हिंदी की बहुत सारी ऐसी महत्वपूर्ण किताबें हैं जो अब लगभग अप्राप्य हैं, जिसकी
वजह से नए जमाने के पाठकों का उनसे और उसके लेखक से परिचय नहीं है । ये ऐसे ग्रंथ हैं
जिनके पुनर्प्रकाशन से हिंदी को आगे बढ़ाने में मदद मिलती या फिर हिंदी के पाठकों को
समृद्ध करने में मदद मिलती । एक जमाने में काशी नागरी प्रचारिणी, नागिरी प्रचारणी सभा,खडगविलास
प्रेस, नवल किशोर प्रेस आदि से इतनी महच्वपूर्ण किताबें छपी थी जो कि इस वक्त लगभग
अप्राप्य हैं । पिछले दिनों पं किशोरीदास वाजपेयी की किताब ‘हिंदी शब्दानुसान’ पढ़ने की जरूरत महसूस हुई । इस किताब
को खोजने का प्रयास शुरू हुआ, दिल्ली से लेकर वाराणसी तक के अपने संपर्कों को खटखटाया
लेकिन किताब उपलब्ध नहीं हो सकी । बाद में मित्र अरुण माहेश्वरी ने वो पुस्तक उपलब्ध
करवाई । हिंदी लिखनेवालों के लिए पंडित किशोरी दास वाजपेयी की यह किताब उतनी ही आवश्यक
है जितनी जिंदगी को चलाने के लिए खाना या पानी । हो सकता है मेरी यह तुलना कुछ लोगों
को अतिशयोक्ति लगे लेकिन जिस तरह से किशोरीदास वाजपेयी ने हिंदी और अन्य भाषा को जोड़कर
शब्दों के उपयोग को सिखाया है वह अद्भुत है । अफसोस कि यह किताब लगभग अनुपलब्ध है ।
अब संभवत वाणी प्रकाशन से इसके छापने की योजना बन रही है । इसी तरह से कई किताबें हैं
जिसका फिर से अगर प्रकाशन किया जाना चाहिए । दूसरी बड़ी समस्या है कि जिन किताबों का
फिर से प्रकाशन हुआ उसमें धीरे-धीरे खुद ही बदलाव होते चले गए । जैसे प्रेमचंद का मशहूर
उपन्यास ‘गो-दान’ से ‘गोदान’ हो गया । जब दस जून उन्नीस सौ छत्तीस में प्रेमचंद का
उपन्यास ‘गो-दान’ छपा था तब ‘गो’ और ‘दान’ के बीच हाइफन था । इसके आवरण पृष्ठ पर यह शीर्षक अंकित है. साथ ही नीचे सरस्वती
प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई छपा हुआ है । अभी प्रेमचंद साहित्य
के मर्मज्ञ विद्वान कमल किशोर गोयनका के संपादन में प्रकाशित हुई गो-दान में कई दिलचस्प
बातें हैं । जैसे कमल किशोर गोयनका ने जनार्दन प्रसाद झा द्विज को उद्धृत करते हुए
लिखा है – जनार्दन प्रसाद झा द्विज ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद की उपन्यास कला’ में लिखा है कि प्रेमचंद
ने इसका नाम ‘गौ-दान’ रखा था, परंतु
मेरे कहने से ‘गौ’ के स्थान पर ‘गो’ अर्थात ‘गो-दान’ कर दिया । अब ये सब हिंदी के पाठकों के लिए दिलचस्प प्रसंग हैं । हलांकि इस प्रसंग
में तो विस्तृत शोध की आवश्यकता है कि क्योंकर और कैसे गो-दान से गोदान हो गया । अपनी
इस किताब में कमल किशोर गोयनका ने इस बात के पर्याप्त संकेत किए हैं कि प्रेमचंद के
इस उपन्यस के मूल पाठ में भी बदलाव हुआ है । यह विषय एक अलग लेख का है, ज्सपर फिर कभी
विस्तार से चर्चा होगी ।
अभी हाल ही में हिंदी के एक और पुराने और दुर्लभ ग्रंथ का पुनर्मुद्रण हुआ है । यह है आचार्य
महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ । यह किताब आज से करीब बयासी साल पहले आचार्य
महावीर प्रसाद द्विवेदी के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश के मौके पर उन्नीस सौ तैंतीस में
