गंगा प्रसाद विमल हिंदी के अजातोशत्रु लेखक हैं
और हिंदी समाज में उनकी जबरदस्त लोकप्रियता है। विमल को अकाहनी आंदोलन का जनक भी
माना जाता है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्लाय में लंबे समय तक अध्यापन किया और फिर
भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक रहे। बाद में जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र के विभागाध्यक्ष भी रहे। इन्होंने विपुल लेखन
किया है और देश-दुनिया के कई संस्थाओं से पुरस्कृत भी हुए हैं। बातचीत पर आधारित ये संक्षिप्त टिप्पणी।
मैं 24 अगस्त 1964 को दिल्ली आ गया था और उसी दिन
दिल्ली कॉलेज ज्वाइन किया था। दिल्ली कॉलेज अब जाकिर हुसैन कॉलेज के नाम से जाना
जाता है। उस वक्त वो अजमेरी गेट के एक पुराने से हेरिटेज बिल्डिंग में हुआ करता
था। उस वक्त दिल्ली कॉलेज के प्रिसिंपल मिर्जा महमूद बेग थे जिन्होंने डॉ नगेन्द्र
की असहमति के बावजूद मेरा चयन किया था। वो समय ऐसा था जब दिल्ली विश्वविद्यालय के
कॉलेजों के हिंदी विभाग में डॉ नगेन्द्र की मंजूरी के बगैर पत्ता नहीं हिलता था। जब
मैं दिल्ली कॉलेज में नौकरी करने लगा तो करोलबाग में एक फ्लैटनुमा घर किराए पर लिया
जिसमें अपने साथियों रवीन्द्र कालिया और प्रयाग शुक्ल के साथ रहता था। हमारे घर पर
ढेर सारे साहित्यकारों का आना जाना होता था। बड़े लोगों के आमे के कारण हमारे फ्लैट
पर भी साहित्य जगत का जमावड़ा लगता था। एक बार खबर फैल जाती थी कि द्विवेदी जी
करोलबाग पहुंच रहे हैं तो बहुत सारे लेखक वहां पहुंच जाते थे। उस वक्त ना तो अब
जितनी औपचारिकता थी और ना ही संकोच।
जब मैं करोलबाग मे रहता था तो तब भी वो बड़ा
बिजनेस सेंटर हुआ करता था। बहुधा लेखिकाएं करोलबाग आती थीं दुपट्टा आदि खरीदने। मेरे
मित्र मुझे मजाक में कहते थे कि तुम भी किसी को दुपट्टा दिलवा लाओ लेकिन तबतक मेरा
प्रेम परवान चढ चुका था, जिससे बाद में मेरी शादी हो गई। हजारी प्रसाद द्विवेदी,
रमेश कुंचल मेघ जैसे बड़े लेखक भी हमारे फ्लैट पर आते थे और हमें गुड्डा-गुड़िया
समझ कर प्रेम किया करते थे, इसी हिसाब से हमारे साथ व्यवहार करते थे। हमलोग कनॉट
प्लेस के रिवोली में फिल्म देखने जाया करते थे। मुझे याद है कि मैंने रिवोली में
तीसरी कसम फिल्म देखी थी, कमलेश्वर को भी साथ ले जाकर दिखाया था। उसके बाद फिल्म
पर अपने कमेंट लिखकर फणीश्वर नाथ रेणु जी को भी बताया था।
जब मैं दिल्ली आया था तब और उसके बाद के कई सालों
तक यहां का सहित्यिक माहौल बहुत ही हर्षोत्पादक था। उस वक्त हमारा डेरा-बसेरा कनॉट
प्लेस का टी हाउस हुआ करता था। रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त से लेकर
शिवमंगल सिंह सुमन तक और श्रीकांत वर्मा जैसे दिग्गज टी हाउस नियमित आते थे। ये
सभी बड़े लेखक नए लेखकों से बहुत प्रेम करते थे और उनमें शब्द के प्रति अटूट
विश्वास था। इन बड़े लेखकों की दिल्ली में बहुत कद्र थी समाज से लेकर सत्ता के
गलियारों तक में। नई कहानी की तिकड़ी के सर्वप्रिय लेखक मोहन राकेश के अलावा
राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर भी यहां बैठकी किया करते थे। बाहर के लेखक भी जब
दिल्ली आते थे तो एक चक्कर टी हाउस का जरूर लगाते थे। निदा फाजली से हमारी दोस्ती टी
हाउस में ही हुई थी। उस समय दिल्ली का जो साहित्यिक माहौल साझेदारी का था। हिंदी,
उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक साथ मिल बैठकर अपनी अपनी भाषाओं में क्या
लिखा जा रहा है इसपर चर्चा करते थे। इस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय का माहौल भी बहुत
अच्छा था औकर साहित्यकारों में अहंकार नहीं था। उसके बाद की पीढ़ी में बहुत अहंकार
आ गया। स्वार्थों और हितों के टकराहट की वजह से क्षेत्रीयतावाद का भी उभार हुआ,
जिसने ज्यादातर लेखकों की साहित्यिक समझ को कुंद कर दिया। रचनाओं में भाषिक उर्जा
का ह्रास होता चला गया। इसका दुष्प्रभाव ये हुआ कि हिंदी में साहसपूर्ण तरीके से
अपनी बात कहनेवाले कम होते चले गए। अशोक वाजपेयी बेहद प्रतिभाशाली लेखक थे लेकिन
वो भी अष्टछापी होकर रह गए। लेकिन मैं आशावादी हूं और मेरा मानना है कि साहित्यिक
माहौल से नकारात्मकता और चाटुकारिता ख्तम होगी।
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