सोशल मीडिया और हिंदी । यह बात चंद सालों पहले तक सुनने में बहुत अजीब लगती थी
। हिंदी के लोग सोशल मीडिया को अंग्रेजी और अंग्रेजीवालों का एक ऐसा औजार समझते थे
जिसमें वो संवाद करते थे । हिंदी के लोगों को लगता का तर्क होता था कि फोन उठाकर या
आमने सामने संवाद की स्थिति को छोड़ सोशल मीडिया को अपनाना अंतरवैयक्तिक संबंधों में
बड़ी बाधा है । हिंदी के चंद उत्साही लोग तो इसको सामाजिक तानेबाने पर बाजारवाद का
बड़ा हमला मानते थे । सोशल मीडिया को आपसी भड़ास निकालने का मंच माननेवालों की तादाद
भी हिंदी में कम नहीं थी, अब भी कुछ लोग हैं । दरअसल शुरुआत में सोशल मीडिया पर अंग्रेजी का बर्चस्व
था । फेसबुक से लेकर ट्वीटर तक । इस बात को लेकर हिंदी के लोग सशंकित रहते थे । उनको
लगता था कि यह माध्यम अंग्रेजीवालों के चोंचले हैं । लेकिन हमारे यहां कहते हैं ना
कि मनुष बली नहीं होत है समय होत बलवान । तो वक्त बदला और सारी स्थितियां भी बदलती
चली गईं । पिछले एक दशक में
देश में तकनीक का फैलाव काफी तेजी से हुआ है । हर हाथ को काम मिले ना मिले हर हाथ को
मोबाइल फोन जरूर मिल गया है । घर में काम करनेवाली मेड से लेकर रिक्शा चलानेवाले तक
अब मोबाइल पर उपलब्ध हैं । किसी भी देश के लिए यह एक बेहतर स्थिति है जहां समाज के
सबसे निचले पायदान पर रहनेवालों को भी तकनीक का फायदा मिल रहा है । तकनीक के इस विस्तार
से उनकी हालात में तो सुधार हुआ ही उसका उपयोग करनेवाले बड़ी संख्या में अपनी भाषा
में संवाद करने को आतुर दिखाई देने लगे । कुछ दिनों पहले एक कार्यक्रम के दौरान हिंदी
की वरिष्ठ लेखिका और महिला अधिकारों को लेकर अपने लेखन में बेहद सजग मैत्रेयी पुष्पा
ने तकनीक की ताकत के बारे में बताया था । मैत्रेयी ने तब कहा था कि आज गांव घर की बहुओं
की ज्यादातर समस्याएं मोबाइल फोन ने हल कर दी हैं । उन्होंने कहा कि आज बहुएं घूंघट
के नीचे से फोन पर अपनी समस्याओं के बारे में अपने मां बाप को या फिर शुभचिंतकों को
संकट के सामय अपनी व्यथा बता सकती हैं । इसमें यह जोड़ा जा सकता है कि सोशल मीडिया
ने उनको और ज्यादा ताकत दी । मोबाइल फोन की क्रांति के बाद जो विकास हुआ वह था इंटरनेट
का फैलाव । तकनीक के विकास ने आज लोगों के हाथ में इंटरनेट का एक ऐसा अस्त्र पकड़ा
दिया है जो उनको अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म प्रदान करता है
। स्मार्ट फोन के बाजार में आने और उसकी कीमत मध्यवर्ग के दायरे में आने और थ्री जी
जैसे इंटरनेट तकनीक के लागू होने से यह और भी आसान हो गया है । हाथ में इंटरनेट के
इस औजार ने सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता बेहद बढ़ा दी है । पहले तो ऑरकुट हुआ
करता था जो नेट यूजर्स के बीच खासा लोकप्रिय था । बाद में सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक
ने जोर पकड़ा और हर वर्ग के लोगों के बीच फेसबुक पर होने की होड़ लग गई । सोशल नेटवर्किंग
साइट सोशल स्टेटस साइट में तब्दील हो गया । महानगरों के अलावा छोटे शहरों में फेसबुक
पर होना अनिवार्य माना जाने लगा । जो लोग यह कहकर फेसबुक की खिल्ली उड़ाते थे कि फोन
पर बात नहीं कर सकते वो वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर बात करेंगे वो लोग भी अब फेसबुक पर घंटों
गुजारते हैं । दरअसल यह होता है कि किसी भी तरह की नई तकनीक का पहले तो विरोध होता
है और बाद में वह लोगों की आदतों में शुमार हो जाता है । आपको याद हो कि जब अस्सी के
दशक में कंप्यूटर आया था तो उसका जमकर विरोध हुआ था । तब इस बात को लेकर खासा बवाल
मचा था कि कंप्यूटर से बेरोजगारी बढ़ेगी । लोगों के हाथों से काम छिन जाएगा आदि आदि
