पिछले दिनों ‘अभिव्यक्ति का उत्सव’ ‘जागरण संवादी’ लखनऊ में संपन्न हुआ। ये
उत्सव तीन दिनों तक लखनऊ के मशहूर संगीत नाटक अकादमी के लॉन में आयोजित था। अभिव्यक्ति
के इस उत्सव में विचारों पर मंथन हुआ था जिसमें राजनीति से लेकर धर्म जैसे विषय
थे। 30 नवंबर से 2 दिसंबर 2018 तक तीन दिनों तक चले इस समारोह के पहले दिन कुछ लोग
संवादी के सत्रों के दौरान मोदी सरकार को लेकर चाय के स्टॉल पर चर्चा कर रहे थे। पक्ष-विपक्ष
में बातें हो रही थीं। विधानसभा चुनाव के नतीजों पर कयास लगाए जा रहे थे। मोदी
सरकार के कामकाज को लेकर बात हो रही थी तो अचानक एक सज्जन ने आरोप उछाला कि सरकार
ने तो कला संस्कृति तक को नहीं बख्शा, अपने लोगों को फिट तो किया ही, दूसरे राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को बढावा दिया और जिसने उस विचारधारा से अलग जाकर कोई
काम किया या करना चाहा उसकी राह में बाधा खड़ी की गई। तल्ख अंदाज में उन्होंने
मोदी सरकार के मंत्रालयों को भी कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया। सर्द शाम के
बीच संवाद का तापमान बढ़ने लगा था।कुछ लोग मोदी सरकार के पक्ष में और कुछ विपक्ष
में बातें कह रहे थे। मोदी सरकार पर असहिष्णुता के आरोप भी उछले। इस गर्मागर्म बहस
को सुन रहा एक शख्स अचानक सामने आया और बोला कि मोदी सरकार पर चाहे जो आरोप लगा लो
लेकिन इसपर अपने विरोधी विचारधारा को रोकने या बाधा डालने का आरोप गलत है। उसने
कहा कि मौजूदा हुकूमत ना तो विरोधियों के काम में बाधा डालती है और ना ही असहिष्णु
है।
मोदी सरकार की आलोचना
करनेवाले ने उस शख्स की बात हंसी में उड़ा दी और कहा कि आपको कुछ पता नहीं है,
लिहाजा आप खामोश रहें। इतना सुनते ही सामनेवाले ने मोबाइल पर अपना फेसबुक खोला और
कुछ दिखाने की कोशिश करने लगा। उसने एक पोस्ट दिखाई जिसमे लिखा था ‘हमारी पहली शॉर्ट फिल्म आबा, जिसने बर्लिनाले,
राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कई पुरस्कार जीते, के बाद दूसरी शॉर्ट फिल्म अल-वार
न्यूयॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई। इसके बाद उसकी स्क्रीनिंग गोवा में आयोजित इंटरनेशनल
फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के व्यूइंग रूम में हुई। अल-वार फिल्म से जुड़े सभी
लोगों को बधाई।‘ उसने दावा किया कि ये
पोस्ट फिल्म के निर्माता ने लिखी है। मोबाइल पर ये पोस्ट दिखाने के बाद वो शख्स
थोड़ा आक्रामक हो गया। उसने कहा कि आप लोगों को मालूम है कि ये फिल्म अलवर में
कथित रूप से मॉब लिंचिंग का शिकार हुए शख्स पहलू खान और नोएडा में भीड़ की हिंसा
का शिकार अखलाक की हत्या की घटना को केंद्र में रखकर बनाई गई है। ऐसी फिल्म को
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के दौरान गोवा में दिखाया गया।
वो इतने पर ही नहीं
रुका उसने वहां मौजूद लोगों को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के व्यूइंग रूम
के बारे में भी बताना शुरू कर दिया। उसने कहा कि गोवा में आयोजित होनेवाले
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के पहले चार दिनों के लिए राष्ट्रीय फिल्म
विकास निगम ‘फिल्म बाजार’ का आयोजन करता है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम,
सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध संस्था है। फिल्म बाजार के ‘व्यूइंग रूम' का उद्देश्य वैसी
फिल्मों को दिखाना होता है जिसको पूरा करने के लिए धन चाहिए, दुनिया भर में बिक्री
और वितरण को लेकर बातें हो सके, करार हो सके, अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में फिल्मों
की स्क्रीनिंग हो सके। व्यूइंग रूम में फिल्मों से जुड़े महत्वपूर्ण लोग आते हैं,
जिसमें फाइनांसर, वितरक, फिल्म फेस्टिवल के निदेशक आदि शामिल होते हैं। यहां पर विशेष
व्यवस्था के तहत कंप्यूटर पर फिल्में दिखाई जाती हैं। यहां फिल्म को दिखाने के लिए
एक विशेष सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया जाता है जिसके मार्फत अगर सेल्स एजेंट, वितरक
या निवेशक, फिल्म निर्माता या निर्देशक से संपर्क करना चाहें तो कर सकते हैं। फिल्म
बाजार के इस रूम में निवेशक उन फिल्मों को वर्गीकृत करके भी देख सकते हैं जिनको
फिल्म पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। व्यूइंग रूम में सिर्फ फिल्मों के
खरीदार, निवेशक, वर्ल्ड सेल्स एजेंट और फिल्म फेस्टिवल्स के प्रोग्रामर को आने की
इजाजत होती है।
शाम ढलने लगी थी और
हल्की ओस से वातावरण नम होने लगा था लेकिन वो शख्स जिस तरह से पूरे वाकए को बता
