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Saturday, December 6, 2025

जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम


रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था। उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है। राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है। कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है। वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था। जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था। उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है। बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे। 

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे। प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले? ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया ।      

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जीते हैं शान से


हिंदी फिल्मों के इतिहास में कई ऐसी फिल्में हैं जो कारोबार के हिसाब से बेहद सफल नहीं हो सकीं लेकिन कल्ट फिल्म के तौर पर याद की जाती हैं। उन फिल्मों के क्राफ्ट के कारण उनको वर्षों बाद भी याद किया जाता है। जाने भी दो यारो, मेरा नाम जोकर और लम्हे कुछ ऐसी ही फिल्में हैं जिनको आज भी बेहतरीन फिल्म के तौर पर याद किया जाता है लेकिन वो सफल फिल्मों की श्रेणी में नहीं आती। ऐसी ही एक और फिल्म है आज से 45 वर्ष पूर्व रिलीज हुई शान। फिल्म शोले की सफलता के बाद रमेश सिप्पी एक शहरी और आधुनिक कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे। ऐसी फिल्म जिसमें नायक, नायिकाएं, खलनायक सभी शहरी हों और फिल्म का वातावरण भी आधुनिक लगे। लेखक सलीम-जावेद की हिट जोड़ी उनके साथ थी। फिल्म शान की कहानी तैयार हो गई। इस कहानी में इयान फ्लेमिंग के उपन्यासों और जेम्स बांड सीरीज की फिल्मों के खलनायक ब्लोफेल्ड पर आधारित एक खलचरित्र रचा गया। शाकाल नाम का ये चरित्र गंजा है। शोले की तरह ही इस फिल्म को मल्टी स्टारर बनाने की योजना बनी। रमेश सिप्पी चाहते थे कि फिल्म शोले में काम करनेवाले अभिनेता और अभिनेत्री फिल्म शान में भी अलग अलग भूमिका करें। शाकाल की भूमिका के लिए रमेश सिप्पी पहले संजीव कुमार को चाहते थे लेकिन उनकी अन्यत्र व्यस्तता थी। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी भी शान फिल्म के लिए समय नहीं निकाल सके तो शशि कपूर और बिंदिया गोस्वामी को भूमिकाएं दी गईं। कुछ दिनों पहले धर्मेन्द्र ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वो चाहते थे कि फिल्म शान में काम कर सकें लेकिन उनके पास डेट्स नहीं थी। जब फिल्म शोले बन रही थी तब भी गब्बर सिंह के किरदार के लिए रमेश सिप्पी की पसंद संजीव कुमार थे। इस बात का उल्लेख कई पुस्तकों में मिलता है। फिल्म शोले के रिलीज होने के दो वर्ष बाद शान का निर्माण आरंभ हो गया था। तीन वर्षों में ये फिल्म बनकर तैयार हुई। इस फिल्म पर निर्माता ने काफी खर्च किया था। ये उस समय की सबसे महंगी फिल्मों में एक थी। एक द्वीप पर फिल्म का भव्य सेट और सुनहरी चील ने दर्शकों का ध्यान खींचा था। 

आज से करीब 45 वर्ष पूर्व एक द्वीप के अंदर तकनीक के तामझाम के साथ शूट करना कठिन था। कुलभूषण खरबंदा अभिनीत किरदार शाकाल जिस कुर्सी पर बैठता था उसके सामने कई रंगों की जलती बुझती बत्तियां और कई तरह के स्विच और लीवर एक शहरी खलनायक की ऐसी छवि दर्शकों के समक्ष उपस्थित करते थे जिसके मोहपाश में बंधने की संभवना थी। अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, जीनत अमान, राखी जैसे कलाकार फिल्म को हिट कराने के लिए काफी थे। शाकाल के गुर्गों की भूमिका भी बेहतरीन अभिनेताओं को दी गई। शोले में सांभा की भूमिका निभानेवाले मैकमोहन शाकाल के साथी जगमोहन की भूमिका में थे। सितारों और भव्यता के बावजूद फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। बाद में शान को लोगों ने पसंद किया। यह अद्भुत संयोग है कि रमेश सिप्पी की फिल्म शोले भी पहले सफल नहीं हुई लेकिन बाद के दिनों में जबरदस्त हिट रही। शान जबरदस्त हिट तो नहीं हो सकी लेकिन इसके क्राफ्ट ने इसको कल्ट फिल्म बना दिया। रमेश सिप्पी ने सलीम जावेद के लिखे किरदार शाकाल को इस तरह से पर्द पर गढ़ा कि उसका गंजापन और संवाद अदायगी दर्शकों को पसंद आई। कुलभूषण खरबंदा ने पर्दे पर शाकाल को जीवंत कर दिया। फिल्म के अंतिम दृष्य में जब उसको गोली लगती है और तो वो कहता है कि मुझे मालूम है कि मैं मरनेवाला हूं लेकिन तुमलोग भी बचोगे नहीं। ऐसा कहने के पहले शाकाल एक हैंडल को नीचे की ओर झुका देता है जिससे उसका ठिकाना धमाके में नष्ट हो जाए। कुलभूषण खरबंदा की संवाद अदायगी बढिया थी। इस फिल्म में एक गाना है यम्मा यम्मा, इसको आर डी बर्मन और मोहम्मद रफी ने साथ मिलकर गाया है। दोनों का साथ गाया ये एकमात्र गाना है। आज इस फिल्म को बने 45 वर्ष हो गए लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के खलनायकों की बात होती है तो शाकाल का नाम भी उसमें आता है। 

Saturday, November 29, 2025

घटनाओं का काल्पनिक कोलाज


हाल ही में दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुई। द फैमिली मैन का सीजन तीन और महारानी का सीजन चार। महारानी सीजन चार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रिलीज हुई। बिहार की राजनीति को केंद्र में रखकर बनी ये वेबसीरीज उस दौरन चर्चा में रही। प्रधानमंत्री कार्यालय के खबर रोकने के लिए फोन किए जाने के दृश्य को लेकर चुनाव के दौरान विपक्षी ईकोसिस्टम के कुछ लोगों ने माहौल बनाने का प्रयास किया था। इन दोनों सीरीज में समानता है। दोनों कहीं न कहीं राजनीति और उसके दाव-पेंच पर आधारित है। राजनीति के साथ-साथ अपराध और आतंकवाद भी समांतर कहानी के तौर पर चलती है। दोनों वेबसीरीज में लेखक ने पिछले दशकों की राजनीतिक घटनाओं को उठाया है और उसका काकटेल बनाकर एक काल्पनिक कहानी गढ़ने का प्रयास किया है। ऐसी काल्पनिक कहानी जिसमें भारतीय राजनीति की कुछ घटनाएं तो दिखती हैं लेकिन उसका कालखंड मेल नहीं खाता है। कई प्रधानमंत्रियों के स्वभाव और उनके कालखंड में घटी घटनाओं को जोड़कर एक ऐसा प्रधानमंत्री बना दिया गया जिससे कि इसको काल्पनिक कहा जा सके। महारानी सीरीज में जिस प्रधानमंत्री को दिखाया गया है उसमें नरसिम्हाराव से लेकर अटल जी की छवि दिखती है। इसी तरह से फैमिली मैन में महिला प्रधानमंत्री दिखाया गया है लेकिन घटनाएं अलग अलग दौर की जोड़ दी गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक किरदार के राजनीतिक पहचान को उजागर तो करना चाहता है लेकिन बचने का रास्ता भी बनाकर चलता है। कहानी कहने की ये प्रविधि अपेक्षाकृत नई है। दर्शकों के सामने ये चुनौती होती है कि वो राजनीति के पात्रों को सीरीज में पहचाने और फिर घटनाओं का आनंद ले।

एक और चीज जो दोनों वेबसीरीज में समान रूप से प्रमुखता से उपस्थित है। वो है इसका अंत। फैमिली मैन के सात एपिसोड देखने के बाद भी दर्शकों को पूर्णता का एहसास नहीं होता और एक जिज्ञासा रह जाती है कि आगे क्या? म्यांमार में आपरेशन के बाद तमाम भारतीय सिपाही और एजेंट भारत लौट आते हैं लेकिन नायक मनोज वाजपेयी म्यांमार की सीमा में ही अचेत होकर गिरते दिखते हैं। सीरीज समाप्त हो जाती है। खलनायक की भूमिका निभा रहे जयदीप अहलावत भी फरार हो जाते हैं और दर्शकों के मन में प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि उसका क्या हुआ? वो भी घायल है। महारानी सीरीज में हुमा कुरैशी ने रानी भारती का किरदार निभाया है जिसको पहले सीजन से ही राबड़ी देवी से प्रेरित बताकर प्रचारित किया जा रहा है। इस सीजन में वो प्रधानमंत्री बनना चाहती है लेकिन उसके मंसूबों पर प्रधानमंत्री जोशी पानी फेर देते हैं। राजनीति के इन चालों के बीच उसके बेटे जयप्रकाश भारती और उसके दोस्त की लाश मिलती है। जयप्रकाश क्षेत्रीय दलों को रानी भारती के समर्थन केक लिए तैयार कर रहा था। रानी भारती की बेटी जिसको बिहार की मुख्यमंत्री दिखाया गया है उसको भी एक घोटाले का आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया जाता है। इस सीरीज में भी कई घटनाक्रम भारतीय राजनीति से जुड़े हैं। रानी भारती की पार्टी के अधिकतर विधायक उसका साथ छोड़कर नई पार्टी बना लेते हैं। रानी के विश्वस्त मिश्रा के नेतृत्व में बिहार में नई सरकार बनती है। ये दृष्य कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का विभाजन याद दिलाती है। रानी भारती के बड़े बेटे की लाश मिलती है, बेटी जो मुख्यमंत्री थी अब जेल में है। रानी बिल्कुल अकेली पड़ जाती है। विदेश में पढ़ रहा उसका दूसरा बेटा उसके साथ खड़ा हो जाता है। रानी भारती को पता चलता है कि उसके बेटे की योजनाबद्ध तरीके से हत्या की गई है। जब प्रधानमंत्री जोशी उसके पुत्र के निधन पर संवेदना प्रकट करने आते हैं तो वो उनसे कहती है कि जिस तरह से उसने अपने पति भीमा भारती के हत्यारों को सजा दी उसी तरह से वो अपने बेटे जयप्रकाश के हत्यारों को भी ढूंढ निकालेगी और सजा देगी या दिलवाएगी। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।  

दोनों वेब सीरीज के अंत में दर्शकों को पूर्णता का अहसास नहीं होता है। ऐसा लगता है कि निर्माता या प्लेटफार्म अगले सीजन के लिए उत्सुकता बनाए रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि निर्माता और प्लेटफार्म दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने के लिए कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं ताकि दर्शकों को इस बात का अनुमान रहे कि अगले सीजन में कहानी आगे बढ़ेगी। प्रश्न यही उठता है कि जो दर्शक सात और आठ एपिसोड देख रहा है और तीन या चार सीजन देख रहा है उसको पूरी कहानी के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी चाहिए। सीक्वल का एक तरीका तो ये भी हो सकता है जो साधरणतया फिल्मों में अपनाया जाता है। फिल्म दबंग या फिर एक था टाइगर, टाइगर जिंदा है और टाइगर 3 को देखा जा सकता है। तीनों फिल्म अपने आप में पूर्ण है लेकिन सीक्वल की संभावना भी बनी हुई है। पर वेब सीरीज तो जैसे दर्शकों के धैर्य की प्रतीक्षा लेना चाहते हैं। क्या दर्शकों को छह सात घंटे देखने के बाद कहानी की पूर्णता नहीं मिलनी चाहिए। इन दोनों सीरीज के आखिर में लगता है कि कुछ मिसिंग है। इस मीसिंग को सीक्वल की संभावना बताकर सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर इसी तरह का व्यवहार दर्शकों के साथ किया जाता रहा तो संभव है कि दर्शकों का वेब सीरीज से मोहभंग हो जाए। वेब सीरीज के लेखक को, फिल्म के निर्देशक को और उसको प्रसारित करनेवाले प्लेटफार्म को इसपर विचार करना चाहिए।

एक और बात जो इन वेब सीरीज से जुड़े लोगों को सोचना होगा कि जिस कालखंड की कहानी दिखा रहे हैं उस कालखंड में वो सारी चीजें होनी चाहिए जो वेब सीरीज में दिखाई जा रही हैं। अगर 2005 के कालखंड की घटनाओं को मुंबई में घटित होते दिखा रहे हैं तो बांद्रा वर्ली सी लिंक कैसे दिखा सकते हैं। 2005 में तो वो बना ही नहीं था। उस कालखंड की कहानी दिखाते समय इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि उस समय ट्वीटर प्रचलन में था या नहीं। अगर नहीं था तो फिर उस दौर की घटनाओं को ट्वीटर पर ट्रेंड करते हुए कैसे दिखा सकते हैं। ये छोटी बाते हैं लेकिन इनका अपना एक महत्व है। घटनाओं का कोलाज बनाने के चक्कर में इस तरह की छोटी पर महत्वपूर्ण भूल दिख जाती है जो लेखक और निर्देशक की सूझबूझ पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं। आज के दौर की कई वेबसीरीज में इस तरह की घटनाएं आपको दिख जाएंगी। कल्पनिकता की आड़ में इस तरह की छूट नहीं ली जा सकती है। कहानी जिस कालखंड में सेट होती है उस कालखंड की विशेषताओं का ध्यान रखना होता है। अलग अलग समय पर हुए प्रधानमंत्रियों के गुणों और अवगुणों को मिलाकर एक चरित्र तो गढ़ सकते हैं लेकिन उस दौर की स्थायी चिन्हों को नहीं बदल सकते। किसी पात्र को संसद भवन ले जाते हैं तो उसको नई संसद के गेट पर उतरते हुए दिखाना होगा ना कि पुरानी संसद के पोर्टिको में। काल्पनिकता को भी एक प्रकार की प्रामाणिकता की जरूरत होती है।  