। लेकिन बाद में वो सारे तर्क धरे रह गए । कंप्यूटर ने भारत के लोगों के लिए संभावनाओं
के नए क्षितिज खोले । सॉफ्टवेयर में भारत आज एक सुपर पॉवर है । दुनिया के हर कोने में
भारत के लोग सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में बेहतर काम कर रहे हैं । तकनीक का विरोध या यो
कहें कि यथास्थिति का विरोध हमेशा से समाज में होता रहा है । जो चल रहा है वैसा ही
चलने दो की मनस्थिति चलती रहती है । बहुधा लोग यथास्थितिवाद के खूंटे से बंधे रहना
चाहते हैं लेकिन होता यह है कि तकनीक का विकास उनको खूंटे से आजाद करने के लिए बेताव
रहता है । यही जो संघर्ष होता है उसका परिणाम विरोध के तौर पर सामने आता है ।
हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर हिंदी का
प्रभाव काफी बढ़ा है इसकी वजह है उसके उपभोक्ता । दरअसल हुआ यह है कि सोशल मीडिया ने
राजनीति से लेकर पत्रकारिता के स्वरूप को बदला है । अब अगर हम खबरों की ही बात करें
तो सोशल मीडिया पर भाषाई बदलाव के बाद पाठकों या दर्शकों में भी बड़ा बदलाव लक्षित
किया जा सकता है । अगर हम खबर के पाठकों या दर्शकों की बात करें तो यह साफ तौर पर दिखाई
देता है । पहले पाठकों को एक सेट ऑफ न्यूज मिलता था लेकिन सोशल मीडिया के फैलाव के
बाद स्थिति बदल गई है । सोशल मीडिया ने उसको उल्टा कर दिया है । अब खबरों के इतने स्त्रोत
और इतनी वेरायटी मौजूद है कि एक ही तरह के खबरों से पाठकों को आजादी मिली । ट्विटर
न्यूजरूम का एजेंडा सेट करने लगा है । सोशल मीडिया पर जो ट्रेंड करता है वह न्यूजरूम
का एजेंडा तय करता है । पहले पाठकों को क्या मिलेगा ये संपादक तय करता था और हिंदी
में कई संपादक ये कहा करते थे कि खबर वही है जो उनका अखबार छापता है । उस वक्त संपादक
इस दंभ में रहा करते थे कि खबर वही जो संपादक चाहे । दरअसल उस दौर में पाठकों से संवाद
बिल्कुल नहीं होता था या उनकी रचियों को लेकर कभी कभार सर्वे आदि हो जाते थे । सोशल
मीडिया ने यहां भी स्थिति उलट कर रख दी । अब सोशल मीडिया की वजह से पाठकों से बेहतर
संवाद हो रहा है । पाठक अपनी राय पोस्ट कर
रहे हैं और उनको अहमियत भी मिल रही है । सोशल मीडिया ने एक और बदलाव किया । सोशल मीडिया
ने पत्रकारों को ब्रांड बनाया जो कि ट्रांसफरेबल एसेट होते चले गए । या कह सकते हैं
कि ट्रेडेबल असेट हो गए । ट्विटर पर बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई के करीब बीस-बाइस
लाख से ज्यादा फ़ॉलोअर है । वो जहां जाएंगे वो साथ जाएंगे । इसका मतलब यह हुआ कि भाषा
भी उनके साथ जाएगी । पहले यह अमेरिका में हो रहा था लेकिन इंटरनेट के फैलाव ने इसको
भारत में भी संभव बना दिया । इन दोनों के अलावा कई हिंदी के पत्रकारों के भी फॉलोवर
लाख से ज्यादा हैं तो यह जो उनके फॉलोवर हैं एक तरीके से उनको पाठक भी हैं । ये पाठक
किसी एक भाषा के नहीं हैं लेकिन जब राजदीप सरदेसाई हर रात एक हिंदी फिल्म का गाना ट्वीट
करते हैं तो उसके बारे में जानने की इच्छा गैर हिंदी भाषी फॉलोवर को भी होती होगी ।
तीसरा जो अहम बदलाव देखने को मिल रहा है वह यह है कि अब यह उपभोक्ता तय कर रहा है कि
वो किस प्लेटफॉर्म पर या किस भाषा में खबर या अन्य चीजें पढ़े । स्मार्ट फोन के बढ़ते
चलन से अब पाठकों को चलते फिरते पढ़ने की आदत बढ़ती जा रही है । बाजार की भाषा में
कहते हैं कि उपभोक्ता आन द मूव पढ़ना, देखना चाहता है । अब एक जगह बैठकर पढ़ना या टीवी
देखना यूजर के मूड पर है । सहूलियत पर है । अब टीवी या अखबार की बाध्यता नहीं रही ।
टीवी खराब हो गया या अखबार नहीं आया तो पाठक अब सर्च इंजन के माध्यम से या फिर सोशल
