प्रसिद्ध फ्रेंच
दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र की आत्मकथा का नाम है ‘द वर्ड’ यानि शब्द। सार्त्र की
इस आत्मकथा में ‘शब्द’ सिर्फ अक्षरों का समुच्चय नहीं है, बल्कि वो शब्द
की महत्ता को स्थापित करने का एक उपक्रम भी है। शब्द की महत्ता किसी भी ताकतवर
सत्ता को हमेशा चुनौती देती है, लिहाजा दुनियाभर के तानाशाहों ने शब्द की महत्ता
को खत्म करने की कोशिशें की। हिटलर ने भी जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस
पर कब्जा किया था तो सबसे पहले उसने भी शब्द की सत्ता पर अपना आधिपत्य जमाने की
कोशिश की। इस कोशिश में उसने फ्रांस के मशहूर प्रकाशन गृह गालीमार के अधिग्रहण का
अध्यादेश जारी कर दिया। उसके बाद ही उसने फ्रांस के बैंक के अधिग्रहण का फरमान
जारी किया था। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जहां सत्ता ने शब्द की सत्ता खत्म
करने की कोशिश की। जहां-जहां लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुईं वहां शब्द की सत्ता को
खत्म करने की कोशिश नहीं हुई। शब्द की सत्ता यानि पुस्तकों की मजबूत उपस्थिति।
हमारे देश में लोकतंत्र की जड़े इतनी गहरी हैं कि शब्द-सत्ता लगातार मजबूत हो रही
है। कई बार तो पुस्तकों को लेकर उस शहर के बौद्धिक चरित्र तक को जानने-समझने में
मदद मिलती है। कहा भी गया है कि किसी भी शहर की बौद्धिक पहचान इस बात से होती है
कि वहां कितने पुस्तकालय हैं। तकनीक के प्रभाव में और पुस्तकों के ई-फॉर्मेट में
उपलब्ध होने की वजह से और जिंदगी में बढ़ती आपाधापी से पुस्तकालयों का आकर्षण भले
हो थोड़ा कम हो गया है, लेकिन छपे हुए शब्दों को लेकर आकर्षण अब भी कायम है। कुछ
सालों पहले जब इंटरनेट का फैलाव हो रहा था और कह जाने लगा था कि पुस्तकें खत्म हो
जाएंगी तो ऐसी ही एक चर्चा के दौरान वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी ने बेहद
दिलचस्प बात कही थी। अरुण माहेश्वरी के मुताबिक ‘इंटरनेट और सोशल मीडिया के फैलाव ने किताबों के पक्ष में एक सकारात्मक
माहौल बनाया। पाठकों को सोशल मीडिया पर पुस्तकों के बारे में तत्काल जानकारी मिल
जाती है जिससे एक उत्सकुकता का वातावरण बनता है। पाठक पुस्तक तक पहुंचना चाहते
हैं।‘ इस बात की तस्दीक देशभर में लगनेवाले पुस्तक मेलों
में उमड़नेवाली भीड़ करती है। दिल्ली में भी विश्व पुस्तक मेला के दौरान जिस तरह
से पुस्तक प्रेमियों का जमावड़ा होता है वो छपे हुए शब्द की महत्ता को लेकर
आश्वस्त करता है।
पूरी दुनिया में पुस्तक
मेलों का बहुत लंबा और समृद्ध इतिहास और समाज में पुस्तक संस्कृति बनाने और उसको
मजबूती देने में भी अहम भूमिका रही है। भारत में भी छोटे-छोटे असंगठित पुस्तक
मेलों का आयोजन होता था लेकिन संगठित तरीके से पुस्तक मेले का आयोजन 1970 के दशक
में शुरू हुआ जब दिल्ली और कोलकाता में पुस्तक मेला का आयोजन शुरू हुआ। 1972 में
पहली बार दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला आयोजित किया गया। उसके बाद हर दो साल पर
दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाने लगा। दिल्ली के विश्व पुस्तक
मेला की प्रतीक्षा देशभर के पुस्तक प्रेमी करते हैं। 9 दिनों के इस पुस्तकोत्सव
में देशभर के पुस्तक प्रेमी जुटते भी हैं। 2012 से विश्व पुस्तक मेला के आयोजक
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने इस आयोजन को प्रतिवर्ष करने का फैसला लिया और तब से ये
सालाना उत्सव की तरह आयोजित हो रहा है। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला का आयोजन
प्रगति मैदान में होता है। पिछले साल और इस वर्ष वहां निर्माण कार्य की वजह से मेले
के आयोजक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को जगह कम मिल रही है। इसकी वजह से मेले में
शामिल होनेवाले प्रकाशकों और वहां पहुंचनेवाले पुस्तकप्रेमियों को दिक्कत हो रही
