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Tuesday, July 19, 2011

दिलचस्प अनुभवों की शाम

बात अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है । पुस्तकों को पढ़ते हुए बहुधा मन में विचार आता था कि उसपर कुछ लिखूं । लेकिन संकोचवश कुछ लिख नहीं पाता था, ज्यादा पता भी नहीं था कि क्या और कैसे लिखूं और कहां भेजूं । अपने इस स्तंभ में मैं पहले भी चर्चा कर चुका हूं कि किताबों को पढ़ने के बाद चाचा भारत भारद्वाज को लंबे-लंबे पत्र लिखा करता था । फिर पत्रों में सहमति और असहमतियां भी होने लगी । इस पत्र व्यवहार से मुझे समीक्षा का एक संस्कार मिला । जमालपुर में रहता था वहां के कुछ साहित्यक मित्रों के साथ उठना बैठना होने लगा । फिर विनोद अनुपम के कहने पर जमालपुर प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ा, पदाधिकारी भी बना । प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद कई गोष्ठियों बैठकों में बोलने का मौका मिलना शुरू हो गया । लिहाजा पुस्तकों और रचनाओं पर तैयारी करने लगा, जिसका फायदा बाद में मुझे समीक्षा लेखन में हुआ । फिर मित्रों के आग्रह पर लघु पत्रिकाओं में कुछ समीक्षाएं भेजी जो प्रकाशित भी हुई । इन सबके पहले मैं हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह की कई किताबें पढ़ चुका था । सबसे पहले मैंने उनकी किताब - कहानी नयी कहानी पढ़ा, फिर कविता के नए प्रतिमान । उनपर केंद्रित पत्र-पत्रिकाओं और समीक्षा ठाकुर द्वारा संपादित किताब कहना ना होगा भी पढ़ा । नामवर जी के लेखन और उनकी समीक्षकीय दृष्टि से गहरे तक प्रभावित था । कहानी नयी कहानी में लिखी नामवर सिंह की एक पंक्ति अबतक याद है – आज की ग्राम जीवन पर लिखी हुई कहानियां प्रेमचंद की स्वस्थ और प्रवृत्त प्रवृति का अस्वाभाविक, परिवर्तित, कृत्रिम और डिस्टॉर्टेड पुन:प्रस्तुतीकरण है । वेद में जिसतरह सबकुछ है, उसी चरह प्रेमचंद की कहानियों में सबकुछ है । जगत ब्रह्म का विवर्त है तो आज की ग्राम कथाएं प्रेमचंद की विकृति है । कहानी नयी कहानी में जो लेख संकलित हैं वो नामवर सिंह ने 1956 से 1965 के बीच लिखे थे । लेकिन उनका उपरोक्त कथन आज भी पूरी तरह से समीचीन है । आज भी ग्रामीण जीवन पर लिखी जा रही कहानियों के संदर्भ में इस बात को कहा जा सकता है और मुझे लगता है कि यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. जितनी उस वक्त थी । खैर मैं वर्तमान कहानी पर चर्चा नहीं कर रहा । बात नामवर सिंह की हो रही थी । जमालपुर में जब रह रहा था तो नामवर सिंह को पढ़ते हुए यह लगता था कि काश उनसे परिचय होता, उनसे बातें कर पाता । कई बार उनको पत्र लिखा लेकिन डाक में डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । लेकिन नामवर और उनसे जुड़ा कुछ भी मिल जाता तो फौरन पढ़ लेता ।
