर्जी नगर में अपना मकान बनवाया। बतरा सिनेमा हॉल मेरे सामने बना। बचपन
में मम्मी हमें डीटीसी की बस नंबर 9बी में बिठाकर मंडी हाउस ले जाती थी। वहां
सप्रू हाउस में चिन्ड्रन फिल्म सोसाइटी होती थी जहां हम फिल्म देखते थे। 1977 में
दिल्ली में बाढ़ आई थी और मेरा घर उसमें डूब गया था। मेरा घर तीन मंजिला था और
ग्राउंड फ्लोर में पूरा पानी भर गया था। हम कई दिन पानी में घिरे रहे लेकिन ये
देखकर कोफ्त होती थी कि हमारे घर से 10 फीट दूर पानी बिल्कुल नहीं है। 1984 के सिख
विरोधी दंगे भी हमने मुखर्जी नगर में ही देखे।
साहित्य की तरफ मेरा रुझान था, मैं कविता
प्रतियोगिता में भाग लेती थी। घर में साहित्यिक माहौल था और बड़े बड़े साहित्यकार
घऱ पर आते थे। आपको दो दिलचस्प किस्सा बताती हूं। जब मैं सोलह साल की थी तो मेरी
मुलाकात कृष्णा सोबती से हुई थी। मां की दोस्त डॉ दुआ के घर पर कोई पार्टी थी
जिसमें कृष्णा जी आई थीं, मुझे उऩसे मिलवाया गया। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में
ले लिया और काफी देर तक सहलाती रहीं। मैं उनके काले चश्मे और मक्खन की तरह मुलायम गोरे
हाथ में डूबी रही। मुझे उनका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक लगा। वो उस वक्त शरारा पहनती
थी और हमलोग पाकीजा फिल्म के प्रभाव में थे। आपको आज बता रही हूं कि मैंने कृष्णा
जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनपर एक कहानी लिखी। जासूसी टाइप जिसमें एक सीन
था कि दरवाजा खुलता है तो सामने से एक खूब गोरी चिट्टी महिला काला चश्मा लगाकर
निकलती हैं। वो कहानी अब मेरे पास है नहीं, कहीं छपी भी नहीं। सत्रह साल की उम्र
में मैं अमृता प्रीतम से मिली। जगजीत सिंह और चित्रा ने उनके गीतों पर कमानी
ऑडिटोरियम में परफॉर्म किया था। उसके बाद मम्मी ने मुझे उनसे मिलवाया, मैं उनकी
दीवानी थी. मैंने उनका ऑटोग्राफ लिया। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और
मम्मी को बोलीं कि इसको घर लेकर आना। फिर हम उनके घर गए। आज साहित्य में मैं जो
कुछ भी हूं अमृता जी की वजह से ही हूं। अमृता प्रीतम जी ने मुझे पंजाबी में लिखने
के लिए प्रेरित किया था, वो कहती थीं कि याव पीढ़ी को अपनी भाषा में लिखना चाहिए।
मैं पंजाबी पढ़ सकती लेकिन लिख नहीं सकती थी। अमृता जी की प्रेरणा से पंजाबी लिखना
सीखा भी लेकिन मेरी गति हिंदी में ही है, मैं हिंदी में ही सहज हूं। साहित्य से
जुड़ा एक और किस्सा मुझे याद है। हिंदी के मशहूर कवि अजित कुमार का मेरे घर बहुत
आना जाना था। हम उनके साथ खूब मजे करते थे। मेरा छोटा भाई रब्बी उनके बालों में रबड़
बैंड लगाया करता था। एक दिन जब अजित जी मेरे घर से अपने घर पहुंचे तो उनकी पत्नी
सीढ़ियों पर बैठी थी उन्होंने अजित जी का चेहरा देखा और पूथा कि कहां से आ रहे हो।
अजित समझे नहीं लेकिन फिर उनकी पत्नी ने बालों की ओर इशारा किया जिसमें रबड़ बैंड
लगा था। आप कल्पना करिए क्या हुआ होगा। लेकिन बाद में अजित जी ने मजे लेकर वो
किस्सा हमें सुनाया था।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)
1 comment:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31.01.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3233 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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