Saturday, November 22, 2025

फिल्मों से छूटता संवेदना का सिरा

पिछले दिनों मुंबई में जागरण फिल्म फेस्टिवल, 2025 का समापन हुआ। सितंबर के पहले सप्ताह में दिल्ली में आरंभ हुआ जागरण फिल्म फेस्टिवल 14 शहरों से होता हुआ मुंबई पहुंचा। मुंबई में फिल्म फेस्टिवल के अंतिम दिन पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम था। प्रख्यात निर्देशक प्रियदर्शन को जागरण फिल्म फेस्टिवल में जागरण अचीवर्स अवार्ड से सम्मानित किया गया। प्रियदर्शन ने बताया कि उनके पिता लाइब्रेरियन थे इस कारण उनको पुस्तकों तक पहुंचने की सुविधा थी।  घर पर भी ढेर सारी पुस्तकें थीं। उन्हें बचपन से अलग अलग विधाओं की पुस्तकें पढ़ने का आदत हो गई। किशोरावस्था में उन्होंने कामिक्स भी खूब पढ़ा। इससे उनको फ्रेम और अभिव्यक्ति की समझ बनी। प्रियदर्शन ने कहा कि उनका अध्ययन उनके निर्देशक होने की राह में सहायक रहा। आगे बताया कि पुस्तकों में पढ़ी गई घटना किसी
फिल्म की शूटिंग के दौरान याद आ जाती है जिससे फिल्मों के दृश्यों को इंप्रोवाइज करने में मदद मिलती है। प्रियदर्शन ने विरासत, हेराफेरी जैसी कई सफल हिंदी फिल्में बनाई हैं। इसके अलावा अंग्रेजी, मराठी, मलयालम, तमिल और तेलुगू में उन्होंने बेहतर फिल्में बनाई हैं। पुरस्कार वितरण समारोह समाप्त होने के बाद फिल्मों से जुड़े लोगों से बात होने लगी। इसी दौरान फिल्म ओ माय गाड- 2 के निर्देशक अमित राय वहां आए। उनसे मैंने प्रियदर्शन की पुस्तक वाली बात बताई। वो मुस्कुराए और बोले मेरे पास भी एक अनुभव है सुनाता हूं। 

अमित राय ने जो सुनाया वो बेहद चिंताजनक बात थी। उन्होंने कहा कि एक दिन किसी फिल्म पर चर्चा हो रही थी। वहां एक निर्देशक भी थे। अपेक्षाकृत युवा हैं लेकिन उनकी दो तीन फिल्में सफल हो चुकी हैं। कहानियों पर बात होने लगी। एक उत्साही लेखक ने कहा कि उसने कहानी पर स्क्रिप्ट डेवलप की है और वो सुनाना चाहता है। निर्देशक महोदय ने सुनने की स्वीतृति दी। दो दिन बाद मिलना तय हुआ। तय समय पर स्क्रिप्ट लेकर लेखक महोदय वहां पहुंचे। दो घंटे की सीटिंग हुई। स्क्रिप्ट और कहानी सुनकर निर्देशक महोदय बेहद खुश हो गए। उन्होंने जानना चाहा कि ये किसकी कहानी है। स्क्रिप्ट लेखक ने बहुत उत्साह के साथ बताया कि कहानी प्रेमचंद की है। निर्देशक महोदय ने फौरन कहा कि प्रेमचंद को फौरन टिकट भिजवाइए और मुंबई बुलाकर इस कहानी के अधिकार उनसे खरीद लिए जाएं।। कहानी के अधिकार के एवज में उनको बीस पच्चीस हजार रुपए भी दिए जा सकते हैं। निर्देशक महोदय की ये बातें सुनकर बेचारे स्क्रिप्ट लेखक को झटका लगा। उन्होंने कहा कि सर प्रेमचंद जी अब इस दुनिया में नहीं हैं और उनकी कहानियां कापीराइट मुक्त हो चुकी हैं। निर्देशक महोदय ये सुनकर प्रसन्न हुए और बोले तब तो कोई झंझट भी नहीं है। इसपर काम आरंभ किया जाए। उस समय तो अमित राय की बातें सुनकर हंसी आई। हम सबने इस प्रसंग को मजाक के तौर पर लिया। देर रात जब मैं होटल वापस लौट रहा था तब अमित को फोन कर पूछा कि क्या सचमुच ऐसा घटित हुआ था। अमित ने बताया कि ये सच्ची घटना है। मैं विचार करने लगा कि हिंदी फिल्मों का निर्देशक प्रेमचंद को नहीं जानता। जो हिंदी प्रेमचंद के नाम पर गर्व करती है, जो हिंदी के शीर्षस्थ लेखक हैं और जिनकी कितनी रचनाओं पर फिल्में बनी हैं उनको एक सफल निर्देशक नहीं जानता। ये अफसोस की बात है। 

आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बात करें तो वहां हिंदी जानने वाले कम होते जा रहे हैं। हिंदी की परंपरा को जानने वाले तो और भी कम। आज हिंदी फिल्मों के गीतों के शब्द देखें तो लगता है कि युवा गीतकारों के शब्द भंडार कितने विपन्न हैं।  हिंदी पट्टी के शब्दों से उनका परिचय ही नहीं है। वो शहरों में बोली जानेवाली हिंदी और उन्हीं शब्दों के आधार पर लिख देते हैं। यह अकारण नहीं है कि समीर अंजान के गीत पूरे भारत में पसंद किए जाते हैं। समीर वाराणसी के रहनेवाले हैं और नियमित अंतराल पर काशी या हिंदी पट्टी के साहित्य समारोह से लेकर अन्य कार्यक्रमों में जाते रहते हैं। एक बातचीत में उन्होंने बताया था कि लोगों से मिलने जुलने से और उनको सुनने से शब्द संपदा समृद्ध होती है। इससे गीत लिखने में मदद मिलती है। हिंदी फिल्मों के एक सुपरस्टार के बारे में भी एक किस्सा मुंबई में प्रचलित है। कहा जाता है कि उनके पास तीन चार सौ चुटकुलों का एक संग्रह है। वो अपनी हर फिल्म में चाहते हैं कि उनके चुटकुला बैंक से कुछ चुटकुले निकालकर संवाद में जोड़ दिए जाएं। उनका इस तरह का प्रयोग एक दो फिल्मों में सफल रहा है। नतीजा ये कि अब वो अपनी हर फिल्म में चुटकुला बैंक का उपयोग करना चाहते हैं। आज हिंदी फिल्मों के संकट के मूल में यही प्रवृत्ति है। हिंदी पट्टी की जो संवेदना है उसको मुंबई में रहनेवाले हिंदी के निर्देशक न तो पकड़ पा रहे हैं और ना ही उसको अपनी फिल्में में चित्रित कर पा रहे हैं। भारत की कहानियों की और भारतीय समाज की ओर जब फिल्में लौटती हैं तो दर्शकों को पसंद आती हैं। दर्शकों को फिल्म पसंद आती है तो वो अच्छा बिजनेस भी करती है। कोई हिंदी फिल्म 100 करोड़ का बिजनेस करती है तो शोर मचा दिया जाता है कि फिल्म ने 100 करोड़ या 200 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया। उनको ये समझ क्ययों नहीं आता कि कन्नड फिल्म कांतारा ने सिर्फ कन्नड़ दर्शकों के बीच 300 करोड़ का कारोबार किया। कन्नड़ की तुलना में हिंदी फिल्मों के दर्शक कई गुणा अधिक हैं। अगर अच्छी फिल्म बनेगी कितने सौ करोड़ पार कर सकेगी। फिल्मकारों को ये सोचना होगा। 

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां हिंदी फिल्मों में हिंदी के दर्शकों की संवेदना को छुआ नहीं और दर्शकों ने उसको नकार दिया। पौराणिक पात्रों पर फिल्में बनाने वालों से भी इस तरह की चूक होती रही है। कई बार तो आधुनिकता के चक्कर में पड़कर पात्रों से जो संवाद कहलवाए जाते हैं वो भी दर्शकों के गले नहीं उतरते हैं। हिंदी का लोक बहुत संवेदनशील है। जब उसकी संवेदना से छेड़छाड़ की जाती है तो नकार का सामना करना पड़ता है। राज कपूर यूं ही नहीं कहा करते थे कि हिंदी फिल्मों की कहानियां प्रभु राम के चरित से या रामकथा से प्रेरित होती हैं। एक नायक है, एक नायिका है और खलनायक आ गया। अब ये लेखक के ऊपर है कि वो रामकथा को क्या स्वरूप प्रदान करता है और निर्देशक उसको किस तरह से ट्रीट करता है। जो भी लेखक या निर्देशक रामकथा के अवयवों को पकड़ लेता है उसकी फिल्में बेहद सफल हो जाती हैं। कारोबार भी अच्छा होता है। लेकिन जो निर्देशक पहले से ही 100 या 200 करोड़ का लक्ष्य लेकर चलता है वो कहानी में मसाला डालने के चक्कर में राह से भटर जाता है और फिल्म असफल हो जाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि फिल्मों के लेखक और निर्देशक भारतीय मानस को समझें और उसकी संवेदना की धरातल पर फिल्मों का निर्माण करें। बेसिरपैर की कहानी एक दो बार करोड़ों कमा सकती है लेकिन ये दीर्घकालीन सफलता का सूत्र बिल्कुल नहीं है। 


सर्वोच्च शिखर पर धर्म-ध्वजा


भारतवासियों के आराध्य प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर अयोध्या में भव्य और दिव्य श्रीराम मंदिर परिसर का निर्माण कार्य पूरा होने को है। श्रीराम मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा तो 22 जनवरी 2024 को हुआ था लेकिन परिसर में अन्य मंदिरों और टीलों के निर्माण से पूरे परिसर को भव्यता मिल रही है। आगामी 25 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुख्य मंदिर का पताकारोहण करेंगे। मुख्य मंदिर का ध्वज  बाइस फीट और ग्यारह फीट आकार का  होगा। केसरिया रंग के ध्वज में रामायणकालीन कोविदार वृक्ष और इक्ष्वाकु वंश के प्रतीक सूर्यदेव, ओंकार के साथ अंकित होंगे। इसके अलावा परिसर में जो अन्य सात मंदिर हैं उन सभी के ध्वज का रंग केसरिया होगा जिसके केंद्र में सूर्यदेव ओंकार के साथ अंकित किए जाएंगे । इस विशाल और भव्य मंदिर के निर्माण की आधारशिला प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 5 अगस्त 2020 को विधि विधान के साथ रखी थी। मंदिर की आधारशिला के दौरान 1989 में विश्वभर से आई शिलाओं में से 9 शिलाओं की भी पूजा की गई थी और उन्हें मंदिर  की नींव में डाली गई । 1989 में श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान दुनिया भर से मंदिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके अयोध्या भेजी गई थीं। लगभग 5 वर्षों में नव्य मंदिर का परिसर पूर्ण हुआ। परिसर के मंदिरों के निर्माण में करीब 5 लाख बीस हजार घनफुट गुलाबी सैंड स्टोन का उपयोग किया गया है जो राजस्थान के बंसी पहाड़पुर से लाया गया। इससे मंदिर की भव्यता अलग ही दिखती है। 

मुख्य मंदिर में जहां से गर्भगृह आरंभ होता है वहां सफेद संगमरमर शिलाओं पर उकेरी गई चंद्रधारी गंगा यमुना की बहुत ही सुंदर मूर्तियां हैं। गर्भगृह की बाईं तरफ बड़े से मंडप में एक ताखे पर गणेश जी की मूर्ति है और उसके ऊपर रिद्धि सिद्धि और शुभ लाभ के चिन्ह बनाए गए हैं। एक ताखे में हनुमान जी की प्रणाम मुद्रा की मूर्ति के ऊपर अंगद, सुग्रीव और जामवंत की मूर्तियां बनाई गई हैं। गर्भगृह के मुख्यद्वार के ठीक ऊपर समस्त सृष्टि के पालक विष्णु भगवान की शेषनाग पर लेटी मुद्रा को पत्थर पर उकेरा गया है। उनके पांव के पास देवी लक्ष्मी जी बैठी हुई हैं। शेषशैया पर लेटे विष्णु भगवान के साथ ब्रह्माजी और शिवजी की मूर्तियां भी बनाई गई हैं। गर्भगगृह के ऊपर वाले तल पर श्रीराम दरबार है और उसके ऊपरी तल पर विशाल जगमोहन बनाया गया है जो अभी खाली है। इस जगह का क्या उपयोग होगा ये श्रीरामतीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट तय करेगा। मुख्य मंदिर के उत्तर-पूर्व में विशाल यज्ञमंडप का निर्माण किया गया है और उसके पास ही सीता कूप भी बनाया गया है।परिसर में भगवान गणेश, शंकर, सूर्य भगवान, हनुमान जी, मां दुर्गा और माता अन्नपूर्णा का मंदिर भी निर्मित किया गया है। मंदिर निर्माण से जुड़े लोगों ने बताया कि जहां पहले सीता रसोई हुआ करती थी उसी जगह या उसके पास ही माता अन्नपूर्णा का मंदिर बनाया गया है। इन मंदिरों के अलावा शेष रूप में लक्ष्मण जी की मूर्ति वाले शेषावतार मंदिर को भी नव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। इन मंदिरों की मूर्तियों का स्केच पद्मश्री वासुदेव कामत ने तैयार किया और मूर्तियों का निर्माण जयपुर में करवाया गया। वहां से प्रतिमा को अयोध्या लाकर मंदिरों में स्थापित किया गया है।   

