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Tuesday, September 8, 2015

'हंस' के तेवर को क्या हुआ

पिछले हफ्ते 28 अगस्त को हिंदी की बहुपठित और प्रतिष्ठित पत्रिका हंस के संपादक और कथाकार राजेन्द्र यादव का जन्मदिन था । आज अगर यादव जी जीवित होते तो वो छियासी साल के होते । करीब दो साल पहले जब उनका निधन हुआ था तब ये सवाल उठा था कि उनके संपादन में निकलनेवाली पत्रिका हंस का क्या होगा । उनकी मृत्यु के बाद कथाकार और रंगकर्मी संजय सहाय को हंस के संपादन की कमान सौंपी गई । राजेन्द्र जी के निधन के बाद जो अंक निकला था उसमें यादव जी की पत्नी और वरिष्ठ कथाकार मन्नू भंडारी ने पाठकों को आश्वस्त किया था कि हंस लगातार निकलता रहेगा । उस संदेश में यह भी अंतर्निहित था कि यादव जी की परंपरा पर ही हंस आगे बढ़ेगा । हंस की आवर्तिता बरकरार है लेकिन यादव जी की कमी को साफ तौर पर खटक रही है । राजेन्द्र यादव के संपादन में जब हंस निकलता था तो उसकी अपनी एक अलग पहचान और अलग तेवर था । दरअसल राजेन्द्र जी में हर अंक में कुछ नया करने की ललक होती थी । इसके लिए वो महीने भर लगातार लेखकों और पाठकों से संवाद करते थे । बातीचत में वो हमेशा ये कहा करते थे कि एक संपादक को लगातार संवाद करते रहना चाहिए था । नतीजा सबके सामने था । मेरा मानना है कि वो जितने बेहतर कहानीकार थे उतने ही बेहतर संपादक भी थे, थोड़े बेहतर भी कह सकते हैं । उनके संपादन में हंस ने जिस वैचारिक ताप से हिंदी साहित्य को झकझोरा था वो ठंडा पड़ता नजर आ रहा है । हंस के संपादकीय के लिए हमारे जैसे पाठक पूरे महीने इंतजार करते थे । यादव जी एक स्टैंड लेते थे और फिर उसपर बहस ही नहीं करते थे बल्कि टिके भी रहते थे, तमाम विरोध और आक्रमणों के बावजूद ।
यादव जी के बाद हंस को निकलते लंबा वक्त हो गया । अबतक नए संपादक की छाप उसपर दिखने लगनी चाहिए थी । लेकिन हंस अब एक आम साहित्यक पत्रिका की भीड़ में शामिल हो गया है । जिसमें कुछ नियमित स्तंभ होते हैं, चंद कहानियां होती हैं और कुछ कविताएं । राजेन्द्र जी हमेशा कहा करते थे कि छोटे लेख लिखा करो । उनकी भाषा में ज्यादा ज्ञान मत पेलो यार । पाठकों पर रहम करो । अब ये देखकर हैरानी होती है कि हंस में अकादमिक किस्म के, लंबे-लंबे बोरियत से भरपूर लेख प्रकाशित होते हैं । हंस को हंस बनाने के लिए यादव जी जितने सक्रिय या सजग रहते थे उसका अभाव दिखता है । यादव जी की एक खास बात और थी कि वो पूरे विश्व में साहित्य जगत में नया क्या हो रहा है इसको जानने के लिए उत्सुक ही नहीं रहते थे, हंस के पाठकों तक उसको पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील भी रहते थे । लिहाजा उनसे विश्व साहित्य पर बात करके बहुत मजा आता था । कई बार वो ये भी कहते थे कि अमुक तरह की रचना तो पचास के दशक में फलां लेखक ने लिखी थी । यादव जी खुद ही नया से नया पढ़ते थे और उसमें से अगर उनको कुछ पाठकों के लिए जंचता था तो फौरन उसको छापते थे । हंस से जुड़े लोग इस बात की तस्दीक कर सकते हैं । हलांकि यादव जी को सौ फीसदी जानने और समझने का दावा कोई नहीं कर सकता है । उन्होंने खुद एक साक्षात्कार में मुझसे कहा था कि वो खुद अपने को नहीं समझ पाए तो और कोई क्या उनको समझ पाएगा । यादव जी के जाने के बाद हिंदी जहत में जो सन्नाटा पैदा हुआ है वो उनके निधन के लगभग दो साल बाद भी थोड़ा भी भरा नहीं जा सका है । हंस से जो अपेक्षा थी वो अबतक अपेक्षा ही है ।


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