है। पाठकों को निर्धारित हॉल तक पहुंचने में दिक्कत होती है। पिछले वर्ष तो तमाम
दिक्कतों के बावजूद पुस्तक प्रेमी बड़ी संख्या में मेले में पहुंचे थे। राष्ट्री
पुस्तक न्यास के अध्यक्ष प्रोफेसर बल्देव भाई शर्मा को उम्मीद है कि इस वर्ष भी
पाठकों की संख्या बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि न्यास इस बात को लेकर प्रतिबद्ध है कि
वहां पहुंचनेवाले पुस्तकप्रेमियों को निराश नहीं होना पड़े और वो आराम से मेलास्थल
तक पहुंच जाए।
2016 में प्रकाशित
खबरों को आधार माना जाए तो उस वर्ष 9 दिनों में 12 लाख पुस्तक प्रेमी विश्व पुस्तक
मेला में पहुंचे थे। 2019 का पुस्तक मेला भी 5 जनवरी से लेकर 13 जनवरी तक दिल्ली
के प्रगति मैदान में आयोजित है। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला ने पिछले पैंतालीस
साल में अपने आयोजन और लोगों की भागीदारी के बूते पर पूरी दुनिया में एक खास पहचान
बनाई। इस पुस्तक मेला को फ्रैंकफर्ट बुक फेयर और लंदन बुक फेयर के समकक्ष माना
जाने लगा। इस प्रतिष्ठा की वजह भारत में पुस्तकों का बढ़ता बाजार भी है। हिंदी और
भारतीय भाषाओं का बाजार लगातार बढ़ रहा है। अब तो गूगल जैसी कंपनियां ने भी अपना
ध्यान हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की सामग्री पर केंद्रित किया हुआ है। बाजार के
मानकों ने भले ही पुस्तक मेलों को अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलवाई हो लेकिन
पुस्तकों की गुणवत्ता और विषयों की विविधता ने पाठकों का दिल जीता।
आगामी विश्व पुस्तक
मेले को लेकर हिंदी और अंग्रेजी के प्रकाशकों ने काफी तैयारी की है। प्रकाशकों से
बातचीत के आधार पर जो एक तस्वीर बनती है वो बेहद दिलचस्प है। साहित्यिक रुझान के
पाठकों के अलावा अगर बात करें तो ज्यादातर पाठकों की रुचि विवादित पुस्तकों में
होती है। इसके अलावा इन दिनों जीवनियों और आत्मकथाओं की ओर भी पाठकों का रुझान
रेखांकित किया जा सकता है। इन सबसे इतर आम पाठकों की रुचि धार्मिक प्रतीकों की
कहानियों में या फिर पौराणिक चरित्रों में बढ़ी है। इसको ध्यान में रखकर प्रकाशक किताबें
लिखवा भी रहे हैं और बाजार का मूड भांपते हुए कई युवा और स्थापित लेखक इन चरित्रों
और विषयों पर लिख भी रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि विश्वामित्र से लेकर घटोत्कच
तक पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही है। ऐतिहासिक चरित्रों पर भी खूब लिखा जा रहा है
और पाठकों द्वारा पसंद भी किया जा रहा है। विश्व पुस्तक मेला का एक और महत्व है कि
वहां भारतीय भाषा में उपलब्ध पुस्तकें एक छत के नीचे मिल जाती हैं। हिंदी की लगभग
अप्राप्य और धरोहर हो चुकी पुस्तकें वहां बहुधा मिल जाती हैं। सबसे बड़ी बात ये कि
देशभर के लेखकों और प्रकाशकों को आपस में मिलने जुलने का अवसर भी मिलता है। कुल
मिलाकर अगर हम देखें तो दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला एक ऐसे मंच के तौर पर स्थापित
हो चुका है जहां कारोबारी समझौते और करार तो होते ही हैं लेखकों और पाठकों के बीच
संवाद का एक मजबूत सेतु भी तैयार होता है।
2 comments:
सटीक लिखा है आपने , अक्सर ऑनलाइन साहित्य और प्रकाशित साहित्य को प्रतियोगी के रूप में देखा जाता है पर आपने सही विश्लेष्ण किया कि ऑनलाइन साहित्य के कारण ही प्रकाशित साहित्य भी और ज्यादा ही पढ़ा जा रहा है, यहाँ तक कि नए लेखकों को भी अपनी पहचान बनाने व् पाठकों को अपनी पुस्तक से परिचित कराने में आसानी हुई है, वहीँ पाठकों में पुस्तकों के कुछ अंश पढने के बाद उनमें उत्सुकता भी जगी है |हिंदी और भारतीय भाषों का बढ़ता बाज़ार सभी पुस्तक प्रेमियों के लिए सुखद है |
उत्सव जिसका वर्ष भर हम इंतज़ार करते हैं
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