समय के चक्र ने मुझे देश की राजधानी दिल्ली पहुंचा दिया । एक गोष्ठी में नामवर जी को सुना तो उनके वक्तृत्व कला से खासा प्रभावित हुआ । फिर फ्रीलांसिंग का दौर शुरु हुआ । मित्र संजय कुंदन ने राष्ट्रीय सहारा के रविवारीय पृष्ठ के लिए कई परिचर्चाएं करवाई । उसी के सिलसिले में दो एक बार नामवर जी से बात हुई । जितनी बार उनसे बात होती तो मुझे कुछ ना कुछ नया हासिल हो जाता । नामवर जी से आमना सामना नहीं हुआ । हिंदी भवन में एक गोष्ठी में नामवर जी ने अपने भाषण के क्रम में बोलते हुए ये कह डाला कि आजकल हिंदी साहित्य में अनंत विजय भी तलबारबाजी कर रहे हैं । संदर्भ मुझे अब याद नहीं है लेकिन इतना याद है कि उसी दौरान आलोचना पर एक परिचर्चा में मैंने नामवर सिंह की राय को शामिल नहीं किया था। फिर धीरे-धीरे नौकरी की व्यस्तता में लिखना कुछ कम हो गया । नामवर जी से बात करने की इच्छा मन में बनी रही । कई बार उन व्यक्तिगत पार्टी में बैठा जिसमें नामवर जी थे, उनको और उनके संस्मरणों और टिप्पणियों को सुनकर हमेशा से उनकी स्मृति और उनके अपडेट रहने की क्षमता पर ताज्जुब होता था ।
हाल ही में एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी में नामवर सिंह जी से मुलाकात हो गई । ये कवि गोष्ठी हिंदी कवि तजेन्द्र लूथरा के पहल पर हुई थी । जिसमें वरिष्ठ कवि विष्णु नागर, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ,मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, पंकज सिंह, सविता सिंह के अलावा राजेन्द्र शर्मा, रोहतक की कवियित्री शबनम, रमा पांडे और हरीश आनंद और ममता किरण भी थी । कवि मित्र अरुण आदित्य भी । उस दिन संयोग से विष्णु नागर जी का जन्मदिन भी था । सभी कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया । हमेशा की तरह अरुण आदित्य की कविताएं व्यंग्यात्मक लहजे में बड़ी बातें कह जाती है । उनकी कविताज- डर के पीछे कैडर है- सुनकर आनंद आ गया। तजेन्द्र लूथरा ने अपनी बेहतरीन कविता-अंतराल का डर- सुनाई। यह किवता मैं पहले ही पढ़ चुका था । इसमें कवि के अनुभव संसार का व्यापक फलक और उसको देखने समझने की उनकी दृष्टि सामने आती है । लक्ष्मी शंकर वाजपेयी और ममता किरण की खासियत यह है कि वो बिना पढ़े कविता बोलते हैं। सुनाते हैं। उनकी शैली उनके काव्य पाठ को एकदम से उपर उठा देती है । राजेन्द्र शर्मा की हुसैन पर लिखी कविता एकदम से मौजूं थी । लेकिन मंडलोई की दो लाइन ने महानगरीय जीवन की त्रासदी को एकदम से नंगा कर दिया- सांप काटने से नहीं हुई है देह नीली, कल रात मैं अपने दोस्त के साथ था । सभी कवियों ने दो-दो कविताएं सुनाई लेकिन चूंकि विष्णु नागर जी का जन्मदिन था इसलिए उन्होंने अपने संग्रह से कई कविताओं का पाठ किया । सविता सिंह ने लंबी कविता सुनाई लेकिन दूर बैठे होने की वजह से मैं कविता ठीक से सुन नहीं पाया । संभवत कविता का शीर्षक था- चांद, तीर और अनश्वर स्त्री । इस कवि गोष्ठी के बाद सबको उम्मीद थी कि नामवर जी कुछ बोलेंगे । संचालन कर रहे तजेन्द्र लूथरा और रमा पांडे समेत कई लोगों ने उनसे आग्रह किया लेकिन नामवर जी ने अपने अंदाज में मुंह में पान दबाए सिर्फ इतना कहा- आनंद आ गया ।
