गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में एक प्रसंग में लिखा है – घन घमण्ड नभ गरजत घोरा/ प्रियाहीन डरपत मनमोरा
। गोस्वामी जी इस पूरे प्रसंग में मौसम, बारिश और उफनती नदी के बहाने से नीतियों की
बात करते हैं । राम और लक्ष्मण के इस संवाद में समाज और राजकाज के बारे में राम अपने
विचार प्रकट करते हैं । दरअसल इस तरह की बातें करके राम अपने मन की बात अनुज लक्ष्मण
से छिपाना चाहते हैं । लेकिन प्रियतमा का विछोग छुपाना मुश्किल है और मर्यादा पुरुषोत्तम
होते हुए भी राम के मुख से उपरोक्त पंक्तियां निकल ही जाती हैं । वो बारिश के मौसम
में सीता के वियोग का दर्द उनकी जुबां पर आ ही जाता है । हिंदी के वरिष्ठ लेखकों की
हालत भी राम के जैसी ही है । वो भी मन ही मन बाजार की चाहत रखते हैं लेकिन नीतियों,
सिद्धांतों और विचारधारा की वजह से उसकी बात करना उचित नहीं समझते हैं । उन्हें लगता
है कि सार्वजनिक रूप से बाजार की वकालत करने से उनकी छवि पर विपरीत असर पड़ेगा, ठीक
वैसे ही जैसे राम के मन में ये द्वंद चलता है कि अपनी प्रियतमा के विछोह के दर्द को
अपने छोटे भाई के साथ कैसे साझा करें । हिंदी के साहित्यकारों के लिए अब तक बाजार एक
अछूत की तरह था । बाजार का नाम लेना तक उन्हें गंवारा नहीं था और जब भी उनके लबों पर
बाजार आता था तो उसके खिलाफ ही आवाज निकलती थी । यह विरोधाभास हिंदी में लंबे समय तक
चलता रहा । विरोधाभास इस वजह से कि लेखक कोई भी रचना लिखता है तो उसकी आकांक्षा होती
है कि वो छपे । जैसे ही वो प्रकाशक के पास जाता है वैसे ही वो बाजार में प्रवेश करता
है । किताब छपने के बाद हर लेखक की आकांक्षा होती है कि वो हिंदी के विशाल पाठक वर्ग
तक पहुंचे । अब ये जो चाहत है वो बाजार के बगैर पूरी नहीं हो सकती । किताब छपने और
बिकने के तंत्र में बाजार आवश्यक है । हमारे हिंदी के लेखक इस बात को नहीं समझ पाए
और विचारधारा की जकड़न में बेवजह बाजार का विरोध करने लगे । नतीजा यह हुआ कि बाजार
भी हिंदी साहित्य के प्रति उदासीन होता चला गया । हाल के दिनों में अलका सरावगी ने
फेसबुक के जरिए बाजार में अपनी पैठ बनाने की छोटी सी कोशिश की तो उनकी हिंदी के लोगों
ने इतनी लानत मलामल कि दूसरे लेखकों को उस तरह की पहल करने से पहले सोचने को मजबूर
होना पड़ेगा । हिंदी साहित्य जगत में अक्सर ये बात सुनी जाती है कि साहित्यक किताबें
नहीं बिकतीं । प्रकाशक भी बिक्री नहीं होने की बात करते हुए साहित्यक कृतियों के प्रकाशन
के प्रति उत्तरोतर उदासीन होने लगे हैं । कविता के प्रकाशक तो मिलने लगभग बंद हो गए
हैं । बाजार और बाजार का विरोध विचारधारा के आधार पर करने को गलत ठहराना इस लेख का
मकसद नहीं है । मकसद सिर्फ इतना जाहिर करना है कि इस ठस मानसिकता और विरोध ने साहित्य
का कितना नुकसान किया ।
अब स्थितियां थोड़ी बदलने लगी हैं । बाजार और उसके औजारों
का उपयोग लेखक अपनी रचनाओं से लेकर उसकी बिक्री तक में करने लगे हैं । इसके सकारात्मक
नतीजे भी मिलने लगे है । हिंदी के युवा लेखकों ने अपनी भाषा बदली, कहानी का विषय वस्तु
बदला, परिवेश बदला और सबसे बड़ी बात कि रूढ़ होता जा रहा यथार्थ भी उनके रचनाओं में
नए रूप में आने लगा । अब हम अगर इस वक्त के समकालीन साहित्यक परिदृश्य डालते हैं तो
जो युवा या युवा होने की दहलीज पार कर चुके हैं उनकी रचनाओं में एक तरह का टटकापन नजर
आता है । अगर हम उपन्यास लेखन पर बात करें तो जिस तरह से पंकज दूबे और सत्य व्यास ने
अपने पहले ही उपन्यास से हिंदी के पाठकों को ना केवल चौकाया बल्कि उसकी बिक्री ने भी
पहली कृति के लिहाज से सफलता के झंडे गाड़ दिए । पंकज दूबे के उपन्यास ‘लूजर कहीं का’ दो भाषाओं में लिखा गया- अंग्रेजी
और हिंदी । अंग्रेजी में भी वो काफी सफल रहा । पंकज दूबे ने अपने इस उपन्यास को सफल