श्रीरामजन्मभूमि परिसर में बहुत ही सुंदर तरीके से सप्त मंदिर बनाया गया है। इन सात मंदिरों में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का मंदिर है। महर्षि वाल्मीकि ने ही भारतीय स्संकृति के जीवनदर्शों के दीपस्तंभ रूप रामायण की रचना की थी। इनके साथ ही सूर्यवंश के कुलगुरू महर्षि वसिष्ठ के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने तपोबल से रघुवंश के नरेशों को बल प्रदान किया और सनातन के सुयश का विस्तार किया। किशोर श्रीराम को शिक्षित करने के लिए अपने साथ ले गए और प्रशिक्षण के दौरान महादेव से प्राप्त विविध दिव्यास्त्र श्रीराम को प्रदान किए। इनके साथ ही देवी अहल्या का मंदिर बनाया गया है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार प्रभु श्रीराम के वंदन स्पर्श से पाषाण रूपी अहल्या शापमुक्त होकर स्त्री रूप में वापस आईं। महर्षि अगस्त्य को राष्ट्रसंरक्षक ऋषि कहा जाता है, इनका मंदिर भी जन्मभूमि परिसर में सप्त मंदिर में से एक है। माता शबरी और निषादराज गुह के मंदिर भी बनाए गए हैं। मंदिरों के अलावा इस परिसर में कई टीलों को भी भव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। श्री कुबेर टीला इनमें से एक है। पार्वती-शंकर संवाद में जिन प्रमुख तीर्थों की चर्चा आती है उनमें श्रीरामकोट जैसे पवित्र स्थान पर जन्मभूमि समेत कई स्थानों की चर्चा है जिनमें से कुबेर टीला का उल्लेख भी है। मान्यता है कि धन-धान्य के प्रतीक स्वरूप कुबेर जी का यहां निवास है। रुद्रमयाल में इस बात का भी उल्लेख है कि कुबेर टीला के पूर्व में सुषेण जी और उत्तर में गवाक्ष जी स्थापित हैं। 1902 में एडवर्ड तीर्थ विवेचनी सभा का शिलालेख यहां स्थापित किया गया है। इसके अलावा अंगद टीला को भी नव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। जटायु की बड़ी सी आकृति भी मंदिर परिसर में स्थापित की गई है। जनश्रुतियों में रामकथा में गिलहरी की खूब चर्चा होती है। रामसेतु के निर्माण में गिलहरी ने भी अपना योगदान किया था। लोक की इस मान्यता को भी परिसर में स्थापित किया गया है। स्थल का नाम है पावन गिलहरी। ये संदेश देती है कि सूक्ष्म जीव भी अपने प्रयास से किसी बड़े अभियान का हिस्सा हो सकते हैं। तीर्थयात्री सहायता केंद्र के बिल्कुल समीप तुलसीदास जी की भव्य प्रतिमा स्थापित की गई है। 

जन्मभूमि परिसर के चार दरवाजे वैष्णव परंपरा के संतों के नाम पर रखे गए हैं। जगदगुरु श्रीरामानंदाचार्य जगदगुरु श्री माध्वाचार्य, जगदगुरु आद्य शंकराचार्य और जगदगुरु श्रीरामानुजाचार्य। इसके अलावा परिसर में 732 मीटर लंबा एक परकोटे का निर्माण किया गया है जिसपर भारत दर्शन और नीति व बोध कथाएं, ब्रॉन्ज पैनल के रूप में उकेरी गई हैं। इनकी संख्या 79 है। इसे गोविंद देव गिरी के निर्देशन में संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र ने चयनित किया है। इसकी ड्राइंग वासुदेव कामथ जी ने बनाई है, जिसे देश भर के अलग अलग कलाकारों ने तैयार किया है। मुख्य मंदिर के लोअर प्लिंथ पर वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुरूप विविध विषयों के चित्र प्रख्यात चित्रकार वासुदेव कामथ ने बनाया है। इसका परिचयात्मक लेखन यतीन्द्र मिश्र ने तैयार किया है। पत्थर पर निर्मित ये थ्री डी कलात्मक संयोजन देश के पत्थर पर काम करने वाले विशिष्ट कलाकारों ने बनाया है। इनकी कुल संख्या 87 है। मंदिर परिसर में एक स्मृति स्तंभ का भी निर्माण किया गया है जिसपर उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों के नाम अंकित हैं जिन्होंने श्रीराम मंदिर के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। पताकारोहण के साथ ही श्रीराम मंदिर विश्व भर के श्रद्धालुओं के लिए परम पूज्य पावन तीर्थ के नव्य स्वरूप का निर्माण पूर्णता प्राप्त कर लेगा । 


Saturday, November 15, 2025

जड़ों की ओर लौटता हिंदी लेखन


पिछले दिनों जब बुकर पुरस्कार की घोषणा हुई तो लेखक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, देर रात बुक प्राइज की घोषणा हुई और इस बार ये पुरस्कार DAVID SZALAY के उपन्यास फ्लेश को मिला। वो कनाडा मूल के लेखक हैं। सबसे पहले उनके नाम का उच्चारण ढूंढा – वह है डेविड सोलले । अमेजन पर इनका उपन्यास खरीदा। सबसे सस्ता किंडल संस्करण मिला, 704 रु में।... एक बात समझ में आई कि इस बार शार्टलिस्ट में एक से अधिक उपन्यास ऐसे थे जिनमें अकेलापन, बेमेल दुनिया की बातें थीं। यह भी कुछ उसी तरह का उपन्यास है। अलग अलग भाषाओं में इस तरह की कहानियां और उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं। प्रभात रंजन की इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ध्यान वैश्विक लेखन की ओर चला गया। कुछ दिनों पहले साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक लास्जलो क्रास्जनाहोरकाई के लेखन में भी अकेलापन और निराशा कई बार प्रकट होता है। पहले के लेखक भी इस तरह का लेखन करते रहे हैं। पश्चिमी देशों के अलावा जापान और कोरिया के कई लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में भी अकेलापन और उसका दंश, उससे उपजी निराशा और फिर समाज पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जापान के विश्व प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी के उपन्यासों में भी अकेलापन प्रमुखता से आता है। जापान के समाज में अकेलापन एक बड़ी समस्या है तो जाहिर सी बात है कि वहां के लेखकों पर इस समस्या का प्रभाव होगा। उनकी कहानियों के पश्चिमी देशों में लाखों पाठक हैं। क्या कारण है कि पश्चिमी दुनिया में उनके अपने लेखकों और अन्य देशों के लेखकों की वो रचनाएं लोकप्रिय होती हैं जिसका विषय अकेलापन और अवसाद होता है। मुराकामी मूल रूप से जापानी में लिखते हैं। अमेरिका में रहते हैं। विश्व की कई अन्य भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद होता है। अनूदित पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं। क्या पश्चिमी देश के पाठक अकेलेपन की इस समस्या से स्वयं को जोड़ते हैं इसलिए उनको इस तरह का लेखन पसंद आता है ? इसका एक पहलू ये भी है कि नोबेल विजेता से लेकर बुकर से पुरस्कृत कई लेखक अध्यात्म और भारत की चर्चा करते हैं।  

बुकर पुरस्कार की घोषणा के पहले दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की जुलाई सितंबर 2025 की तिमाही की सूची प्रकाशित हुई। ये सूची हिंदी में सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों के आधार पर विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन तैयार करती है। इस सूची में कथा, कथेतर, अनुवाद और कविता की पुस्तकें होती हैं। इसमें जो पुस्तकें आई हैं उसकी अनुवाद श्रेणी पर नजर डालते हैं, द हिडन हिंदू (सभी खंड), महागाथा, पुराणों से 100 कहानियां, नागा वारियर्स दो खंड, शौर्य गाथाएं, संसार, देवताओं की घाटी में प्रवेश। इनको देखने पर ये प्रतीत होता है कि भारत में हिंदी के पाठक धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कथाएं पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। पाठकों को वर्गीकरण करना आसान नहीं है कि किस आयुवर्ग के कितने पाठक हैं और वो कौन सी पुस्तकें पसंद कर रहे हैं। लेकिन सूची को देखने से एक बात तो स्पष्ट होती है कि हिंदी में उन विषयों पर लिखी पुस्तकें खूब बिक रही हैं जहां धर्म है, अध्यात्म है और जहां मन की शांति की बातें है। पश्चिम के पाठक अकेलेपन, अवसाद और निराशा की कहानियां पढ़ रहें हैं वहीं हिंदी के पाठक उससे बिल्कुल अलग धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कहानियों या पुस्तकों में रुचि दिखा रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं इसपर विचार करने की आवश्यकता है। क्या पश्चिम के समाज में और भारतीय समाज में जो मूलभूत अंतर है वो इसका कारण है या जो पारिवारिक संस्कार भारत में पीढ़ियों से चले आ रहे हैं वो वजह है? 

अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम के समाज में जो संस्कार हैं वो भारतीय संस्कारों से अलग है। हमारे यहां जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य, नैतिकता और मर्यादा की स्थापना की बात होती है वैसी बातें पाश्चात्य समाज में नहीं होती है। हमारे समाज में विवाह से संतान प्राप्ति की बात होती है, विवाह संस्कार के बाद सात जन्मों के रिश्ते की बात है। विवाहोपरांत संतानोत्पत्ति की महत्ता स्थापित है और उसको मोक्ष से जोड़ा जाता रहा है। पश्चिमी देशों में सात जन्मों के रिश्ते की बात तो दूर वहां एक ही जन्म में सात रिश्ते की बातें होती हैं। वहां मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं है इस कारण संतानोत्पत्ति को एक जैविक क्रिया तक ही सीमित रखा जाता है। पश्चिम के लेखन में मानसिक अवसाद एक कला के तौर पर रेखांकित की जाती रही है जिसमें मानवीय संवेदना और सकारात्मकता अनुपस्थित होता है। पश्चिम के नाटकों में ट्रेजडी महत्वपूर्ण है। जबकि हमारे यहां का नाट्यशास्त्र फल-प्राप्ति पर आधारित है। कोई भी काम किया जाता है तो उसके पीछे के संदेश और समाज या मानव के बेहतरी का भाव रहता है। ज्ञान के प्रकार के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 20, 21 और 22 में बताया गया है। कहा गया है कि जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक -पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहते हैं। अगले श्लोक में बताया गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। ज्ञान के अंतिम प्रकार के बारे में गीता में कहा गया है कि जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है उसको तामस कहा गया है। गीता के इन तीन श्लोकों के ज्ञान के प्रकार को विश्लेषित करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लेखन क्यों और किस कारण से पश्चिमी लेखन से अलग है। समभाव की बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस भारतीय ज्ञान परंपरा की बात होती है उसके सूत्र भी गीता के इन श्लोकों में देखे जा सकता हैं। 

हिंदी में भी निर्मल वर्मा, कृष्ण बदलदेव वैद्य, स्वदेश दीपक जैसे कुछ लेखकों ने अकेलेपन और अवसाद को विषय बनाकर लिखा है लेकिन माना गया कि पाश्चात्य प्रभाव में ऐसा किया गया। वामपंथ के प्रभाव या दबाव में जो लेखन हुआ वो अति यथार्थवाद का शिकार होकर लोक से दूर होता चला गया क्योंकि उसमें विद्रोह तो था पर अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव से देखने की युक्ति नहीं थी। स्वाधीनता पूर्व का अधिकतर हिंदी लेखन रचनात्मकता समभाव की जमीन पर खड़ी नजर आती है। हिंदी साहित्य में जितना पीछे जाएंगे ये भाव उतना ही प्रबल रूप में दिखता है। यह अकारण नहीं है कि साठोत्तरी कविता और कहानी ने इस भाव से दूर जाकर नई पहचान बनाने की कोशिश की। जब इस तरह का लेखन फार्मूलाबद्ध हो गया तो पाठक इससे दूर होने लगे। आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी लेखन अपनी जड़ों की ओर लौटे, संकेत मिल रहे हैं लेकिन इसको प्रमुख स्वर बनाना होगा। 


