वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने एक बार हिंदी कविता को लेकर बेहद
दिलचस्प बात की । उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की कविताओं के सामने आने के पहले हिंदी
कविता के ज्यादातर महत्वूपूर्ण कवि उत्तरप्रदेश से होते थे । उनकी स्थापना के मुताबिक
जब मुक्तिबोध की कविताओं ने हिंदी कविता में अपने को मजबूती से स्थापित किया तो उसके
बाद से हिंदी कविता में मध्यप्रदेश के कवियों का दबदबा बढने लगा । अपने तर्क के समर्थन
में नरेश जी ने उन्होंने अशोक वाजपेयी से लेकर राजेश जोशी और भगवत रावत तक के नाम गिनाए
। इस बारे में मुक्तिबोध के एक और मित्र अशोक वाजपेयी से जब मैंने सवाल किया तो उन्होंने
हंसते हुए कहा कि ये बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन कौड़ी है अच्छी । अशोक वाजपेयी ने
नरेश सक्सेना की बात को अपने अंदाज में लगभग स्वीकार कर किया । मुक्तिबोध को लेकर हिंदी
कविता में लंबे समय से बहस चल रही है । उनकी कविताओं को अनेक तरह से व्याख्यायित किया
जा रहा है । उनके निधन के बाद से लगातार उनकी कविताओं को लेकर आलोचकों के बीच विमर्श
होता रहा है । डॉ रामविलास शर्मा
ने उन्नीस सौ अठहत्तर में प्रकाशित अपनी किताब- नई कविता और अस्तित्ववाद में मुक्तिबोध
की कविताओं का विस्तार से मूल्यांकन किया था । अपनी किताब में रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध
की कविताओं को अस्तित्ववाद और रहस्यवाद से प्रभावित साबित करने में कोई कोर कसर नहीं
छोड़ी । डॉ शर्मा ने तो मुक्तिबोध को सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से ग्रस्त बताकर एक
धुंध का वातावरण बना दिया । बाद में नामवर सिंह ने डॉ रामविलास शर्मा की मुक्तिबोध
को लेकर स्थापना का जबरदस्त विरोध किया । इन दो आलोचकों के बीच इस बात को लेकर लंबे
समय तक बहस हुई कि कि मुक्तिबोध की रचनाओं में संघर्ष दिखाई देता है वह उनका अपना संघर्ष
है या फिर पूरे मध्यवर्ग का संघर्ष है । कालांतर में अन्य आलोचकों ने रामविलास शर्मा
की स्थापनाओं पर सवाल उठाए । मुक्तिबोध पर रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को आलोचक नंदकिशोर
नवल उनके संकीर्णतावादी मार्क्सवादी होने का परिणाम करार देते हैं और कहते हैं कि मुक्तिबोध
ना केवल मानसिक रोगी नहीं थे बल्कि अपने युग के सर्वाधिक सुगठित व्यक्तित्ववाले रचनाकार
थे । यह मुक्तिबोध की कविताओं की
ताकत है कि वो अब तक आलोचकों को चुनौती दे रही है । सितंबर उन्नीस सौ पैंसठ के ज्ञानोदय में कवि श्रीकांत वर्मा
का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने कहा था – ‘अप्रिय’ सत्य की रक्षा का काव्य रचनेवाले कवि मुक्तिबोध को अपने
जीवन में कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी । श्रीकांत
वर्मा ने अपने उसी लेख में आगे मुक्तिबोध के कवित्व के वैशिष्ट्य को व्याखायित भी किया
था । कालांतर में श्रीकांत वर्मा की आशंका गलत साबित हुई और मुक्तिबोध को उनकी मृत्यु
के बाद पर्याप्त ख्याति मिली । अब भीमिल रही
है । पिछले साल उनकी जन्म शताब्दी के मौके पर हफ्ते भर का कार्यक्रम आदि हुए ।
अभी हाल ही में कवि राजेश जोशी ने मुक्तिबोध संचयन का संपादन