मीडिया पर देशदुनिया की हलचलों से अपडेट रहता है । मोबाइल पर हर तरह के ऐप मौजूद हैं
जहां पाठक अपनी रुचि की चीजें अपनी पसंदीदा भाषा में देख पढ़ सकता है । चंद सालों पहले सोशल मीडिया के बढ़ते कदम के मद्देनजर
मोबाइल फर्स्ट का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था लेकिन अब तो वो आगे बढ़कर मोबाइल
ओनली तक पहुंच गया है । यही वजह है कि - अब सभी स्मार्टफोन में स्क्रीन साइज बढ़ा रहे
हैं । एप्पल जैसा ब्रांड भी स्क्रीन साइज बढ़ाने को मजबूर हो गया । इसी तरह सोशल मीडिया
में सक्रिय कंपनियों को हिंदी में अपार संभावनाएं नजर आईं । धीरे-धीरे सबने हिंदी को
अपनाना शुरू किया । अभी हाल ही में ट्विटर ने हैशटैग के लिए भी हिंदी समेत कई भारतीय
भाषाओं को अपने प्लेटफॉर्म पर शामिल किया । अब हिंदी में किए गए ट्वीट ट्रेंड कर सकते
हैं, करने लगे भी है । अगर आप फेसबुक पर देखें तो भाषा के तौर पर हिंदी को लेकर कई
तरह की सहूलियतें दी गई हैं । पांच साल पहले जिस तरह से सोशल मीडिया साइट्स पर लोग
रोमन में लिख रहे थे उसमें से ज्यादातर अब नागरी में लिखने लगे हैं ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि सरकार का धर्म है कि वह काल की गति
को पहचाने और युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे । दिनकर ने यह बात साठ के दशक में
संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी । अपने उसी भाषण में दिनकर ने एक और अहम
बात कही थी जो आज के संदर्भ में भी एकदम सटीक है । दिनकर ने कहा था कि हिंदी को देश
में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह से अहिन्दी भाषी भारत के लोग उसको लाना चाहें
। यही एक वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार है भी और भविष्य में
भी होना चाहिए । पिछले साल गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग ने अपने सर्कुलर में कहा
था कि सरकारी विभागों के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट में हिंदी अथवा अंग्रेजी और हिंदी
में लिखा जाना चाहिए । अगर अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जा रहा है तो हिंदी को प्राथमिकता
मिलनी चाहिए । इस सर्कुलर में यह बात साफ तौर पर कही गई है कि अंग्रेजी पर हिंदी को
प्राथमिकता मिलनी चाहिए । हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा
है । विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां
एक भाषा का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता है । इतना अवश्य है कि राजकाज की एक भाषा होनी
चाहिए । इस बात को भी हमारे देश में सक्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने समझा और हिदी
को प्रमुखता मिलनी शुरू हो गई । इसके अलावा हिंदी में उनको कारोबारी संभावनाएं नजर
आईं, लिहाजा उन्होंने इस भाषा को बढ़ाना शुरू कर दिया । कहने का तात्पर्य यह है कि
बाजार ने हिंदी को अपनाया ।
अब अगर साहित्य के लिहाज से देखें तो सोशल मीडिया का श्वेत और श्याम पक्ष दोनों
हैं । इसकी तात्कालिकता और सतहीपन इसकी खास कमियां हैं । मनगढंत और काल्पनिक भ्रम,
अफवाह, विकृति और विद्रूपता फैलाने में भी इसकी नकारात्मक भूमिका बहुधा उजागर होती
है । सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने दो काम किए हैं । एक तो इसने तमाम हिंदी जाननेवालों
को रचनाकार बना दिया है । जिसे भी थोड़ी बहुत साहित्य में रुचि है वो लिख कर पोस्ट
कर दे रहा है । उनके दोस्त बहुधा उसको लाइक भी कर देते हैं, कई बार पढ़कर कई बार बिना
पढ़े । उनकी रचना पर मिली तारीफ उनको भ्रमित भी करती हैं । सोशल मीडिया के लिए यह अच्छा