Sunday, November 9, 2025

वादा तो निभाया


फिल्म जानी मेरा नाम आज से करीब 55 साल पहले प्रदर्शित हुई थी और जबरदस्त हिट रही थी। इस फिल्म से कई बेहद दिलचस्प कहानियां जुड़ी हैं। अभी बिहार विधान सभा के चुनाव चल रहे हैं तो सबसे पहले बिहार से जुड़ा एक किस्सा। शूटिंग के लिए हेमा मालिनी और देवानंद नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के पास चलनेवाले रोपवे पर रोमांटिक सीन शूट कर रहे थे। नीचे शूटिंग देखनेवालों की भीड़ जमा थी। अचानक रोपवे का केबिन रुक गया। पता चला कि बिजली कट गई है। सीढ़ी लगाकर देवानंद और हेमा को नीचे उतारा गया। शूटिंग देखनेवालों की भीड़ के बीच पुलिस ने घेरा बनाया। जब दूसरा सीन शूट होने लगा तो किसी ने देवानंद को बताया कि भीड़ के आगे कुर्ता पायजामा पहने एक व्यक्ति खड़े हैं वो जयप्रकाश नारायण हैं। वो शूटिंग देखने आए हैं। देवानंद ने चौंक कर उनकी ओर देखा। नजरें मिलीं। जयप्रकाश जी मुस्कुरा रहे थे। फिर दोनों मिले इस प्रसंग की चर्चा देवानंद ने अपनी आत्मकथा में की है। दोनों के बीच इस फिल्म के दौरान हुई भेंट एक रिश्ते में बदली और देवानंद ने इमरजेंसी में तमाम दबाव के बावजूद इंदिरा गांधी का समर्थन नहीं किया। 

ये तो हुई शूटिंग की बात। फिल्म बनाने के निर्णय के पहले भी काफी रोचक घटनाएं हुईं। इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे गुलशन राय। इसके पहले उनकी फिल्म फ्लाप रही थी। उनके मित्र बी आर चोपड़ा ने उनको सलाह दी कि वो फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का ही काम किया करें। ये बात गुलशन राय को चुभ गई। उन्होंने तय किया कि वो एक ऐसी फिल्म जरूर बनाएंगे जो हिट हो। गुलशन राय का ज्योतिष में विश्वास था। वो पंजाब के होशियारपुर जाया करते थे। उन दिनों होशियारपुर में कई ज्योतिषी रहते थे जो महर्षि भृगु की परंपरा से खुद को जोड़ते हुए जन्मकुंडली बनाते थे। उनमें से एक ज्योतिष से गुलशन राय ने अपनी सफलता के बारे में जानना चाहा। उनको बताया गया कि गोल्डी नाम का एक व्यक्ति आपकी फिल्म बनाएगा तो बहुत हिट होगी। गुलशन राय की भी महर्षि भृगु में आस्था थी। आप याद करें उनकी फिल्मों में त्रिमूर्ति फिल्म्स के लोगो के पहले भृगु की तस्वीर आती थी। होशियारपुर से लौटकर उन्होंने गोल्डी (विजय आनंद) से बात की और फिल्म बनाना तय हुआ। विजय आनंद इस फिल्म का नाम ‘दो रूप’ रखना चाहते थे। गुलशन राय ज्योतिष और अंक गणना के हिसाब से फिल्म का नाम ज शब्द से रखना चाहते थे। आखिरकार फिल्म का नाम जानी मेरा नाम रखा गया। फिल्म में प्रेमनाथ का चयन भी ज्योतिष के कारण ही हुआ। प्रेमनाथ लगातार गोल्डी को फिल्म के लिए मना कर रहे थे। एक दिन गोल्डी उनसे मिलने पहुंच गए। अनीता पाध्ये ने लिखा है कि अचानक प्रेमनाथ को याद आया कि उनको हिमालय से आए एक ज्योतिषी ने कहा था कि उनको अगर किसी फिल्म का प्रस्ताव मिले तो मना मत करना। इसके बाद उन्होंने चेतन आनंद को स्वीकृति दे दी। 

राय ने फिल्म की नायिका के लिए हेमा का नाम सुझाया। गोल्डी को स्लिम नायिका चाहिए थी। उनको हेमा मालिनी के चलने का अंदाज और दक्षिण भारतीय उच्चारण भी नहीं भा रहा था। जब वो दोनों हेमा से मिले तो गोल्डी की राय बदल गई। हेमा मालिनी फिल्म में नायिका के तौर पर ले ली गईं। हीरो तो देवानंद थे ही। हीरो के भाई की खोज आरंभ हुई। गोल्डी को लगा कि प्राण से बेहतर कोई हो नहीं सकता। वो प्राण से मिलने पहुंचे। प्राण ने अपने अंदाज में डायरी उनके सामने रक दी और कहा कि जो डेट खाली हो ले लो। इतना सुनते ही गोल्डी वहां से उठे और चले गए क्योंकि उनको पता ता कि ये प्राण का मना करने का तरीका था। उधर प्राण को लग रहा था कि गोल्डी मिन्नतें करेंगे। जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो प्राण ने चकित होकर अपने सेक्रेट्री से कहा कि इस आदमी में कुछ तो बात है, इसको डेट्स दे दो। पद्मा खन्ना को चुने जाने की भी एक रोचक कहानी है। पद्मा जब चेतन आनंद से मिलने आईं तो उस समय् डंसर के रोल के लिए संघर्ष कर रही थीं। गोल्डी से जब मिलीं तो उनके दांत पान खाने के कारण लाल थे। बाल बिखरे हुए थे। बगैर मेकअप आदि के चेहरा भी पसीने से तरबतर था। चेतन आनंद ने पद्मा खन्ना से कहा कि डांसर का रोल तो दूंगा लेकिन पहले किसी अच्छे डेंटिस्ट से अपने दांत साफ करवाओ। वेस्टर्न कपड़े पहनो और पाश्चात्य डांस सीखो। पद्मा खन्ना ने ये सब किया। और आप याद करिए जानी मेरा नाम का पद्मा खन्ना पर फिल्माया गीत- हुस्न के लाखों रंग कौन सा रंग देखोगे। सेंसर बोर्ड ने इस गाने पर आपत्ति भी की थी। इन सबके बाद जब फिल्म रिलीज हुई तो जनता ने इसके गानों को, इसके फिल्मांकन को, इसके संवाद को, पात्रों के अभिनय को बेहद पसंद किया। हेमा मालिनी के करियर को नई राह मिली तो देवानंद भी नई ऊंचाई पर पहुंचे। पद्मा खन्ना को तो पहचान ही मिली। कहना ना होगा कि ये फिल्म जितनी अच्छी थी उतनी ही दिलचस्प है इसके बनने की कहानी।  


Saturday, November 8, 2025

इतिहास लेखन में प्रशासनिक ढिलाई


भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च यानि आईसीएचआर)। इसकी वेबसाइट पर इस संस्था के उद्देश्य का वर्णन है- भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का प्राथमिक उद्देश्य ऐतिहासिक शोध को बढ़ावा देना और उसे दशा देना तथा इतिहास के वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक लेखन को प्रोत्साहित और पोषित करना है। चौबीस बिंदुओं में विस्तार से वर्णित इस संस्था के उद्देश्यों में अंतिम उद्देश्य है समान्यत: देश में ऐतिहासिक अनुसंधान और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर आवश्यक समझे जानेवाले सभी उपाय करना। अंतिम उद्देश्य का दायरा बहुत विस्तृत है। इस संस्था के शीर्ष पर एक अध्यक्ष होते हैं और एक सदस्य सचिव। 2022 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उमेश अशोक कदम को आईसीएचआर के सदस्य सतिव के तौर पर नियुक्त किया गया था। वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में करीब नौ महीने तक ही इस पद पर बने रह सके। प्रकाशित खबरों के मुताबिक वित्तीय अनियमितता के आरोप इतने गंभीर थे कि मंत्रालय ने लंबे समय तक संस्था को आर्थिक मदद रोक दी थी। पता नहीं उन वित्तीय अनियमिततताओं की जांच हुई या जांच पूरी नहीं हो पाई है। कोई दोषी पाया जा सका या नहीं। 

उमेश अशोक कदम जी के पद छोड़ने के बाद से ही आईसीएचआर में कार्यवाहक सदस्य-सचिव हैं। लंबे अंतराल के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 1 मई 2025 को आईसीएचआर के अध्यक्ष को एक पत्र (एफ नंबर-3-15/2013-U.3) लिखकर सूचित किया कि प्रो अल्केश चतुर्वेदी को सदस्य सचिव के पद पर नियुक्त किया जा सकता है। पत्र के समय अल्केश चतुर्वेदी सांची विश्वविद्यालय में कुलसचिव थे। इस पत्र में आईसीएचआर के अध्यक्ष के पत्र संख्या एफ-1.1/2024/सीएचएमएन/आईसीएचआर दिनांक 9.11.2024 का हवाला देते हुए कहा कि मंत्रालय के सक्षम अधिकारी ने प्रो अल्केश चतुर्वेदी के सदस्य सचिव पद पर नियुक्ति को मंजूरी दे दी है। पहली नजर में ये पत्र सामान्य नियुक्ति पत्र लगता है लेकिन इसके तीसरे बिंदु में एक पेंच है। इस बिंदु में लिखा गया है कि आपसे अनुरोध किया जाता है कि नियुक्ति निर्देश जारी करें और इस क्रम में आईएचआर के नियमों का पालन करें। इसके बाद की पंक्ति को रेखांकित किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि नियुक्ति पत्र जारी करने के पहले संबंधित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस का ध्यान रखा जाए। पहली नजर में यह भी सामान्य बात लगती है, लेकिन इस पत्र में कहीं नहीं कहा गया है कि चयनित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा आईसीएचआर कब तक करे। इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं कि गई। दूसरा प्रश्म उठता है कि क्या चयन समिति ने जब इनके नाम पर विचार किया था या जब आईसीएचआर के अध्यक्ष ने इनके नाम की संस्सतुति मंत्रालय से की थी तो विजिलेंस क्लीयरेंस नहीं लिया गया था? 

यह तो निश्चित है कि मंत्रालय के 1 मई 2025 के सदस्य सचिव के पद पर प्रो अल्केश चतुर्वेदी को नियुक्त करने के आदेश को कार्यान्वयित करने के लिए अध्यक्ष ने कार्यवाही आरंभ की होगी। कार्यवाही के अंतर्गत ये माना जा सकता है कि अध्यक्ष ने अल्केश चतुर्वेदी से विजिलेंस क्लीयरेंस के लिए लिखा अवश्य होगा। परंतु छह महीने तक सदस्य सचिव के पद पर नियुक्ति नहीं होने से ऐसा प्रतीत होता है कि अल्केश चतुर्वेदी विजिलेंस क्लीयरेंस जमा नहीं करवा पाए हैं या उनके विजिलेंस क्लीयरेंस में कोई समस्या है। दोनों ही स्थितियों में आईसीएचआर के अध्यक्ष प्रोफेसर रघुवेंद्र तंवर को नियुक्ति की स्थितियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। या ये माना जाए कि इस पत्र की आड़ में अनंत काल तक अल्केश चतुर्वेदी के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा की जाएगी और तबतक संस्था कार्यवाहक सदस्य सचिव के भरोसे चलता रहेगा। जिस चयन समिति ने अल्केश चतुर्वेदी का चयन किया उसने तीन नाम का पैनल भेजा था। अगर नियम अनुमति देते हों तो अध्यक्ष उस पैनल में से किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय को अनुरोध पत्र भेज सकते हैं। संभव है भेजा भी होगा लेकिन सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति में अनावश्यक देरी से संदेह उत्पन्न होता है। कहीं यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से संस्था का कामकाज भी सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है। संस्था के उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पा रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में ही मदर आफ डेमोक्रेसी नामक पुस्तक के प्रकाशन और उसके मूल्य निर्धारण पर पहले लिखा जा चुका है। कुछ लोग तो ये कहते हैं कि लाखों रुपए मूल्य की पुस्तकें अब भी आईसीएचआर के गोदाम में धूल फांक रही है। पता नहीं कभी इसकी जांच हुई या नहीं या होगी भी या नहीं। दरअसल जिम्मेदार पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से गड़बड़ियों को फलने फूलने का मैदान तैयार होता है।

गड़बड़ियों से आगे जाकर अगर हम शोध कार्यों पर ध्यान दें तो एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। 2022 में आईसीएचआर ने एक महात्वाकांक्षी परियोजना बनाई थी भारत के समग्र इतिहास लेखन की। योजनानुसार आठ खंडों में ये पुस्तक तैयार होनी थी। वरिष्ठ इतिहासकार सुष्मिता पांडे को इस परियोजना का जनरल एडीटर बनाया गया। प्रधानमंत्री मेमोरियल और संग्रहालय से एक व्यक्ति को प्रतिनियुक्ति पर आईसीएचआर लाया गया। करीब तीन वर्ष होने को आए अभी तक एक भी खंड पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाया है। पहला खंड समग्र इतिहास की आवश्यकता को रेखांकित करनेवाला है। उसको अभी विशेषज्ञ देख रहे हैं यानि रेफरिंग पूल में डूब उतरा रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो अगले 24 वर्ष में शायद इस परियोजना को पूरा किया जा सकेगा। समग्र इतिहास लेखन अगर इस अगंभीरता से लिया जाएगा तो फिर भगवान ही मालिक हैं। आईसीएचआर जैसी संस्था का वामपंथी इतिहासकारों ने जितना उपयोग अपने विचार को फैलाने या एकांगी दृष्टि से इतिहास लिखने में किया उसका निषेध करना भी इस रफ्तार में संभव नहीं लगता है। आईसीएचआर जैसी संस्था को बेहद गंभीरता से चलाने की आवश्यकता है जिसमें निर्णय त्वरित हों, कार्य निर्धारित समय पर पूर्ण हों और प्रशासनिक बाधाओं से अकादमिक प्रक्रिया से मुक्त कराने की इच्छाशक्ति वाला कोई व्यक्ति संस्था में हो। 