रहा था सभी उसको ध्यान से सुन रहे थे। मोदी सरकार के जो दो तीन आलोचक वहां खड़े थे
और बड़े जोर शोर से आलोचना कर रहे थे वो भी खामोशी से उनकी बातें सुन रहे थे। उसने
चुनौती भरे अंदाज में कहा कि अगर आप लोगों को मेरी बात पर भरोसा नहीं हो तो फिल्म
बाजार की वेबसाइट पर जाकर देख लीजिएगा, जहां संस्था ने एलान किया हुआ है कि 2018
में फिल्म बाजार के व्यूइंग रूम के लिए 222 एंट्री आई थी। इस सूची में अल-वार का
नाम भी शॉर्ट फिल्म की श्रेणी में है। और अगर मोदी सरकार असहिष्णु होती या
फासीवादी होती तो अल-वार फिल्म को अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रमोट करने का मंच नहीं
मिलता। इतना कहकर वो चुप हो गया।
इन बातों को सुनने के
बाद मोदी सरकार की आलोचना करनेवाले ने उनसे पूछा कि ये पूरी कहानी बताकर वो साबित
क्या करने चाहते हैं। तपाक से उत्तर आया कि साबित कुछ नहीं करना चाहते हैं बस,
इतना बताना चाहते हैं कि मोदी सरकार के पिछले साढे चार साल के कार्यकाल में
असहिष्णुता को लेकर जो हल्ला मचाया गया है वो बिल्कुल निराधार है। सरकार पर
फासीवाद को बढ़ावा देने का जो इल्जाम लगाया जाता है वो बेबुनियाद है। मोदी सरकार
कला संस्कृति के मामले में बहुत उदार है क्योंकि अगर वो इन मामलों में उदार नहीं
होती तो अखलाक और पहलू खान की हत्या पर बनी फिल्म को वैसे आयोजन में शायद जगह नहीं
मिलती जिसका आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय करता है।
मोदी सरकार पर हमलावर
लोगों के चेहरे को देखकर यह नहीं लग रहा था कि मामला शांत होनेवाला है। उस शख्स ने
प्रति तर्क देना शुरू कर दिया। उसने पिछले साल गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म
फेस्टिवल के दौरान फिल्म ‘एस दुर्गा को इंडियन
पैनोरमा से बाहर करने पर हुए विवाद का उदाहरण दिया। उसने आरोप लगाया कि उस वक्त
मंत्रालय और स्टीयरिंग कमेटी हर तरह से इस फिल्म को रोकना चाहती थी क्योंकि सरकार
इस फिल्म के मूल नाम से खफा थी और उसको लगता था कि इससे हिंदुओं की भावना आहत हो
सकती है। मामला इतना बढ़ गया था कि विरोधस्वरूप उस वर्ष के इंडियन पैनोरमा के अध्यक्ष
सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। फिल्मकार केरल हाईकोर्ट पहुंच गए थे। बावजूद इसके
फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो सका था। इसी सिलसिले में उसने इसी दौरान न्यूड फिल्म को
लेकर उठे विवाद को भी रेखांकित किया। तर्क-वितर्क इतना रोचक हो गया था कि कुछ और
लोग वहां जमा हो गए। अब बारी उस शख्स की थी जो मोदी सरकार को उदार साबित करना चाह
रहा था। उसने बेहद संजीदगी से पूरा किस्सा बताया कि किस तरह से फिल्म ‘एस दुर्गा’ के फिल्मकारों ने
सेंसर सर्टिफिकेट में ‘एस’ के बाद तीन बॉक्स बनाकर फिल्म को प्रचारित करने का
नया तरीका निकाला था, जिसका पता चलने पर सेंसर बोर्ड ने उसके सर्टिफिकेट के
पुनरावलोकन की बात करते हुए पूर्व में जारी सर्टिफिकेट रद्द कर दिया था। जिसे केरल
हाई कोर्ट ने उचित ठहराया था। उसने मोदी सरकार की आलोचना कर रहे व्यक्ति से अनुरोध
किया कि कृपया समग्रता में किस्सा बयान किया करें ताकि जनता अपनी राय बना सके।
ये बातचीत फिल्मों से
होते हुए कला संस्कृति तक जा पहुंची, जिसमें दोनों पक्षों में फिर से बहस शुरू हो
गई। मोदी के आलोचक एक उदाहरण देते थे तो उनके समर्थक अन्य उदाहरण के साथ अपनी बात
रखते थे। इतने सारे उदाहरण आए कि आखिरकार मोदी की आलोचना कर रहे शख्स ने हथियार डाल
दिए। इस पूरी बहस को सुनते हुए मेरे दिमाग में पुरस्कार वापसी विवाद से लेकर अब तक
के सारे विवाद एक-एक करके सामने आते चले गए। इस स्तंभ में कई बार सरकार की उदारता
की चर्चा की गई लेकिन अल-वार फिल्म को लेकर जिस तरह से उस शख्स ने अपनी बात रखी तो
वाकई ये लगा कि सिर्फ कला संस्कृति ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों में
भी सरकार का दखल होता नहीं है। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक तरीके से लोग आवेदन
देते हैं और नियम-कानून के तहत उनको प्रदर्शन आदि की अनुमति मिल जाती है। अभी
साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की घोषणा हुई है। उसमें भी पुरस्कार वापसी अभियान का
अंग रहे और उस दौर में महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाने की
घोषणा करनेवाले रहमान अब्बास को उनके उपन्यास पर अकादेमी पुरस्कार देने का एलान
हुआ है।
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