किया है । इस संचयन में मुक्तिबोध की कविताओं के अलावा उनकी कहानियां और उनका एक उपन्यास
विपात्र संकलित है । इस किताब को देखने के बाद यह लगा कि हिंदी में संचयन के प्रकाशन
की परंपरा का पूर्णत विकास होना शेष है । संचयन हिंदी में अंग्रेजी के रास्ते आया है
जहां सलेक्टेड वर्क्स की लंबी और समृद्धशाली परंपरा रही है । हिंदी में संचयन को बहुत
कैजुअली लिया जाता है । अब अगर हम समीक्ष्य संचयन को ही देखें तो इसमें मुक्तिबोध की
एक साहित्यक की डायरी से कुछ भी नहीं लिया गया है जबकि मुक्तिबोध के संचयन की कल्पना
उन लेखों के बगैर कैसे की जा सकती है । इस किताब में राजेश जोशी ने दस पन्नों की छोटी
से भूमिका लिखी है जिसमें मुक्तिबोध से जुड़े प्रसंगों को ज्यादातर अन्य लेखकों के
हवाले से कहा गया है । साहित्यक कृतियों के अलावा उनके व्यक्तिगत प्रसंगों की चर्चा
है । मुक्तिबोध का चाय प्रेम और गिरे हुए घर से उबलते हुए चाय को उठा लाना दिलचस्प
प्रसंग है । इसी तरह शादी के दौरान चाय पीने के लिए उतर जाना और बारात का उनको छोड़कर
आगे बढ़ जाना जैसा प्रसंग पाठकों के लिए रुचिकर है । लेकिन ये सब ऐसे प्रसंग है जो
पहले ही विस्तार से लिखे जा चुके हैं ।
संचयन के संपादक राजेश जोशी का आग्रह है कि मुक्तिबोध की कविताओं को उनकी अन्य
रचनाओं के साथ मिलाकर पढ़ा जाना चाहिए । जैसे अपनी भूमिका की शुरुआत में ही राजेश जोशी
ने एक कविता उद्धृत की है – अगर मेरी कविताएं पसंद नहीं/उन्हें जला दो/ अगर उनका लोहा पसंद नहीं/उसे गला दो/अगर उसकी आग बुरी लगती है/दबा डालो/इस तरह बला टालो !/ । राजेश जोशी का आग्रह
है कि इस कविता के के साथ ‘आत्म वक्तव्य’ शीर्षक कविता को मिलाकर पढ़ा जाए तो मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया और कविता के साथ उनके सरोकारों को समझा जा सकता है । उनकी बेचैनी,
उऩके तनाव, उनकी कविता के बार-बार बनते बदलते, कई कई प्रारूप और उलके लंबे होते जाने
को कुछ हद तक समझा जा सकता है । लेकिन इस संचयन के संपादक राजेश जोशी ने इस किताब में
मुक्तिबोध की कविता- एक टीले और डाकू की कहानी को नहीं रखा । माना जाता है कि इस कविता
में पहली बार आत्मसंघर्ष पहलीबार बहुत तीखे रूप में सामने आया था । दरअसल इस पूरी भूमिका
में राजेश जोशी बहुधा एक पंक्ति लिखकर पूर्ववर्ती लेखको के मुक्तिबोध पर लिखे को कोट
करते हैं । पाठकों की यह जिज्ञासा ये जानने में हो सकती है कि राजेश जोशी मुक्तिबोध
के बारे में क्या सोचते हैं । एक कवि अपने पूर्ववर्ती कवि के बारे में क्या सोचता है
। लेकिन ऐसा हो नहीं सका । मुक्तिबोध की राजनीतिक कविता के बारे में राजेश जोशी क्या
सोचते हैं । इस बात पर प्रकाश डाला जाना चाहिए था कि मार्क्सवादी आलोचना से मुक्तिबोध
की क्या शिकायत थी । यह जानना भी दिलचस्प होता कि राजेश जोशी इस बारे में क्या सोचते
हैं । इस पूरे संचयन को देखने के बाद यह लगता है कि संपादक ने मुक्तिबोध की रचनाओं
का चयन कर पाठकों के सामने पेश कर दिया । अच्छा होता अगर राजेश जोशी अपने इस चयन के
आधार को विस्तार से सामने रखते । दरअसल येसंचयन ना होकर मुक्तिबोध की कहानियों, कविताओं
और एक उपन्यास का संग्रह कहा जा सकता है जो लगभग साढे पांच सौ पन्नों का है ।
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