2014 में जब से मोदी सरकार बनी है तभी से इतिहास को समग्र दृष्टि देने की बात हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस में कुछ वर्षों पहले कहा था कि इतिहास लेखन में किसी की गलती बताने से बेहतर है हम अपनी लकीर लंबी करें। प्रधानमंत्री ने लालकिला की प्राचीर से पांच प्रण गिनाए थे उसमें से विरासत वाले प्रण का सिरा इतिहास से जुड़ता है। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी कई बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बात करते हुए इतिहास के समग्र लेखन की महत्ता को रेखांकित कर चुके हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और शिक्षा मंत्री की चिंता के केंद्र में इतिहास का समग्र लेखन है लेकिन बावजूद इसके आईसीएचआर में ढिलाई दिखती है। समग्र इतिहास लेखन परियोजना को लेकर व्याप्त आलस पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर रहा है। जरूरत है कि शिक्षा मंत्री अपने स्तर पर इसमें दखल दें और प्रसासनिक बाधों को दूर करने की राह संस्था को दिखाएं।    


Saturday, November 1, 2025

धर्मांतरण की जुगत में उपराष्ट्रपति


भारत में आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर चर्चा होती है। कभी टैरिफ पर उनके बयान तो कभी आपरेशन सिंदूर रुकवाने के उनके दावे तो कभी प्रधानमंत्री मोदी को मित्र बताने पर तरह तरह की चर्चा होती है। पिछले दिनों अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस ने मिसीसिपी विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में अपनी पत्नी ऊषा वेंस के धर्म पर बयान दिया जिस पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई। एक प्रश्न के उत्तर में उपराष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी। जे डी वेंस की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हिंदू हैं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वेंस जब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भारत आए थे तो पति-पत्नी अक्षरधाम मंदिर गए थे। अमेरिका में भी वेंस और ऊषा के हिंदू रीति-रिवाजों को निभाते फोटो दिखते रहते हैं। विश्वविद्यालय में वेंस के इस बयान के बाद उनके कंजरवेटिव समर्थकों ने जमकर तालियां बजाईं। बाद में इंटरनेट मीडिया पर वेंस के इस बयान की आलोचना आरंभ हो गई। एक व्यक्ति ने तो उनको एक्स पर टैग करते हुए लिखा कि ये अफसोस की बात है कि आप अपनी पत्नी के धर्म को सार्वजनिक रूप से बस के नीचे फेंक कर कुचलना चाहते हैं। जब आलोचना बढ़ी तो उपराष्ट्रपति को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि फिलहाल ऊषा के धर्म परिवर्तन की कोई योजना नहीं है। साथ ही उम्मीद भी जता दी कि जिस तरह से वो चर्च की ओर प्रेरित हुए उसी तरह से एक दिन उनकी पत्नी भी चर्च की ओर जाने की राह पर बढ़ेंगी। आपको बताते चलें विवाह के पूर्व वेंस नास्तिक थे। दरअसल अमेरिका में अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर हमेशा से बहस चलती रही है। जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया है, तब से ये बहस और तेज है। वर्तमान सरकार के कई सदस्य प्रवासियों से ये अपेक्षा करते हैं कि वो अमेरिका और ईसाई धर्म से प्यार करें। 

अमेरिका कई बार भारत को धर्म और कथित धार्मिक कट्टरता को लेकर नसीहत देता रहता है। धार्मिक कट्टरता पर तो कई रिपोर्ट प्रकाशित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जारी भी करता रहा है। ट्रंप तो राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही ईसाई धर्म और बाइबिल को लेकर लगातार श्रद्धापूर्वक अपनी रैली में बोलते रहे हैं। यहां ये भी याद दिलाता चलूं कि जब अमरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार हो रहा था तो ट्रंप की रैलियों और सभाओं में लार्ड जीजस और जीजस इज किंग के नारे गूंजते थे। ट्रंप, एलन मस्क और जे डी वेंस ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के समय परिवार, शादी, बच्चे और ईसाई धर्म को आगे रखा था। उनके इस प्रचार ने अमेरिकी वोटरों को अपनी ओर खींचा था और कमला हैरिस परास्त हो गई थीं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इसको और बल मिला। चर्च और ईसाई धर्म से जुड़े लोग महत्व पाने लगे। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को उन्होंने प्राथमिकता देनी शुरु की। चार्ली किर्क ट्रंप के पारंपरिक वोटरों से संवाद करनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ईसाई धर्म और अमेरिकी माटी को लेकर आक्रामक तरीके से भाषण देते थे और लोगों को एकजुट करते थे। पिछले दिनों चार्ली किर्क की हत्या हो गई। चार्ली  हत्या के बाद ट्रंप के इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने वाला कोई बचा नहीं। कुछ दिनों पूर्व चार्ली किर्क की विधवा का बयान आया था। वो कह रही थीं कि चार्ली को रिप्लेस करनेवाला उनको कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चार्ली और जे डी वेंस में कई समानताएं हैं। बहुत संभव है कि चार्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने वेंस को चुना हो। अगले राष्ट्रपति चुनाव में जे डी वेंस स्वाभाविक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे में उनकी ईसाई धर्म समर्थक की छवि बनाने से लाभ होगा। उस समय उनके सामने उनकी पत्नी के धर्म को लेकर प्रश्न ना खड़े हों इस कारण से वेंस अभी से एक माहौल बनाना चाहते हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम से ये बात साबित भी हो गई कि अमेरिकी राजनीति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। 

इस पूरे प्रकरण से एक और बात सामने आती है वो ये कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं। अब अगर हम भारत की बात कर लें तो स्थिति बिल्कुल भिन्न नजर आती है।  भारत में तो कभी भी ना तो किसी राजनेता की पत्नी के धर्म के बारे में चर्चा होती है, ना ही जिज्ञासा और ना ही वोटरों को फर्क पड़ता है। राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से शादी की कभी किसी ने कोई आपत्ति उठाई हो या कभी राजीव गांधी ने उनपर हिंदू धर्म स्वीकार करने का दबाव बनाया हो, ऐसा सार्वजनिक तो नहीं हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी का विदेशी मूल भले ही मुद्दा बना लेकिन तब भी किसी ने ये नहीं पूछा कि वो हिंदू हैं या अब भी ईसाई ही हैं। जिस तरह से वेंस ने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्मी के धर्म परिवर्तन की बात कही वैसा तो भारत में सुना नहीं गया। विदेश मंत्री जयशंकर की पत्नी विदेशी मूल की हैं लेकिन उनके धर्म के बारे में ना तो किसी को कोई रुचि है और ना ही कोई जानना चाहता है। भारत के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन की पत्नी भी विदेशी रहीं, उन्होंने अपना नाम अवश्य बदला लेकिन उनके धर्म को लेकर भारत की जनता को कभी कोई आपत्ति हुई हो ऐसा ज्ञात नहीं है। अमेरिका खुद को बहुत आधुनिक और खुले विचारों वाला देश कहता है लेकिन धर्म को लेकर वहां के नेताओं के विचार बेहद संकुचित हैं। चुनाव में भी जिस तरह से धर्म का खुलेआम उपयोग वहां होता है वो भी देखनेवाली बात है। लेकिन जब दूसरे देशों को नसीहत देने की बात होती है तो सभी एकजुट हो जाते हैं।  

हम अमेरिकी समाज को देखें तो वहां आधुनिकता के नाम पर इस तरह की वितृतियां घर कर गई हैं कि वहां के मूल निवासी अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप ने शादी और बच्चों का मसला उठाया और उसको लोगों ने पसंद किया। ट्रंप और उनकी टीम लगातार परिवार व्यवस्था की बात करते रहते हैं और अमेरिकी उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं। अमेरिका में नास्तिकता की बातें बहुत पुरानी है और इसकी जड़े उन्नीसवीं शताब्दी में जाती हैं। जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों की विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी तब अमेरिका में भी चार्ल्स ली स्मिथ जैसे लोगों ने खुले विचारों के नाम पर नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य आरंभ किया। वहां की युवा पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित भी हुई। इक्कसीवीं शताब्दी तक आते आते फिर से धर्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। अब भी अमेरिका में नास्तिकता को बढ़ावा देनेवाले संगठन हैं लेकिन कमजोर हैं। हिंदू धर्म और उनके अनुयायियों जैसा सहिष्णु कहीं और नहीं है ये अमेरिकियों को समझना होगा। 

Saturday, October 25, 2025

बौद्धिकता की आड़ में राजनीति का खेल


हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है। शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी। दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से। आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है। हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।

फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया। उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं। नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है। वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है। वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।

हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।

विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इति !

 

Saturday, October 18, 2025

पीआर से चक्रव्यूह में हिंदी फिल्म


कुछ दिनों पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा के साथ अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की एक तस्वीर सार्वजनिक हुई। अवसर था दीपिका पादुकोण को केंद्र सरकार के मेंटल हेल्थ एंबेसडर नियुक्त करने का। इस तस्वीर को देखते हुए दीपिका की ही एक और तस्वीर याद आई। वो तस्वीर आज से करीब पांच वर्ष पूर्व की थी। उसमें दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के मध्य उनको समर्थन देने पहुंची थी। वो आंदोलन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्लाय में लेफ्ट समर्थित छात्र संगठनों का था। आंदोलनकारी मोदी सरकार के विरोध में थे। इस तस्वीर की याद आते ही मन में प्रश्न उठा कि सिर्फ पांच वर्षों में ये बदलाव कैसे। जो दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करने पहुंची थी उसको भारत सरकार ने मेंटल हेल्थ का अंबेसडर क्यों बना दिया। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अपने साथियों से बात कर ये जानने का प्रयास किया कि क्या दीपिका पादुकोण के विचार बदल गए हैं, क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने एक साक्षात्कार में राहुल गांधी की भी प्रशंसा की थी। क्या केंद्र सरकार अधिक समावेशी हो गई है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोगों से बात करने पर पता चला कि ये सब पब्लिक रिलेशन यानि पीआर का खेल है। 

आज हिंदी फिल्मों के छोटे-बड़े सितारे सभी पीआर कंपनियों के भरोसे चल रहे हैं। उन्हें कहां जाना है, कितना बोलना है से लेकर सार्वजनिक जगहों पर कैसे कपड़े पहनने हैं आदि सभी कुछ पीआर कंपनियां या उनके नुमांइदें ही तय करते हैं। यह अनायास नहीं है कि सभी अभिनेता-अभिनेत्रियों के एयरपोर्ट के वीडियो इंटरनेट मीडिया पर आ जाते हैं। बताया गया कि कोई भी अभिनेता या अभिनेत्री कहीं आते जाते हैं तो उसकी पूर्व सूचना पैपराजियों को या इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय पीआर हैंडल्स को दे दी जाती है। सितारों के गाड़ी से उतरने से लेकर एयरपोर्ट के अंदर जाने तक का वीडियो चंद मिनटों में वायरल करवाने का प्रयास किया जाता है। इसके पीछे एक पूरा तंत्र काम करता है। इसकी एक आर्थिकी भी है। अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि सितारों को कितना बोलना है ये भी पीआर कंपनी के लोग ही बताते हैं। आज से कुछ वर्षों पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपनी मन की बात मीडिया से साझा करते थे। इससे उनकी एक छवि बनती थी। अब तो सबकुछ पहले से तय होने लगा है। किसी सितारे के इंटरव्यू को लेकर जिस तरह की खबरें आती हैं वो भी चिंताजनक हैं। भगवान जाने इसमें कितनी सचाई है लेकिन बताया जाता है कि पीआर कंपनी वाले मीडिया के लोगों को पहले से बताते हैं कि क्या प्रश्न करना है और कितने प्रश्न पूछने हैं। जब इंटरव्यू हो रहा होता है तो पीआर कंपनी वाले वहां मौजूद रहते हैं। अगर साक्षात्कारकर्ता तय प्रश्नों से अलग जाने का प्रयास करता है तो पीआर वाले रोकने की कोशिश करते हैं। ऐश्वर्य़ राय की एक फिल्म आई थी ऐ दिल है मुश्किल। उस समय इस तरह की चर्चा हुई थी कि जब साक्षात्कारकर्ताओं ने ऐश्वर्य से उनके और रणबीर की आनस्क्रीन केमेस्ट्री के बारे में प्रश्न किया था तो पीआरवालों ने रोक दिया था। कुछ लोग तो बिना इंटरव्यू किए निकल भी गए थे। पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपने दिमाग से प्रश्नों के उत्तर देते हैं अब वो बताई गई बातें ही बोलते हैं। याद करिए शाह रुख खान के कितने स्मार्ट इंटरव्यूज हुआ करते थे। अब वो बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं। सिर्फ शाह रुख ही क्यों रणवीर सिंह के पुराने साक्षात्कार देखिए और अभी के देखिए। आपको जमीन आसमान का अंतर नजर आएगा।