गोष्ठी के बाद नामवर जी से मेरी पहली बार बेहद लंबी बात हुई । उन्होंने ये कहकर मुझे चौंका दिया कि चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में तुम अच्छा लिख रहे हो । चौंकते हुए मैंने कहा कि सर आप देखते हैं तो उन्होंने फौरन मेरे स्तंभों की कई बातें बता कर अचंभे में डाल दिया । अपनी प्रशंसा सुनना हमेशा अच्छा लगता है लेकिन खुद से उसकी चर्चा अश्लीलता हो जाती है । नामवर जी से फिर हिंदी की रचनाओं पर बात शुरू हुई । हमारी लंबी चर्चा हिंदी के रचनात्मक लेखन में डीटेलिंग के नहीं होने पर हुई । उन्होंने इस बात पर सहमति जताई कि हिंदी के लेखक डिटेलिंग नहीं करते हैं इस वजह से बहुधा रचनाएं सतही हो जाती है । फिर हमारी चर्चा हुसैन पर हुई । नामवर जी ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया । एक बार वो, श्रीकांत वर्मा, हुसैन और कुछ मित्र दिल्ली में टी हाउस के बाहर खड़े हो कर बातें कर रहे थे, अचानक से एक वयक्ति दौड़ता हुआ आया और हुसेन को एक थप्पड़ मारकर भाग गया । सारे लोग हतप्रभ । यह दौर वही रहा होगा जब हुसेन हिंदू देवी देवताओं के चित्र बनाकर विवादित हो चुके थे । इससे हम हुसेन के भारत छोड़ने के डर का सूत्र पकड़ सकते हैं । हलांकि हुसेन के भारत छोड़ने को लेकर मेरी काफी असहमतियां रही हैं । नामवर जी ने एक और बात बताई कि कल्पना के हर अंक में हुसेन के रेखाचित्र छपा करते थे और उसके संपादक बदरी विशाल पित्ती हुसेन के गहरे मित्रों में से थे । हुसेन के बाद नामवर जी से भारतीय राजनीति, लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार आदि पर भी बातें हुई । नामवर जी का मानना था कि आज भारतीय राजनीति बेहद खतरनाक दौर से गुजर रही है । कांग्रेस और बीजेपी पर उन्होंने ख्रुश्चेव के बहाने से एक टिप्पणी- एक बार ख्रुश्चेव से ग्रेट ब्रिटेन की दोनों पार्टियां- लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के बारे में उनकी राय पूछी गई । ख्रुश्चेव ने उत्तर दिया कि एक बाएं पांव का जूता है और दूसरा दाएं पांव का जूता है । कहने का अर्थ यह कि दोनों आखिरकार जूते ही हैं ।
नामवर जी से तकरीबन घंटे भर की बातचीत उनको जानने समझने के लिए काफी था और यह मेरे लिए एक लाइफ टाइम एचीवमेंट जैसा था । जिनके लिखे को पढ़कर लिखना सीखा हो उनके सामने अपनी बात कहना मेरे लिए एक स्वपन के सच होने जैसा था ।नामवर जी से इतनी लंबी बात करने का अवसर सुलभ करवाने के लिए मित्र तजेन्द्र लूथरा का आभार ।

5 comments:

Unknown said...

Sapne har koi dekhta hai,par us sapne ko pura wahi log kar saktey hai jo usse pura karne ki chha rakte hai.Woh chha aap mein hai sir or yahi chha mujhe aapse bhi sikhna hai..

Unknown said...

Sap

Unknown said...

Sapne sab dekte hai par un sapno ko wahi pura karte hai jinmein sapno ko pura karne ki chhaa hoti hai,or yeah chha maine aap mein dekha hai sir.
Aapko aapna aaraadhya vyakti maan kar main bhi apne sapno ko pura karna chhata hoon.

Madhu Kankaria said...

Nambar singh ji se hui mulaqaat ko hum tak pahunchane ke liye shukria. Madhu kankaria

madhu.kankaria07@gmail.com said...

Naamwar singh ji se hui mulaqat ko hum taklaane ke liye shukria.