छपा था । दरअसल इस ग्रंथ के छपने के पीछे की भी एक दिलचस्प कहानी है । बात 1932 की
है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एक दिन के लिए काशी पधारे थे । उस वक्त काशीनागिरी
प्रचारिणी सभा की ओर से उनको एक अभिनंदन पत्र दिया गया था । बात आई गई हो गई थी । कई
दिनों बाद शिवपूजन सहाय ने काशी नागिरी प्रचारिणी सभा के मंत्री से चर्चा की कि सभा
को केवल मानपत्र देकर ही नहीं रह जाना चाहिए, आचार्य के अभिनंदन के लिए एक सुंदर ग्रंथ
का भी प्रकाशन होना चाहिए । सभा ने आचार्य शिवपूजन सहाय के इस प्रस्ताव पर सहमति दे
दी और किताब छपने का काम शुरू कर दिया गया । आर्थिक संकट से निबटने के अलावा देश दुनिया
के विद्वानों की आचार्यमहावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में राय मंगवाने की भी बड़ी
चुनौती थी । काम शुरू हुआ तो आगे चलता चला गया । आचार्य अभिनंदन ग्रंथ के प्रकाशन के
लिए इसके कर्ताधर्ताओं ने बेहद बारीकी से योजना बनाई थी । उस वक्त के अखबारों में इस
योजना की चर्चा शुरू की गई ताकि इस किताब के बारे में उत्सकुता का एक वातावरण तैयार
हो सके । यह योजना काम कर गई थी और हिंदी पट्टी में आचार्य के उपर प्रस्तावित ग्रंथ
की चर्चा शुरू हो गई थी । एक समय तो ऐसा आया था कि लगा कि अब इस किताब के प्रकाशन की
योजना पर ग्रहण लग जाएगा । जब इस किताब को छापने के लिए सभा के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न
हुआ तो वो उस वक्त देश के तमाम बड़े और धनवान लोगों के पास आर्थिक सहायता के लिए पत्र
भेजा गया लेकिन बड़े-बड़े लोगों ने कोई मदद नहीं की । सबने योजना को अच्छा बताते हुए
उसकी तारीफ की लेकिन आर्थिक मदद करने में असमर्थता जाहिर कर दी थी । इसके बाद राजाओं
के पास संदेश भेजा गया । अखबारों में चर्चा का एक लाभ यह हुआ कि राजाओं के पास इस योजना
की जानकारी पहुंच चुकी थी । उस वक्त के कई राजाओं ने इस किताब को छापने के लिए आर्थिक
सहायता प्रदान की । सीतामऊ के राजपरिवार ने ना केवल सौ रुपए की आर्थिक मदद की बल्कि
देश भर के राजघरानों से आर्थिक मदद दिलाने में सभा की सहायता की । उस ग्रंथ की भूमिका में भी इस बात का
उल्लेख मिलता है – ‘विषम आर्थिक परिस्थिति के कारण हमें आर्थिक सहायता प्राप्त करने में बड़ी अड़चन
पड़ी । हमारे उद्देश्यों से सहानुभूति रखते हुए भी बड़े-बड़े श्रीमानों तक ने हमें
कोरा उत्तर दे दिया । यदि सीतामऊ के राजकुल ने हमारा हाथ ना पकड़ा होता तो संभवत: हमें यह प्रस्ताव स्थगित कर देना पड़ता । हमारी प्रार्थना पहुंचते ही वहां के विद्या
रसिक महाराज महोदय ने सौ रुपए का दान देकर हमें प्रोत्साहित किया । इसके अनंतर वहां
के विद्वान राजकुमार ने, जिन्होंने हिंन्दी सेवा का व्रत धारण किया है और जो हिंदी
के एक श्रेष्ठ उदयीमान लेखक हैं, अपने कई इष्ट मित्र नरपतियों से हमें सहायता दिलवाई
।‘ अब इस तरह के वाकयों से हिंदी जगत लगभग अपरिचित है । इस तरह के ऐतिहासिक महत्व