सितारों के छवि निर्माण की कला होती है। उसका प्रबंधन भी किया जाता रहा है लेकिन हिंदी फिल्मों के सितारों को जिस तरह से पीआर कंपनियों ने घेर लिया है उससे उनकी मौलिकता बाधित हो रही है। सितारों की सार्वजनिक छवि बनाने के काम में अधिकतर 25 से 30 वर्ष के युवक युवतियां लगे हुए हैं। विशेषकर अगर बड़े सितारों के इर्द-गिर्द नजर डालेंगे तो ये सब आपको स्पष्ट दिखाई देगा। अब चालीस पचास वर्ष के अभिनेताओं को ये लड़के-लड़ियां बताती हैं कि क्या बोलना है। इनमें से ज्यादातर लोग वैसे हैं जिनकी दुनिया ही इंटरनेट मीडिया है। वो रील्स, लाइक और रीपोस्ट के आधार पर सबकुछ तय करते हैं। कुछ दिनों पूर्व हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार्स के ताम-झाम पर आने वाले खर्चे को लेकर निर्माता-निर्देशक करण जौहर ने सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ चलनेवाले लोगों और शूटिंग के दौरान उनकी सुविधाओं पर निर्माताओं को बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। इससे फिल्म की लागत कई गुणा बढ़ जाती है। कई निर्माताओं ने करण की इस बात का समर्थन किया। अब जरा देख लेते हैं कि ताम-झाम क्या होता है। सुपरस्टार्स के साथ गाड़ियों का काफिला होगा। वैनिटी वैन होगी। स्टार की गाड़ी अलग होगी, उनके साथ आवश्यक व्यक्तियों के साथ पीआर की लंबी चौड़ी टीम होगी। वो जहां भी जाएंगें या जाएंगी पीआर के लोग उनके साथ इस कारण रहते हैं कि उनको आवश्कता से अधिक सुविधाएं, बहुधा निरर्थक, की मांग रखी जा सके। 

ओमएमजी- 2 के निर्देशक अमित राय ने एक बार बातचीत के दौरान बताया था कि चाय से अधिक गरम केतली होती है। तात्पर्य ये था कि हीरो या हिरोइन से अधिक उनकी पीआर टीम उनको लेकर, उनके एपियरेंस को लेकर, अगर वो कहीं बाहर हैं तो वो किस होटल में रहेंगे, किस तरह का कमरा होगा, उनके सहयोगी कैसे कमरे में रहेंगे, कैसी गाड़ी होगी, कितने लोग होंगे सबकी सूची बनाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि एक दिन रविवार को अक्षय कुमार के साथ किसी रेलवे स्टेशन पर शूट करना था लेकिन उनकी टीम ने अमित को बताया कि सर (अक्षय) रविवार को शूट नहीं करते हैं। सारी तैयारी हो चुकी थी। रेलवे से अनुमति मिल गई थी। ऐसे में अमित राय ने सीधे अक्षय को फोन किया। वो शूटिंग के लिए तैयार हो गए। मतलब चाय का तापमान ठीक था लेकिन केतली गर्म थी। इसी तरह वाराणसी में जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान बातचीत में अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी ने भी हिंदी फिल्मों की दुनिया में पीआर कल्चर पर टिप्पणी की थी। जब बड़े सितारे ऐसा करते हैं तो अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय सितारे भी ये समझने लगे हैं कि इसी तरह से स्टारडम हासिल किया जा सकता है। आपकी स्टार वैल्यू तभी बढ़ेगी जब विलासितापूर्ण जीवन जीते दिखेंगे। आज अगर दर्शक फिल्मों से दूर हो रहे हैं तो उसके अन्यान्य कारणों में से एक कारण पीआर कल्चर भी है। ये संस्कृति परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से छवि निर्माण के नाम पर सितारों को उनके प्रशंसकों से दूर कर रहे हैं। उनके सोच को जनता तक नहीं आने दे रहे हैं। फिल्म दर्शकों से मीडिया के माध्यम से उनका जो एक संवाद बनता था वो सही तरीके बन नहीं पा रहा है। रील्स या इंस्टा पर विलासिता का भोंडा प्रदर्शन दर्शकों को पसंद नहीं आता है। अभिनेता के काम से दर्शक उनको पसंद करते हैं पीआर के चक्रव्यूह से नहीं। हिंदी फिल्म जगत को इस बारे में सोचना होगा। 

Thursday, October 16, 2025

मासूम आंखों से टपकती मोहब्बत


देश को स्वाधीन हुए एक वर्ष होने को था। स्वाधीनता पूर्व हिमांशु राय और देविका रानी ने जिस बांबे टाकीज की स्थापना की थी उसको चलाने का दायित्व अशोक कुमार ने संभाल लिया था। अशोक कुमार के सामने बांबे टाकीज को फिर से सफल बनाने की चुनौती थी। अशोक कुमार को भूतों के किस्से में काफी रुचि थी। उनके नजदीकी बहुधा अपने साक्षात्कारों में इस बात का उल्लेख करते हैं कि अशोक कुमार को भूतों और पुनर्जन्म में विश्वास था। वो काफी समय से भूत को केंद्रीय थीम लेकर एक फिल्म बनाना चाहते थे। 1948 के मध्य की बात होगी। एक दिन बांबे टाकीज के कुछ कर्मचारी अशोक कुमार के पास पहुंचे और बताया कि परिसर में उन्होंने हिमांशु राय के भूत को देखा है। इसको सुनकर अशोक कुमार की भूत केंद्रित फिल्म बनाने की इच्छा और बलवती हो गई। उसी वर्ष उनके साथ एक और घटना घटी। वे बांबे (अब मुंबई) के निकट एक भूत बंगले के नाम से मशहूर घर में कुछ समय बिताने गए। एक दिन रात में जब वो सोने जा रहे थे तो दरवाजे पर एक महिला ने दस्तक दी। उसने अपनी गाड़ी खराब होने की बात कहकर मदद मांगी। गाड़ी ठीक नहीं की जा सकी। वो गाड़ी वहीं छोड़कर चली गई। देर रात शोर शराबे से अशोक कुमार की नींद खुली। उन्होंने देखा कि वही गाड़ी उनके घर के बाहर खड़ी है। उसमें एक व्यक्ति की लाश पड़ी है। सुबह अशोक कुमार ने अपने नौकर से रात की घटना के बारे में पूछा। नौकर ने उनको बताया कि रात में तो ऐसा कुछ घटा ही नहीं, आप तो आराम से सो रहे थे। वो सपना होगा। घर के बाहर कोई गाड़ी नहीं थी। परेशान अशोक कुमार स्थानीय थाने पहुंचे थे। पुलिसवाले ने पूरी बात सुनने के बाद बताया कि 14 साल पहले इस तरह की एक वारदात वहां हुई थी। एक महिला हत्या करने के बाद लाश गाड़ी में छोड़कर भाग गई थी। भागने के क्रम में दुर्घटना हुई और उसकी मौत हो गई।

अशोक कुमार ने बांबे लौटकर ये पूरा किस्सा कमाल अमरोही को बताया। कमाल अमरोही ने इसके आधार पर एक फिल्मी प्रेम कहानी गढ़ी। इस तरह से आरंभ होती है फिल्म महल। कहानी तैयार होने के बाद बांबे टाकीज के कर्ताधर्ता चाहते थे कि इस फिल्म के लीड रोल में अशोक कुमार के साथ अभिनेत्री सुरैया को लिया जाए। कमाल अमरोही मधुबाला के नाम पर अड़े रहे। अंत में उनकी ही चली क्योंकि वो महल के निर्देशक बनाए जा चुके थे। फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई। अक्तूबर 1949 में फिल्म रिलीज की गई। दर्शकों ने इस फिल्म को खूब पसंद किया। इस फिल्म से दो सितारे हिंदी फिल्माकाश पर चमके। मधुबाला और लता मंगेशकर। फिल्म की सफलता ने मधुबाला को शीर्ष अभिनेत्री की पंक्ति में खड़ा कर दिया। लता मंगेशकर का गाया गीत, आएगा आने वाला बेहद लोकप्रिय हुआ। फिल्म में कई बार इस गीत के हिस्से का निर्देशक ने उपयोग किया है। फिल्म की थीम के हिसाब से खेमचंद प्रकाश ने संगीत बनाया। आज भी अगर कोई सस्पेंस सीन दिखाना होता है तो महल का बैकग्राउंड म्यूजिक या उसकी तर्ज पर बनाए गए म्यूजिक का ही उपयोग होता है। खेमचंद प्रकाश जब आएगा, आएगा आनेवाला गीत रिकार्ड कर रहे थे तो लता की आवाज के बावजूद उनके मन-मुताबिक प्रभाव पैदा नहीं हो पा रहा था। लता बार-बार माइक पर गातीं। खेमचंद संतुष्ट नहीं हो रहे थे। वो गीत के आरंभिक को दूर से आई आवाज जैसा रिकार्ड करना चाह रहे थे। अचानक उनके दिमाग में एक आयडिया आया। उन्होंने लता को माइक से दूर जाने को कहा और गाते हुए माइक तक आने को कहा। वो चाहते थे कि गीत की पंक्ति, खामोश है जमाना, चुपचाप हैं नजारे दूर से आती हुई लगे और जैसे ही गायिका आएगा आएगा आनेवाला तक पहुंचे तो वो माइक की समान्य आवाज लगे। लता को माइक से दूर जाकर गाते हुए इस तरह माइक तक आना पड़ता था कि आएगा आएगा माइक पर गा सके। लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू में इस प्रसंग की चर्चा की थी। उन्होंने कहा कि तब तकनीक इतना उन्नत नहीं था और म्यूजिक डायरेक्टर अपने हुनरे से गानों को सजाते थे। कई बार के रिहर्सल के बाद खेमचंद प्रकाश संतुष्ट हुए। आज 75 वर्षों बाद भी ये गाना लोगों की जुबां पर है।

फिल्म में मधुबाला का चरित्र ऐसा गढ़ा गया जिसकी मासूम आंखों से मुहब्बत टपकती थी। चेहरे पर एक भोलापन और प्यार की चमक लिए अभिनेत्री जब पर्दे पर आती तो नायक के साथ दर्शक उसके आकर्षण में बंध जाता। मधुबाला की उम्र भले ही उस समय 16 वर्ष के आसपास थी लेकिन वो एक दर्जन से अधिक फिल्मों में काम कर चुकी थी। अभिनय की बारीकियां उसको पता थीं। इस फिल्म में उसके संवाद अपेक्षाकृत कम हैं। उनकी उपस्थिति और आंखों से बहुत कुछ कह जाना प3भाव छोड़ता है। कमाल अमरोही ने भले ही किस्से का दुखांत रचा, लेकिन जिस तरह के संवाद फिल्म के आखिरी सीन में अशोक कुमार और उनके दोस्त के बीच है वो प्यार की उष्मा से भरपूर है। बिमल राय की एडिटिंग को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। कानपुर और इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) के बीच चलनेवाली इस हारर मूवी में एक भी हत्या नहीं होती है लेकिन रहस्य और रोमांच भरपूर रूप से बरकरार रहता है।

Monday, October 13, 2025

आत्मविश्वास से खींची बड़ी रेखा


तेलुगू फिल्मों से बाल कलाकार के तौर पर अपने करियर का आरंभ करने वाली रेखा के पिता जेमिनी गणेशन और मां पुष्पावल्ली भी बेहतरीन कलाकार थे। रेखा जब हिंदी फिल्मों में आई थीं तो उनकी काया व सांवले रंग को लेकर नकारात्मक टिप्पणियां की गई थीं। उनके ड्रेसिंग सेंस और मेकअप का भी मजाक उड़ाया जाता था। यही नहीं उनकी अभिनय क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए जाते थे। यहां तक कहा गया कि वो एक ऐसी हीरोइन हैं जिनको फिल्मों में गुड़िया की तरह रखा जाता है, जिससे अभिनय की अपेक्षा नहीं की जाती है। ये बातें प्रोड्यूसर्स, निर्देशक और उस समय के फिल्म पत्रकारों ने इतनी बार कहीं कि रेखा का स्वयं पर से विश्वास डिग गया। वो बार-बार ये सोचतीं कि हिंदी फिल्मों की दुनिया में उनका गुजारा नहीं, क्योंकि उनकी तुलना उस दौर की सुंदर अभिनेत्रियों से की जाती थी। बहुधा हेमा मालिनी से। उनकी एक और छवि गढ़ी गई थी कि वो बहुत बिंदास हैं और सेट पर बोलती ही रहती हैं। उस दौर में एक फिल्म पत्रिका ने तो यहां तक लिख दिया था कि रेखा चूंकि गंभीर नहीं हैं इस कारण उनको कोई गंभीरता से नहीं लेता।

