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Sunday, September 27, 2015

अभिव्यक्ति की आजादी की राजनीति

कन्नड़ के साहित्यकार प्रोफसेर कालबुर्गी की हत्या के बाद दक्षिण भारत खासकर कर्नाटक में साहित्यक विवाद लगातार गहराता जा रहा है । हिंदी जगत में भी जादुई यथार्थवादी कथाकार उदय प्रकाश ने भी इसको एक अवसर की तरह देखते हुए अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर, गर्माने की कोशिश की । साहित्य से जुड़े कुछ लोगों का कहना है कि गर्माने की नहीं भुनाने की कोशिश की । इसी तरह से जनवादी लेखक संघ और चंद लेखकों ने भी इसपर एतराज जताते हुए आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन खास विचारधारा के इन लेखकों की साख इतनी नहीं है कि हिंदी जगह आंदोलित हो सके । खैर ये मुद्दा नहीं है । मुद्दा ये है कि कालबुर्गी की हत्या के बाद कर्नाटक के जो तमाम छुटभैये संगठन हैं, जो हिंदुत्व के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, उन्होंने भी इसको एक अवसर की तरह देखा और प्रचार पिपासा ने उनको आक्रामक कर दिया । ताजा मामला है कथित तौर पर बजरंग दल से जुड़े एक कार्यकर्ता की धमकी से । बजरंग दल से जुड़े होने का दावा करनेवाले एक शख्स ने कर्नाटक के रैशनलिस्ट माने जाने वाले लेखक के एस भगवान को जान से मारने की धमकी देते हुए एक ट्वीट किया है । खबर के आम होने के बाद पुलिस ने के एस भगवान को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करवा दी । हिंदी जगत के कई उत्साही लेखकों ने इसको फासीवाद के आसन्न खतरे की तरह देखा और इसको केंद्र की सरकार से जोड़कर छाती कूटने लगे । फासीवाद का राग बहुत लंबे समय से भारत में बजाया जा रहा है लेकिन अब तक फासीवाद आ नहीं पाया है । दरअसल फासीवाद-फासीवाद चिल्लाने वाले लोगों को भारतीय लोकतंत्र में आस्था और उसकी ताकत में भरोसा नहीं है । भारतीय लोकतंत्र अब इतना मजबूत हो चुका है कि उसको किसी भी तरह से भटकाना या भरमाना बहुत मुश्किल है । इंदिरा गांधी ने उन्नीस सौ पचहत्तर में एक कोशिश की थी लेकिन देश की जनता ने दो साल में ही उनको सबक सिखा दिया था । अब शायद ही कोई ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाए ।
कर्नाटक या यों कहें कि पूरे दक्षिण भारत में साहित्यिक कृतियों के खिलाफ इस तरह की घटनाएं पहले भी घटती रही हैं । धमकियां आदि भी दी जाती रही हैं लेकिन प्रोफेसर कालबुर्गी की हत्या के बाद खतरा अवश्य बढ़ गया है । एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते यहां हर किसी को अपनी बात कहने का जितना हक है उतना ही उसपर विरोध जताने का हक भी है, लेकिन हत्या करना या कानून को अपने हाथ में लेना बेहद आपत्तिजनक और घोर निंदनीय है । अब अगर हम दक्षिण भारत में इस तरह की बढ़ती घटनाओं की वजहों की तह में जाएं तो लगता है कि वहां की सामाजिक संरचना और कुरीतियां बहुत हद तक जिम्मेदार हैं । वहां के कई लेखकों ने इस सामाजिक विषमता के मद्देनजर अपनी लेखनी से उसपर जोरदार प्रहार किया । लेखकों ने समाज में व्याप्त इन विसंगतियों के लिए धर्म को जिम्मेदार मानते हुए विरोध की ध्वजा थामी । संभव है कि उनको ये बेहतर आधार लगा हो । धर्म के इस विरोध में कई बार तो लेखन की मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार हो गई ।  जैसे अगर हम के एस भगवान की ही बात करें तो उन्होंने 1985 में एक किताब लिखी थी शंकराचार्य एंड रिएक्शनरी फिलॉसफी । इस किताब में उन्होंने शंकराचार्य को जातिवाद की वकालत करनेवाला साबित करने की कोशिश की थी । संस्कृत के श्लोकों के आधार पर उन्होंने प्रतिपादित किया था कि शंकराचार्य दलितों और स्त्रियों के खिलाफ थे । के एस भगवान का कहना था कि शंकराचार्य दलितों और स्त्रियों की शिक्षा के खिलाफ थे । उस वक्त जब उनकी किताब आई थी तब भी उनका विरोध हुआ था । धरने प्रदर्शन हुए थे । उसके बाद भी प्रोफेसर भगवान अपने स्टैंड पर कायम रहे थे और यह सही भी था । हाल ही में उन्होंने फरवरी में एक सेमिनार में कहा कि भगवद गीता के नवें अध्याय को जला दिया जाना चाहिए, क्योंकि उसमें स्त्री, वैश्य, शूद्र को पापी कहा गया है । आरोप है कि अभी हाल ही में सितंबर में एक सेमिनार में भी प्रोफेसर भगवान ने एक सेमिनार में कथित तौर पर कहा कि भगवत गीता पढ़नेवाला आतंकवादी बन सकता है । उनके खिलाफ केस करनेवालों का इल्जाम है कि एक सेमिनार में प्रोफेसर भगवान ने राम और कृष्ण के बारे में भी आपत्तिजनक टिप्पणी की और कहा कि वो अपने जैविक पिता की संतान नहीं थे । इस तरह के वक्तव्य के बाद उनको विरोध हुआ और उनके खिलाफ धार्मिक भावनाएं भड़काने का केस भी दर्ज किया गया । भारत के संविधान में हर किसी को अपनी बात कहने का हक मिला है लेकिन उसी संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा भी तय की गई है । दोनों के बीच एक बहुत ही बारीक सी रेखा है जिसे बहुधा, जोश में लोग लांघा जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि परिधि पर बैठे लोगों को केंद्र में आने का मौका मिल जाता है और वो उग्र और हिंसक होने लगते हैं जो कानून सम्मत नहीं है और जिसकी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है । विचारों की लड़ाई विचार से लड़ी जा सकती है बंदूक से नहीं । बंदूक से विचार को मानने के लिए बाध्य करने का सोवियत रूस और चीन का लंबा इतिहास रहा है जो कि भारत के लिए मुफीद नहीं है । भारत की जनता बार बार इसको ठुकरा भी चुकी है ।
विचारों की लड़ाई का एक उदाहरण गांधी जी के हवाले से समझा जा सकता है । उन्नीस सौ सत्ताइस में एक अमेरिकी लेखिका कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया के नाम से एक किताब लिखी थी जिसमें भारत के बारे में बहुत ही गलत बातें लिखी गई थी । उस किताब के प्रकाशन के बाद विंस्टन चर्चिल बेहद खुश हुए थे और उन्होंने अपनी खुशी का सार्वजनिक इजहार भी किया था। तब महात्मा गांधी ने उस किताब की समीक्षा लिखकर अपना तगड़ा एतराज जताया था । महात्मा गांधी ने तब लिखा था- अगर मिस मेयो भारत में सिर्फ यहां की खुली नालियां और गंदगी देखने के नजरिए से आई थी तो उनकी इस किताब के बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ होगा । पर अगर वो अपने घृणित और बेहद आपत्तिजनक गलत निष्कर्षों को अपनी जीत और महान खोज की तरह देखती हैं तो लेखिका की मंशा जानने के बाद कुछ कहने को शेष नहीं रहता। इस तरह से उन्होंने उस किताब को दो तीन वाक्यों में खारिज कर दिया था और विंस्टन चर्चिल को भी जवाब दे दिया था । विचारों से लड़ने का यह तरीका ही सबसे अच्छा है । तर्कों को तर्कों से काटा जाए । तर्कों अपने विचारों से खारिज किया जाए ।