बनाने के लिए बाजार से दोस्ती की । विषयवस्तु में नयापन था, प्रेम भी वैसा ही था जो
कॉलेज के दिनों में होता है, बस कमी थी पाठकों तक पहुंचने की, जैसे ही इस कमी को दूर
किया गया पाठकों के साथ साथ बाजर ने उसको हाथों हाथ लिया । इसी तरह से सत्य व्साय के
उपन्यास ‘बनारस टॉकीज’ को भी पाठकों ने
हाथों हाथ इस वजह से लिया कि उसने अपनी भाषा से, अपने कथानक से अपन किस्सागोई से पाठकों
को अपनी ओर खींचा । भाषा को उसकी शुद्धता के जकड़न से मुक्त कर विश्वविद्लाय के छात्रों
के बीच बोली जानेवाली भाषा को अपनाया । जैसे ‘बाबा’ शब्द विश्वविद्लायों में काफी चलता है, सत्य ने इस शब्द को अपने एक चरित्र के माध्यम
से जीवंत कर दिया । इन दोनों उपन्यासों में लेखकों ने शीर्षक भी पाठकों के साथ साथ
बाजार को ध्यान में रखते हुए चुना है । लूजर कहीं का और बनारस टॉकीज । शीर्षक के अलावा
दोनों किताबों की कीमत भी कम सवा सौ रुपए के रेंज में है । दोनों लेखकों और उनके प्रकाशकों
ने भी इन किताबों को बेचने के लिए सोशल मीडिया से लेकर ऑनलाइन बुक स्टोर्स पर जमकर
प्रचार किया । नतीजा मिला । पंकज दूबे का नया उपन्यास ‘इश्कियापा’ भी छपकर आनेवाला है । उस किताब का कवर उसके प्रकाशक
ने रिलीज कर दिया है और किताब को लेकर पाठकों के बीच उत्सकुकता का माहौल बनाने का काम
भी जारी है । इसी तरह अभी वाणी प्रकाशन से प्रभात रंजन की किताब ‘कोठागोई’ प्रकाशित हुई है । इस किताब में हिंदी के लगभग वर्जित
प्रदेश में लेखक घुसता है और वहां से कहानी को उठाता है । बिहार के मुजफ्फरपुर की बदनाम
बस्ती चतुर्भुज स्थान में संगीत की एक समृद्ध परंपरा थी जो कि बदनामी में दबी हुई थी
। प्रभात ने उसको उठाकर सामने रख दिया । इसके अलावा प्रभात रंजन और उसके प्रकाशक ने
भी बाजार से रार नहीं ठानी और उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया । किताब की बिक्री बढ़ाने
के लिए ऑफर से लेकर उपलब्धता तक को इंश्योर किया गया । यासिर उस्मान नाम के एक युवा
लेखक ने राजेश खन्ना पर हिंदी और अंगेजी दोनों भाषाओं में एक साथ लिखा – राजेश खन्ना, कुछ तो लोग कहेंगे । राजेश खन्ना भारतीय सिनेमा का एक ऐसा किरदार
है जिसके बारे में अब भी किवदंतियां चलती हैं । यासिर की इस पहली किताब को भी पाठकों
ने हाथों हाथ लिया । हिंदी के एक और प्रकाशक हिंदी युग्म ने भी बाजार को लेखक के साथ
जोड़ने का उपक्रम शुरू किया है ।कम कीमत की पुस्तकें और ऑनलाइन बिक्री का कॉकटेल ।
इसका नतीजा भी मिल रहा है । अनु सिंह चौधरी से लेकर निखिल सचान तक की किताबों की जमकर
बिक्री हो रही है । प्रकाशक का दावा है कि उनके लेखकों के किताबों की ऑनलाइन प्री बुकिंग
भी होती है । यह बहुत अच्छी बात और साहित्य के लिए शुभ संकेत है। हिंदी युग्म ने बिल्कुल
नए लेखकों को अपने साथ जोड़ा और उनको ऑनलाइन बिक्री के प्लेटफॉर्म पर पाठकों के सामने
पेश कर दिया । उनका दावा है कि उनकी कई किताबें हजारों में बिकी हैं । अब एक दूसरा
पक्ष । गीताश्री ने अपने नए कहानी संग्रह- स्वप्न साजिश और स्त्री में अपनी भाषा और
नए कथ्य से पाठकों को चौकाया है । गीताश्री के पास चमत्कृत कर देनेवाली भाषा है और
विषय का नयापन भी । अगर इस किताब को प्रकाशक
ऑनलाइन स्टोर्स पर उपलब्ध करवा सकें तो यह पाठकों के बीच जबरदस्त लोकप्रिय होने के
पूरे आसार हैं । साहित्य में युवा लेखकों ने
जिस तरह से बाजार की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है और खुद को विचारधारा आदि की जकड़ने
से मुक्त कर पाठकों को ध्यान में रखकर लिखना शुरू किया है वह एक शुभ संकेत हैं । लेखक
और प्रकाशक के साझा प्रयास से बाजर पर फतह संभव है । बाजारवाद के इस दौर में बुद्धिमानी
यही है कि बाजार का अपने हक में इस्तेमाल करें, इससे साहित्य, साहित्यकार और पाठक तीनों
का भला होगा, प्रकाशक का तो होगा ही ।
No comments:
Post a Comment