ऐसे माहौल में रेखा ने स्वयं को बदलने का तय किया। वो योग की शरण में गईं और उन्होंने वजन काफी कम कर लिया। अपनी साज-सज्जा पर ध्यान दिया। ये 1977 के आसपास की बात थी। अब वो फिल्मों के चयन में भी सावधान हो गईं। वैसी ही फिल्मों का चयन करने लगीं जिनमें उनको अभिनय प्रतिभा दिखाने का अवसर मिले। 1978 में उनकी फिल्म आई घर। इसमें रेखा ने रेप विक्टिम का रोल किया था। इसमें जिस प्रकार से पीड़िता का अभिनय किया उसने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। फिर आई मुकद्दर का सिकंदर। इसके बाद तो रेखा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस फिल्म में रेखा ने तवायफ के रोल में अभिनय की जो छाप छोड़ी वो दर्शकों के मानस में बैठ गई। फिर आई मि. नटवरलाल और सुहाग। अमिताभ बच्चन के साथ रेखा की जोड़ी सफलता की गारंटी बन गई। यही वो दौर था रेखा और अमिताभ बच्चन के कथित प्रेम की कहानी भी सुनाई दे रही थी। इन दोनों के आन स्क्रीन और आफ स्क्रीन केमिस्ट्री की बातें होती थीं। 1980 में हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म आई खूबसूरत। ये एक कामेडी फिल्म थी जिसमें पूरी फिल्म रेखा के कंधों पर चलती है। इसमें जिस तरह से रेखा ने चुलबुली लड़की का अभिनय किया वो यादगार बन गया। इस फिल्म के बाद ये मान लिया गया कि रेखा अपने दम पर भी फिल्म को सफल बना सकती हैं।
फिर तो एक से एक फिल्मों में रेखा ने अभिनय का लोहा मनवाया। चाहे वो उमराव जान हो या फिर उत्सव। श्याम बेनेगल की फिल्म कलयुग में द्रौपदी के रोल में रेखा ने जबरदस्त अभिनय किया। एक ऐसी लड़की जो दक्षिण भारत से आई थी, अपने उच्चारण से लेकर पहनावे तक का उपहास जिसने झेला था, आज भी उनके स्टाइल की बात होती है।
(10 अक्तूबर को प्रकाशित)

Saturday, October 11, 2025

अब न रहे वो पीने वाले...


जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिल्ली के सीरी फोर्ट आडिटोरियम में अमिताभ बच्चन-धर्मेन्द्र अभिनीत फिल्म शोले का रिस्टोर्ड वर्जन प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म को बड़े पर्दे पर बेहतर आवाज के साथ देखना एक अलग ही अनुभव था। करीब बीस वर्षों का बाद शोले फिर से देख रहा था। बड़े पर्दे पर फिल्म देखना रोमांचकारी था। फिल्म के आखिरी सीन में अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र जय को जब गोली लगती है तो उसके चेहरे के भाव और पीड़ा बड़े पर्दे पर इतने प्रभावी लगते हैं कि दर्शक उस पीड़ा के साथ एकाकार हो जाता है। जब जय, बसंती की मौसी के पास वीरू के रिश्ते की बात करने पहुंचता है तो उनके चेहरे की शरारत बड़े पर्दे पर इतना जीवंत दिखती है कि दर्शकों को खूब मजा आता है। सिर्फ अमिताभ ही नहीं बल्कि ठाकुर के रूप में संजीव कुमार, बसंती के रूप में हेमा मालिनी और बीरू के रूप में धर्मेंद्र की आदाकारी की प्रशंसा इस कारण मिल पाई की दर्शक बड़े पर्दे पर अभिनय की बारीकियों को महसूस कर सके थे। आज जब मोबाइल पर फिल्में देखी जाने लगी हैं तो चेहरे के उन भावों को दर्शक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि आज अभिनय की बारीकियों पर बात नहीं होती है बल्कि कपड़ों के डिजायन से लेकर हिंसा के तरीकों पर बात होती है। हाल फिल्हाल में किसी फिल्म का कोई ऐसा सीन याद नहीं पड़ता जिसको लेकर चर्चा होती हो। उसके छायांकन को लेकर उसको फिल्माने को लेकर चर्चा बहुत ही कम होती है। एक जमाना था जब अमिताभ बच्चन की फिल्मों के दृष्यों और संवादों की चर्चा होती थी। ये चर्चा फिल्म से अलग होती थी। संवादों के आडियो कैसेट अलग से बिका करते थे। अब फिल्मों को लेकर अधिक चर्चा इसकी होती है कि कितने दिनों में 100 करोड़ का बिजनेस कर लिया। फिल्म कितने दिन में 500 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई।

अमिताभ बच्चन ने रविवार को 83 वर्ष की आयु पूरी की। वो अब भी खूब सक्रिय हें। लोकप्रिय भी। इतनी लंबी आयु के बावजूद उनकी लोकप्रियकता क्यों कायम है, इसपर विचार किया जाना चाहिए। धर्मेन्द्र भी 90 वर्ष की आयु को छूने वाले हैं। वो भी इंटरनेट् मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। अपने फार्म हाउस से वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। उनके वीडियो भी लोग खूब पसंद करते हैं। कभी शायरी सुनाते हैं, कभी अपनी तन्हाई को लेकर कमेंट करते नजर आते हैं। कई बार खेतों में घूमते उनके वीडियो भी दिख जाते हैं। इन दो अभिनेताओं के अलावा रेखा जब भी किसी अवार्ड शो में आती हैं या परफार्म करती हैं तो उसका वीडियो खूब प्रचलित होता है। लोग वीडियो को पोस्ट और रीपोस्ट करते हैं, अपनी टिप्पणियों के साथ। अमिताभ बच्चन, धर्मन्द्र, रेखा, हेमा मालिनी और बहुत हद तक देखें तो माधुरी दीक्षित की लोकप्रियता में बड़े पर्द का बड़ा योगदान है। शोले के अलावा भी याद करिए दीवार और जंजीर में अमिताभ बच्चन की अदायगी। फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के बीच का चर्चित संवाद, मेरे पास गाड़ी है बंगला है... और जब शशि कपूर इसके उत्तर में कहते हैं मेरे पास मां है तो पूरा हाल तालियों से गूंज उठता है। आज भी इस संवाद की चर्चा होती है। गाहे बगाहे सुनने को मिल जाता है। इसका कारण ये है कि लोगों ने बड़े पर्दे पर इस संवाद को घटित होते देखा है। दोनों अभिनेताओं के चेहरे के भाव को पढ़ा है। उसको महसूस किया है। अभिनय की गहराई ने लोगों को प्रभावित किया। इस कारण यह संवाद लगभग कालजयी हो गया। फिल्म से जुड़े शोधार्थियों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि डायलाग डिलीवरी और अभिनय के अलावा इसका बड़े पर्द पर आना भी एक कारण रहा है।

इस पीढ़ी के बाद भी अगर विचार किया जाए तो जितने भी अभिनेता और अभिनेत्री लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं वो कहीं न कहीं बड़े पर्द पर यादगार भूमिका कर चुके हैं। श्रीदेवी की फिल्में तोहफा, मवाली, जस्टिस चौधरी क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होकर इतनी सफल हो पाती। क्या तेजाब फिल्म में माधुरी दीक्षित के नृत्य का आनंद छोटी स्क्रीन पर लिया जा सकता है?  आज छोटी स्क्रीन के जमाने में जब लोग मोबाइल या पैड पर फिल्में देख रहे हैं तो दर्शक अभिनय की बारीकियों को पकड़ नहीं पाता है। वो कहानी  की रफ्तार के साथ तेज गति से चलने में ही रोमांचित महसूस करता है। इसलिए फिल्मों की स्पीड पर चर्चा होती है उसके ठहराव पर नहीं। कुछ फिल्म समीक्षक तो अपनी फिल्म समीक्षा में फिल्मों के स्लो होने की बात करते हैं, यहां तक लिख देते हैं कि कहानी धीमी गति से चलती है। कहानी कही कैसे गई है इसपर बहुत कम चर्चा होती है। शाह रुख खान, आमिर खान भी अगर सुपर स्टार बने तो बड़े पर्दे पर उनकी फिल्मों की लोकप्रियता के कारण। आज भी जिन फिल्मों को दर्शक बड़े पर्दे पर पसंद करते है उनके ही अभिनय की प्रशंसा होती है, लोकप्रियता भी उनको ही मिलती है। कुछ वेब सीरीज के अभिनेता या कलाकार इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन उनका संवाद या उनका अभिनय कालजयी साबित होगा इसका आकलन होना अभी शेष है। इतने वेब सीरीज आते हैं, बताया जाता है कि युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय भी हैं लेकिन कुछ ही समय बाद दर्शकों के मानस से ओझल भी हो जाते हैं।

आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है। छोटे शहरों में सिंगल स्क्रीन सिन्मा हाल बंद हो गए हैं। लोगों के पास सिनेमा हाल का विकल्प ही नहीं है। लोगों को छोटे स्क्रीन पर फिल्म देखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। मुझे याद है कि जब हम कालेज में थे भागलपुर में छह या सात सिनेमा हाल हुआ करते थे लेकिन अब वहां एक मल्टीप्लैक्स है। सारे सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल बंद हो गए। किसी में शापिंग कांपलैक्स खुल गया। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सिंगल स्कीन सिनेमाघर को लेकर कोई नीति बनाए। इसमें कर में कुछ वर्षों की छूट हो सकती है। सस्ते दर पर सिनेमा हाल बनाने के लिए ऋण की व्यवस्था हो सकती है। साथ ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए कि टिकट दर दर्शकों की पहुंच में रहे। ये बार बार साबित भी हो चुका है कि जब जब निर्माताओं और सिनेमा हाल मालिकों ने टिकट की दरों में कटौती की है दर्शक सिनेमा हाल तक लौटे हैं। अगर दर्शक सिनेमा हाल तक लौटते हैं तो अभिव्यक्ति के इस सबसे सशक्त माध्यम को बल मिलेगा और फिर कोई सदी का महानायक बनने की राह पर चल निकलेगा। अभी तो फिल्मों के हाल पर हरिवंश राय बच्चन जी की एक पंक्ति याद आती है- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला ।  

Saturday, October 4, 2025

सबरीमाला मंदिर की आस्था पर चोट


केरल में अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पिछले दो विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्टों के गठबंधन ने केरल में सरकार बनाई। पी विजयन मुख्यमंत्री बने। उनके नेतृत्व में कम्युनिस्ट गठबंधन तीसरी बार राज्य में सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी वामपंथी गठबंधन को चुनावी मात देकर दस साल बाद सत्ता में वापसी के मंसूबे पाले बैठी है। भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से केरल की राजनीति में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में लगी है। चुनाव की आहट के साथ त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने पिछले महीने वैश्विक अयप्पा संगमम का आयोजन किया। घोषित तौर पर इस संगमम का उद्देश्य सबरीमाला मंदिर की महिमा का वैश्विक स्तर पर विस्तार करना था। केरल के राजनीतिक दलों ने कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगाया कि हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए संगमम का आयोजन किया गया। संगमम की चर्चा के बीच सबरीमाला मंदिर प्रशासन एक अन्य कारण से विवाद में घिर गया। सबरीमाला मंदिर से करीब पांच किलो सोना चोरी होने की आशंका है। इस समाचार के बाहर आते ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी केरल की कम्युनिस्ट सरकार पर हमलावर है। सरकार ही त्रावणकोर देवोस्थानम बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति करती है। बोर्ड की स्थापना तीर्थयात्रियों की सुविधाओं के अलावा मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा के लिए की गई थी। 

सबरीमाला मंदिर से पांच किलो सोना गायब होने का मामला केरल और दक्षिण भारत में इन दिनों खूब चर्चा में है। मंदिर प्रशासन पर आरोप लग रहे हैं मंदिर के गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की मूर्ति और अन्य जगहों पर मढ़े गए सोने का वजन उसकी सफाई या बदलाव के दौरान पांच किलो कम हो गया। पूरा मामला इस तरह से है। 1998-99 में कारोबारी विजय माल्या, जो इन दिनों आर्थिक अपराध के आरोप में देश से फरार हैं, ने सबरीमाला मंदिर में 30 किलो सोने का चढ़ावा दिया था। उस समय ये बात सामने आई थी कि मंदिर प्रशासन ने उस सोना का उपयोग गर्भगृह और उसके बाहर लगे द्वारपाल की प्रतिमा को स्वर्णसज्जित करने में किया था। करीब बीस वर्षों के बाद जब त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड ने मंदिर के रखरखाव के लिए स्वर्ण परतों को हटाया तो पता चला कि वो सोने का नहीं था। अब इस बात की जांच की जा रही है कि सोना लगाते समय ही उसकी जगह किसी अन्य धातु का उपयोग किया गया था या बाद में उसको बदला गया। इस तरह की बात भी आ रही है कि गर्भगृह की दीवारों पर लगी स्वर्ण परतों को साफ सफाई के लिए चेन्नई भेजा गया था। जब वहां से प्लेट्स वापस आईं तो उसका वजन करीब पांच किलो कम था। त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड की विजिलेंस टीम ने कार्यालय से दस्तावेज जब्त किए हैं। अब इन दस्तावेजों और उनकी प्रामाणिकता पर भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। संपत्तियों की रजिस्टर में एंट्री पर भी प्रश्न उठने लगे हैं। केरल हाईकोर्ट ने पूर्व हाईकोर्ट जज की देखरेख में मंदिर की संपत्ति का ब्योरा जुटाने का आदेश दिया है। केरल हाईकोर्ट ने त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड को सही तरीके से रिकार्ड नहीं रख पाने के लिए लताड़ लगाई है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने केरल हाईकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच की मांग की है। 