भी है और बुरा भी । अच्छा इसलिए को रचने वाले को मंच मिला । बुरा इस वजह से कि अच्छे
बुरे लेखन का भेद मिटता जा रहा है । कई लेखकों को सोशल साइट्स खास कर फेसबुक पर निराशाजनक
माहौल दिखाई देता है । उनको लगता है कि इस आभासी माध्यम ने कागज और कलम की भूमिका खत्म
कर दी है । वहां स्तरीयता को जांचने का कोई पैमाना नहीं है जिसने भी जो लिखा उसको फौरन
पोस्ट कर दिया । उनका मानना है कि इस सुविधा से रचनाशीलता के विकास में बाधा पहुंचती
है । इस तर्क के समर्थन में पहल, धर्मयुग आदि पत्रिकाओं का उदाहरण दिया जाता है जहां
छपने के लिए लेखक मेहनत करते थे । फेसबुक आदि पर तो यह संभव नहीं है । इस तरह की बात
करनेवालों का मानना है कि फेसबुक स्तरहीन रचनाओं के प्रति सहमति बनाने का एक मंच बन
गया है । सोशल मीडिया पर इतना ज्यादा बुरा लिखा जा रहा है कि अच्छा दिखता ही नहीं है
। उसके लिए हंस जैसी नजर होनी चाहिए जो दूध पी ले और पानी छोड़ दे । सोशल मीडिया पर
जिस तरह से वाहवाही का दौर चलता है उससे रचनाओं पर विमर्श नहीं हो पाता है । अच्छा,
बहुत अच्छा, कमाल, वाह, शानदार, छा गए जैसी टिप्पणियां लगातार देखने को मिलती हैं ।
लेखकों को सोशल मीडिया पर अपनी तारीफ सुनने के व्यामोह से उबरना होगा । इसके अलावा
सोशल मीडिया पर आत्मानुशासन की सख्त आवश्यकता है । लेखक को टिप्पणी करने के पहले यह
सोचना चाहिए कि वो क्या लिख रहा है और उसके क्या निहितार्थ हैं
इससे इतर हिंदी में एक और वर्ग है जो सोशल मीडिया को अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम
मानता है । उनका मानना है कि सोशल मीडिया अपने आप को उद्घाटित करने का बेहतर मंच है
और वो हिंदी के फैलाव के हित में है । सोशल मीडिया की वजह से हिंदी तो वृहत्तर पाठक
वर्ग तक पहुंच ही रही है , साहित्य भी लगातार लोगों तक पहुंचकर स्वीकृति पा रहा है
। इस वक्त कई ब्लॉग चल रहे हैं जहां गंभीर साहित्य सृजन हो रहा है । फेसबुक और इंटरनेट
के फैलाव का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां आपको कबीर
सूर से लेकर अब के एकदम नए रचनाकारों की कृतियां एक साथ पढ़ने को उपलब्ध हैं । सोशल
साइट्स के फैलाव से साहित्य लिखना आसान हुआ है
। अगर किसी कवि या कहानीकार की रचना किसी कारणवश नहीं छप सकती है तो उसके पास
अपने पाठकों तक पहुंचने का एक वैकल्पिक मंच है । सोशल मीडिया भविष्य का माध्यम हैं
। दरअसल जो लोग सोशल मीडिया को लेकर सशंकित हैं उनको समझना होगा कि कोई भी चीज पक्का
होने के पहले कच्चा ही होता है । इसी तरह से सोशल मीडिया पर साहित्य इस वक्त अपने कच्चेपन
के साथ मौजूद है । लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हमेशा से भाषा के हित में रहा है । अब अगर
हम सोशल मीडिया के एक और उजले पक्ष को देखें तो वह विमर्श और संवाद का एक बेहतरीन मंच
है । जिस तरह से हिंदी पट्टी में कॉफी हाउस संस्कृति खत्म हो गई, साहित्यक रुति वाली
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन धीरे-धीरे बंद होता गया ऐसे में फेसबुक ने हिंदी के गंभीर
मुद्दों को बहस के लिए एक मंच दिया है । वहां हर तरह के विषय पर बहस होती है । कई बार
निष्कर्ष भी निकलता है । वहां हिंदी के सवालों पर टकराहट भी होती है जिसकी गूंज इंटरनेटसे
बाहर भी सुनाई देती है । कुल मिलाकर अगर हम देखें तो सोशल मीडिया के फैलाव से हिंदी
का हित ही हो रहा है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी के लोग इस माध्यम को अपनाएं और
वहां अपनी भाषा को लेकर आगे बढ़ें ।
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