की किताबों को छापने का काम साहित्य अकादमी या नेशनल बुक ट्रस्ट को करना चाहिए ।
अभी हाल ही में नेशनल बुक ट्रस्ट ने आचार्य द्विवेदी के जन्मस्थान दौलतपुर में
सक्रिय संस्था आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति के सौजन्य से
हासिल इस दुर्लभ ग्रंथ को फिर से छापा है । दरअसल आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के
एक सौ पचासवीं वर्षगांठ पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति,
रायबरेली ने इस दुर्लभ ग्रंथ को फिर से छपवाने का बीड़ा उठाया था । जिस तरह से पहली
बार इस ग्रंथ को छपने में बाधा आई थी उसी तरह से कई कठिनाइयों का सामना इसके पुनर्प्रकाशन
में भी करना पड़ा । साहित्यप्रेमी और पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भी इसमें पहल की
और नेशनल बुक ट्रस्ट इसको छापने के लिए तैयार हुआ । पुनर्प्रकाशित इस ग्रंथ के महत्व
को रेखांकित करते हुए आलोचक मैनेजर पांडे ने विस्तार से एक लेख लिखा है । मैनेजर पांडे
ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को युगद्रस्टा और युगस्रस्टा करार दिया है । मैनेजर
पांडे ने साफ तौर पर कहा है कि आचार्य जी की साहित्य की धारणा बहुत ही व्यापक थी ।
वे केवल कविता, कहानी, उपन्यास नाटक, और आलोचना को ही साहित्य नहीं मानते थे । उनके
अनुसार किसी भी भाषा में मौजूद ज्ञानराशि साहित्य है । द्विवेदी जी की यही धारणा उनके
लेखन में भी दिखाई देती है जब वो उस वक्त के लगभग हर विषय पर अपनी लेखनी चलाते नजर
आते हैं । उनकी किताब ‘संपत्तिशास्त्र’ इसका बेहतरीन नमूना है । कहा जाता है कि हिंदी में इस किताब की टक्कर की दूसरी
किताब नहीं है । आचार्य अभिनंदन ग्रंथ को देखकर इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि
उनके समकालीन उनके बारे में क्या सोचते थे । ये अभिनंदन ग्रंथ हाल के दिनों में छप
रहे अभिनंदन ग्रंथ की तरह नहीं है बल्कि यह कहा जा सकता है कि इसमें जिन लोगों की राय
है उससे आचार्य की एक लेखक के तौर पर और एक व्यक्ति के तौर पर छवि का निर्माण होता
है । इस किताब में मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, वासुदेव शरण अग्रवाल, मौलाना
सैयद हुसैन शिबली, संत निहाल सिंह, जार्ज ग्रियर्सन से लेकर महादेवी वर्मा, प्रेमचंद
के अलावा महात्मा गांधी की राय भी है । पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र
ने हनुमान प्रसाद पोद्दार के पत्रों को संग्रहित संपादित किया था – पत्रों में समय संस्कृति । इसके बाद अब आचार्य अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन हिंदी
के लिए एक शुभ संकेत है । हलांकि ये आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक
समिति के गौरव द्विवेदी और पत्रकार अरविंद सिंह की पहल पर हुआ है, लेकिन नेशनल बुक
ट्रस्ट को इस दिशा स्वतंत्र रूप से खोजबीन कर दुर्लभ ग्रंथों के प्रकाशन की पहल करनी
होगी ताकि हिंदी के नए पाठकों को अपने गौरवशाली अतीत से परिचय हो सके ।
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