आज जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को घेरने की कोशिश करते हैं और उनको आजादी के लिए खतरा बताते हैं उनको एक और संदर्भ याद रखना चाहिए । संविधान में पहले संशोधन को लेकर बहुत जोरदार बहस हो रही थी मसला कुछ मौलिक अधिकारों को लेकर संशोधन का था । कई मसलों के अलावा संविधान के अनुच्छेद 19 में जो अभिव्यक्ति की आजादी का प्रावधान है उस पर कुछ अंकुश लगाए जाने की बात हो रही थी । संविधान इसमें जवाहरलाल नेहरू, सी राजगोपालाचारी, अंबेडकर समेत कई नेता इस पक्ष में थे कि अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं होनी चाहिए । बहस के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि आजाद प्रेस युवाओं के दिमाग में जहर भर रहा है । तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने इस लड़ाई को लड़ा था और कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह का अंकुश जायज नहीं होगा । कालंतर में इस तथ्य को बेहद चालाकी से दबा दिया गया। दरअसल इसके पीछे की पृष्ठभूमि ये थी कि उन्नीस सौ पचास में क्रास रोड नामक पत्रिका में नेहरू की नीतियों की जमकर आलोचना हुई थी और नेहरू इससे खफा होकर प्रेस पर अंकुश लगाना चाहते थे । उस वक्त की मद्रास सरकार ने क्रास रोड पर पाबंदी लगाई थी । आजाद भारत में ये पहली पाबंदी थी । क्रास रोड इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई थी और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रोमेश थापर का केस अब भी कई मामलों में नजीर बनता है । अब वक्त आ गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर एक बार फिर से राष्ट्रव्यापी बहस हो जिसमें तथ्यों को समग्रता में रखकर बहस हो और देश किसी ठोस नतीजे पर पहुंचे तभी विचारों की लड़ाई में खून खराबा नहीं होगा ।   

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