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Sunday, December 23, 2018

फिल्मों में ‘आधी दुनिया’ का सच


पिछले दिनों मनोरंजन की एक अंतराष्ट्रीय बेवसाइट ने टॉप टेन स्टार ऑफ इंडियन सिनेमा की सूची प्रकाशित की। इस सूची में शीर्ष पर दीपिका पादुकोण थीं और दूसरे नंबर पर शाहरुख खान। इस खबर के आम होते ही कई विद्वानों ने इसको फिल्म इंडस्ट्री में महिला सशक्तीकरण से जोड़कर देखा। कइयों ने तो यहां तक कह दिया कि दीपिका पादुकोण की 2018 में एक ही फिल्म आई, बावजूद इसके वो लोकप्रियता में एक नायक को पछाड़कर शीर्ष पर पहुंची। इसके पहले भी हिंदी सिनेमा में महिलाओं के बढ़ती धमक को रेखांकित करने का उपक्रम चल पड़ा था। इस बात पर खूब लिखा जाने लगा कि हिंदी फिल्मों में फिल्म निर्माण से लेकर अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ती जा रही है। बोल्ड विषयों पर फिल्मों के निर्माण से लेकर उनके निर्देशन के क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव को चिन्हित किया जाने लगा। चाहे वो राज़ी फिल्म की सफलता के बाद मेघना को या फिर विवादों के बाद लिपस्टिक अंडर माय बुर्का की निर्देशक अंलकृता श्रीवास्तव को या फिर निल बटे सन्नाटा और बरेली की बर्फी की सफलता के बाद अश्विनी अय्यर तिवारी को फिल्मों में महिलाओं के सशक्त होने के प्रतीक के तौर पर दिखाया जाने लगा। जब ये चर्चा होती है तो इनके अलावा जोया अख्तर की चर्चा भी की जाती है। जोया ने जिंदगी ना मिलेगी दोबारा जैसी बेहद सफल और अच्छी फिल्म का निर्देशन किया उसके बाद भी चंद फिल्मों का निर्देशन किया लेकिन वो निरंतरता कायम नहीं रख पाईं। उनकी सहयोगी रीमा कागती को भी आंशिक सफलता ही मिली। इन सबके काफी पहले 1998 में महेश भट्ट ने तनुजा चंद्रा को फिल्म दुश्मन में मौका दिया था। लेकिन तनुजा चंद्रा भी निर्देशक के तौर पर अपने करियर में निरंतरता कायम नहीं कर पाईं।  ये सभी महिला फिल्म निर्देशक बॉलीवुड के रिच बॉय क्लब जैसा कोई समूह नहीं बना पाईं। बॉलीवुड में रिच बॉय क्लब उन निर्माताओं और निर्देशकों का छोटा सा समूह है जो हिंदी फिल्मों को लगभग चलाता है। इस समूह के ज्यादातर सदस्यों के पिता बड़े फिल्म निर्माता-निर्देशक रहे हैं। मुंबई की फिल्मी दुनिया से जुड़े लोग इस विशिष्ट समूह के सदस्यों को जानते हैं।
हिंदी में अगर फिल्मों की दुनिया को देखें तो ये अपने शुरुआती दौर से पुरुष प्रधान रहा है। राज कपूर के परिवार की महिलाओं के फिल्मों में काम करने को लेकर लंबे समय तक अघोषित सा प्रतिबंध था। काफी अरसे बाद करिश्मा कपूर ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा। हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक नायिकाओं को फूल पत्ती के बराबर माना और चित्रित किया जाता रहा। तीन साल पहले कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में सिनेमा पर आयोजित एक सत्र में बेहद दिलचस्प वाकया हुआ। इस सत्र में राजेश खन्ना के जीवनीकार और फिल्म अध्येता गौतम चिंतामणि, शशि कपूर पर पुस्तक लिखनेवाले असीम छाबड़ा और राजेश खन्ना पर ही एक और किताब लिखनेवाले यासिर उस्मान शामिल थे। इस सत्र को फिल्म समीक्षक मयंक शेखर संचालित कर रहे थे। इस सत्र में स्टारडम के वैश्विक फिनोमिना पर बात हो रही थी। बात होते होते हिंदी फिल्मों में स्टारडम पर चली आई। अब ठीक से याद नहीं है लेकिन उस वक्त किसी वक्ता ने यह कह दिया था कि बॉलीवुड में स्टार तो अभिनेता ही हो सकते हैं और किसी भी अभिनेत्री को स्टारडम हासिल नहीं है। श्रोताओं के बीच इस बात को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। सभी एक सुर में इस बात का विरोध करने लगे थे। श्रोताओं की प्रतिक्रिया को देखते हुए लगभग सभी वक्ता बैकफुट पर आ गए थे और सफाई देने लगे थे। श्रोताओं के लिए वो एक भावनात्मक मसला था जो यथार्थ से कोसों दूर था। बॉलीवुड हमेशा से पुरुष प्रधान रहा है, सिर्फ अभिनेता और अभिनेत्रियों के स्टारडम और मेहनताना की बात क्यों की जाए, पर्दे के पीछे भी अहम भूमिका निभानेवाले ज्यादातर पुरुष ही हुआ करते थे। अगर हम फिल्म संगीत के क्षेत्र को ही देखें तो हमें दो-तीन ही नाम नजर आते हैं। एक सरस्वती देवी का नाम लिया जाता है जिन्होंने 1930 और 40 के दशक में फिल्मों में संगीत दिया था। इन्हें हिमांशु राय ऑल इंडिया रेडियो से बांबे टॉकीज में लेकर आए थे। सरस्वती देवी ने 1935 की फिल्म जवानी की हवा में संगीत दिया लेकिन उनको पहचान मिली 1936 की फिल्म अछूत कन्या से। सरस्वती देवी पारसी परिवार से थीं और उस वक्त इस बात को लेकर उनके समुदाय में काफी विरोध भी हुआ था कि लड़की कैसे इस पेशे में आ गई है। सरस्वती देवी के दौर मे नरगिस की मां जद्दनबाई ने भी कुछ फिल्मों में संगीत दिया था लेकिन अगर हम गंभीरता से विचार करें तो सरस्वती देवी के बाद उषा खन्ना पर नजर आकर टिकती है। उस पाए की संगीतकार अबतक बॉलीवुड में कोई नहीं आया।  