जिस तरह के समाचार केरल से आ रहे हैं उससे तो ये प्रतीत होता है कि सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में और उसके बाहर लगी मूर्तियों की स्वर्णसज्जा के साथ छेड़छाड़ की गई है। आरोप ये भी लग रहे हैं कि सोने को निकालकर उसकी जगह पीतल से सज्जा कर दी गई। ये खबरें सिर्फ एक सामान्य चोरी की खबर नहीं है बल्कि भगवान अयप्पा के भक्तों की श्रद्धा पर डाका जैसा है। केरल की कम्युनिस्ट सरकार की जिम्मेदारी है कि वो दोषियों को जल्द से जल्द पकड़कर मंदिर के सोने की बरामदगी करवाए। मंदिर की फिर से स्वर्णसज्जा हो। भगवान अयप्पा के भक्त सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे भारत और विश्व के अन्य देशों में भी हैं। सबकी आस्था और श्रद्धा इस मंदिर से जुड़ी हुई है। जैसे जैसे इस चोरी की परतें खुल रही हैं हिंदू श्रद्धालुओं के अंदर क्षोभ बढ़ता जा रहा है। निश्चित है कि भगवान अयप्पा मंदिर से सोना चोरी चुनावी मुद्दा भी बनेगा। आपको याद होगा कि ओडीशा विधानसभा चुनाव के दौरान भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार की चाबी को लेकर विवाद हुआ था। कोर्ट के आदेश के बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की संपत्तियों की जांच और उसकी सूची को लेकर रत्न भंडार खोला गया था। जब इस कार्य को कर रहे लोग रत्न भंडार तक पहुंचे तो वहां ताला बंद था। उस ताले की चाबी की तलाश की गई। चाबी नहीं मिली। जब 1978 में भगवान जगन्नाथ मंदिर के रत्न भंडार का सर्वे हुआ तो वहां 149 किलो स्वर्ण आभूषण और 258 किलो के चांदी के बर्तनों की सूची बनी थी। उसके बाद 2018 में फिर से सर्वे का प्रयास हुआ तो चाबी ही नहीं मिल पाई। विधानसभा चुनाव के दौरान रत्न भंडार की चाबी गायब होने का मुद्दा बड़ा हो गया था। नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली राज्य सरकार कठघरे में आ गई थी। भगवान जगन्नाथ और भगवान अयप्पा में हिंदुओं की आस्था इतनी गहरी है कि उसको जब भी ठेस लगती है तो जनता अपनी प्रतिक्रिया देती है। ओडिशा में नवीन पटनायक की हार का एक बड़ा कारण रत्न भंडार की चाबी का ना मिलना भी बना। 

इन दो उदाहरणों से मंदिरों की संपत्ति की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। भक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने आराध्य को भेंट अर्पित करते हैं। जिनपर भक्तों की भेंट को सुरक्षित रखने का दायित्व है वो उसका निर्वहन ठीक तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो उसको लेकर सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा। विचार तो इसपर भी करना चाहिए कि मंदिरों की संपत्ति का कस्टोडियन सरकार हो या हिंदू समाज। इससे संबंधित एक एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिससे प्रभु की संपत्ति में सेंध ना लग सके। क्या अब समय आ गया है कि मंदिरों का प्रबंधन सरकार को हिंदू समाज को सौंप देना चाहिए। कोई ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सरकार और हिंदू समाज साथ मिलकर मंदिरों की संपत्ति की रक्षा कर सकें। आप इस बात की कल्पना करिए कि अगर भगवान अयप्पा के गर्भगृह की स्वर्ण सज्जा को हटाकर उसको पीतल से आच्छादित कर दिया गया तो इसके पीछे कितनी गहरी साजिश रही होगी। कितने लोगों की मिलीभगत रही होगी तब जाकर इस पाप को किया जा सका होगा। अगर ये साबित हो जाता है कि सोना चोरी करके वहां पीतल लगा दिया गया तो भक्तों की आस्था को कितनी ठेस पहुंचेगी। हिंदू समाज को अपनी आस्था के इन केंद्रों की सुरक्षा को लेकर संगठित होकर एक कार्ययोजना पेश करना होगा, ताकि सरकार उसपर विचार कर सके। दोनों की सहमति से कोई ठोस निर्णय लिया जा सके। समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मंदिर प्रबंधन को लेकर राष्ट्रव्यापी नीति बनाने की आवश्यकता है।   


Saturday, September 27, 2025

कांग्रेस को परेशान करनेवाले प्रश्न


दीवाली के पहले घरों में साफ-सफाई की जाती है। इस परंपरा का पालन हर घर में होता है। हमारे घर भी हुआ। घर के पुस्तकालय की सफाई के दौरान चालीस पेज की एक पुस्तिका मिली जिसने ध्यान खींचा। पुस्तिका का नाम है ‘घोटाले में घोटाला’। इस पुस्तिका का लेखन, संपादन और सज्जा अभय कुमार दुबे का है। अभय कुमार दुबे पत्रकार और शिक्षक रहे हैं। कुछ दिनों के लिए इन्होंने सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में भी कार्य किया है। इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। समाचार चैनलों पर विशेषज्ञ के रूप में भी दिखते हैं। ‘घोटाले में घोटाला’ पुस्तिका का प्रकाशन जनहित के लिए किया गया था। ऐसा इसमें उल्लेख है। दिल्ली के इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन के पते पर स्थापित पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च ग्रुप ने इसका प्रकाशन किया है। इसमें एक और दिलचस्प वाक्य है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। ये वाक्य है- इस पुस्तिका की सामग्री पर किसी का कापीराइट नहीं है, जनहित में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका प्रकाशन वर्ष अक्तूबर 1992 है। उस समय देश में कांग्रेस पार्टी का शासन था और पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। इसमें दो दर्जन लेख हैं जो उस शासनकाल के घोटालों पर लिखे गए हैं।

इस पुस्तिका में एक लेख का शीर्षक है, ओलंपिक वर्ष के विश्व रिकार्ड इसका आरंभ इस प्रकार से होता है, दौड़-कूद का ओलंपिक तो बार्सिलोना में हुआ जिसमें भारत कोई पदक नहीं जीत पाया। अगर घोटालों, जालसाजी, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल और चोरी के बावजूद सीनाजोरी का ओलंपिक होता तो कई भारतवासियों का स्वर्ण पदक मिल सकता था। व्यंग्य की शैली में लिखे गए इस लेख में एम जे फेरवानी, आर गणेश, बैंक आफ करड, वी कृष्णमूर्ति, पी चिदंबरम, हर्षद मेहता और मनमोहन सिंह के नाम हैं। मनमोहन सिंह के बारे में अभय कुमार दुबे लिखते हैं, ‘मासूमियत का अथवा जान कर अनजान बने रहने का स्वर्ण पदक। वित्तमंत्री कहते हैं कि उन्हें जनवरी तक तो कुछ पता ही नहीं था कि शेयर मार्केट में पैसा कहां से आ रहा है। और अगर हर्षद उनसे मिलना चाहता तो भारत के एक नागरिक से मिलने से वो कैसे इंकार कर देते। मनमोहन सिंह को अपनी सुविधानुसार विचार बदल लेने का स्वर्ण पदक भी मिल सकता है। पहले वो विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के भारी आलोचक हुआ करते थे। पिछले 20 साल से वे भारत की आर्थिक नीति निर्माता मंडली के सदस्य रहे और वे नीतियां भी उन्हीं ने बनाई थीं जिनकी वे आज आलोचना कर रहे हैं।‘ आज मनमोहन सिंह को लेकर कांग्रेस और उनके ईकोसिस्टम से जुड़े लोग बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन समग्रता में अगर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आकलन किया जाएगा तो इन बिंदुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। यह भी कहा जाता है कि मनमोहन सिंह की नीतियों के कारण 2008 के वैश्विक मंदी के समय देश पर उसका असर न्यूनतम हुआ। इसपर भी अर्थशास्त्रियों के अलग अलग मत हैं। प्रश्न ये उठता है कि मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए शेयर मार्केट में जो घोटाला हुआ था क्या उसको भी उनके पोर्टफोलियो में रखा जाना चाहिए या सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर डाल देनी चाहिए। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी इस समय की सरकार को अदाणी-अंबानी से जोड़ते ही रहते हैं। 1991 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी तब के हालात कैसे थे?  2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब कांग्रेस पर किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे या नहीं?  इन दिनों राहुल गांधी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बंद होते जाने पर भी कई बार सवाल खड़े करते हैं और मोदी सरकार पर बेरोजगारी बढ़ाने का आरोप लगाते हैं। उनकी पार्टी के शासनकाल के दौरान विनिवेश को लेकर जो आरोप सरकार पर लगे थे उसपर भी उनको विचार करना चाहिए। सत्ता में रहते अलग सुर और विपक्ष में अलग सुर ये कैसे संभव हो सकता है।

इन दिनों राहुल गांधी और कांग्रेस का पूरा ईकोसिस्टम ईडी-ईडी का भी शोर मचाते घूमते हैं। घोटाले में घोटाला पुस्तिका में उल्लेख है, ‘सीबीआई को जांच में इसलिए लगाया गया था ताकि घोटाले में राजनीतिक हाथ का पता लगाकर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हिसाब साफ कर लिया जाए। इसका दूसरा मकसद यह भी था कि सीबीआई कुछ गिरफ्तारियां करके और कुछ मुकदमे चलाकर जनता के सामने यह दिखा सकती थी कि सरकार घोटाले के अपराधियों को पकड़ने के लिए कितनी गंभीर है। चूंकि केवल दिखावा करना था इसलिए सीबीआई की एक जांच टीम को ही पूरी जांच नहीं दी गई वरन उसे बांट दिया गया।‘ आगे लिखा है कि सीबीआई ने अनुमान से अधिक मात्रा में राजनीतिक हाथ खोज निकाला जिससे सरकार के लिए थोड़ी समस्या हो गई क्योंकि किसी नेता का भांडाफोड़ उसे इंका (इंदिरा कांग्रेस) की अंदरूनी राजनीति में फायदेमंद लगता था और किसी का नुकसानदेह। इसलिए माधवन को चलता कर सीबीआई के पर कतर दिए गए।‘ एजेंसियों के दुरुपयोग की कांग्रेस राज में बहुत लंबी सूची बनाई जा सकती है। इस कारण जब राहुल गांधी ईडी को लेकर सरकार पर आरोप लगाते हैं तो जनता पर उसका प्रभाव दिखता नहीं है। उनके पार्टी पर इस तरह के आरोपों का इतना अधिक बोझ है जिससे वो मुक्त हो ही नहीं सकते। 

इस पुस्तिका में एक और विस्फोटक बात लिखी गई है, ‘कृष्णमूर्ति के घर पर छापे में सीबीआई ने सोनिया गांधी के दस्तखत वाला एक धन्यवाद पत्र बरामद किया जिसमें राजीव गांधी फाउंडेशन के लिए कोष जमा करने के लिए फाउंडेशन के चेयरमैन के रूप में उन्हें धन्यवाद दिया गया था। हर्षद मेहता और एक उद्गोयपति ने भी तो फाउंडेशन को 25-25 लाख रुपए के चेक दिए थे। दुबे यहां प्रश्न पूछते हैं कि ये धन कौन सा था? वही जो दलाल बैंकों से लेकर सट्टा बाजार में लगाते थे। इस धन से कमाई दलालों की संपत्ति तो जब्त कर ली गई पर यही पैसा तो राजीव गांधी फाउंडेशन में पड़ा है। क्या इसे जब्त करना और इसकी परतें खोलना सीबीआई का फर्ज नहीं था। राजीव गांधी फाउंडेशन की निर्लज्जता देखिए, उसने कृष्णमूर्ति के जेल जाने के बावजूद उन्हें अपनी सदस्यता से न हटाने का फैसला किया। हां, हर्षद वगैरह के जरिए मिले चंदे को मुंह दिखाई के लिए कस्टोडियन के चार्ज में जरूर दे दिया।‘ राजीव गांधी फाउंडेशन पर कोष जमा करने के कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। आज की पीढ़ी को को ये जानने का अधिकार तो है ही कि नब्बे के दश्क में कांग्रेस के शासनकाल में किस तरह से कार्य होता था और किस तरह के आरोप लगते थे। क्या राजीव गांधी फाउंडेशन के कोष जमा करने के तरीकों के खुलासे के बाद ही तो गांधी परिवार और नरसिम्हा राव के रिश्तों में खटास आई। क्या इन सब का ही परिणाम था कि नरसिम्हा राव के निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को कांग्रेस के कार्यालय में अंतिम दर्शन के लिए नहीं रखा गया। ये सभी ऐसे प्रश्न हैं जो कांग्रेस और राहुल गांधी को परेशान करते रहेंगे।