फिल्मों से इतर अगर हम बात करें, तो मनोरंजन की दुनिया का दूसरा हिस्सा यानि टेलीविजन पर भी पुरुषों का ही साम्राज्य था। लेकिन टी वी की दुनिया में 2000 में एक बदलाव दिखा। ये वो दौर था जिसमें अभिनेता जितेन्द्र की बेटी प्रोड्यूसर बनकर मनोरंजन की दुनिया में दस्तक दे रही थी और बालाजी टेली फिल्मस की स्थापना हो चुकी थी। बालाजी टेलीफिल्म्स ने दो हजार में एक सीरियल पेश किया जिसने मनोरंजन की दुनिया को पूरी तरह से बदल दिया। क्योंकि सास भी कभी बहू थी की शुरुआत हुई, समृति ईरानी रातों रात स्टार बन गईं। इसमें वीकानी परिवार की बहू की अदाकारी को लोगों ने खूब पसंद किया। कहा जाता है कि रामायण और महाभारत क बाद इसी सीरियल को सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली थी। एकता कपूर का के फॉर्मूला बेहद हिट साबित हुआ। दर्शकों की नब्ज पर एकता का हाथ था और उनके सीरियल की नायिकाएं विद्रोही भी होती थीं लेकिन वो घरपरिवार को साथ लेकर भी चलती भी थीं। एक तरफ क्योंकि सास भी कभी बहू थी में विरानी परिवार की बहू थी तो दूसरी ओर कसौटी जिंदगी की में कोमलिका की बिंदास अदाएं दर्शकों को लुभा रही थीं। ये वो दौर था जब लगा कि मनोरंजन की दुनिया में एक महिला ने अपनी मेहनत के बल पर जगह बनाई। बालाजी टेलीफिल्म्स ने बाजार का रुख किया और कंपनी दो हजार में शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुई। एकता कपूर ने फिल्में भी बनाईं। एकता कपूर के दौर में जिस तरह से स्मृति ईरानी को शोहरत मिली उसके पहले पल्लवी जोशी भी अपने सीरियल्स और फिल्मों के बदौलत लोकप्रिय हो रही थीं। टीवी पर शांति, तारा जैसे धारावाहिक दर्शकों को पसंद आ रहे थे। मनोरंजन की दुनिया में एकता कपूर की कामयाबी की इस कहानी के अलावा या समानंतर कोई दूसरी कहानी दिखाई नहीं देती जहां कोई महिला प्रोड्यूसर ने अपने दम पर इस पुरुष प्रधान समाज में अपनी पहचान ही नहीं बनाई बल्कि अपने मानदंड भी तय किए। एकता को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। इस वर्ष जागरण फिल्म समिट में उन्होंने अपने संघर्षों के बारे में विस्तार से बताया था। इस बात को भी रेखांकित किया गया था कि जैसे जैसे वो सफल होती गईं उनके नाम के साथ सनकी और गुस्सैल जैसे विशेषण जोड़े जाने लगे। उनके बारे में तरह तरह के किस्से फैलाए जाने लगे थे लेकिन इन सबसे बेखबर वो अपने काम में लगी रहीं।  
फिल्मों और टीवी की दुनिया में पुरुषों का प्रभाव साफ तौर पर दिखता है जहां किसी महिला निर्देशक को प्रतिभा के बावजूद काम नहीं मिलता है। अगर महिला निर्देशक है तो उसको धन जुटाने में एड़ी चोटी को जोर लगाना पड़ता है, बावजूद इतनी मेहनत के उनको कोई प्रोड्यूसर नहीं मिलता है। फायनेंसर भी पुरुषवादी मानसिकता से इस कदर जकड़ा होता है कि उसको लगता है कि महिला उसके निवेश पर उतना रिटर्न लाकर नहीं दे सकती है जितना की पुरुष निर्देशक। पुरुष प्रधान इस दुनिया में महिला निर्देशकों को प्रोड्यूसर के अलावा वितरक मिलने में भी दिक्कत होती है। फिल्म बन भी जाती है तो उसको रिलीज करने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। इस दौरान प्रतिभाशाली महिलाओं को तरह-तरह से संकेत दिए जाते हैं कि वो पुरुषों के साथ कारोबारी साझेदारी कर ले, अन्यथा इस दुनिया में लंबे समय तक टिके रहना मुश्किल होगा। फिल्मी दुनिया में पुरुषों का कितना दबदबा है, इसका अंदाज हाल ही में प्रधानमंत्री के मुंबई दौरे के वक्त भी मिला। प्रधानमंत्री से मिलने पहुंचे फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की जब तस्वीर जारी हुई तो उसमें कोई महिला प्रतिनिधि नहीं थी।    

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