एक दिन बाद नया वर्ष
शुरू होगा। नववर्ष में तरह-तरह के संकल्प लिए जाएंगे।बुरी आदतों को छोड़ने का
संकल्प, अच्छी आदतों को अपनाने का संकल्प। इन संकल्पों में एक संकल्प को शामिल
करना आवश्यक है, पुरानी पीढ़ी के लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का नई
पीढ़ी के लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों के उत्साहवर्धन का संकल्प। नई
पीढ़ी की प्रतिभा को पहचानने और उसको सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हुए
महत्वपूर्ण अवसरों पर चिन्हित करने का संकल्प। इस संकल्प की वकालत मैं इस वजह से
कर रहा हूं क्योंकि इस वर्ष जितने भी आयोजनों में गया, उसमें ज्यादातर में पुराने
लेखक और कलाकार नई पीढ़ी को कोसते नजर आए। साहित्य में भी जब नई वाली हिंदी की बात
होती है तो ज्यादातर पुरानी पीढ़ी के लोग उसकी आलोचना में जुट जाते हैं। बगैर इस
ओर ध्यान दिए कि ये कोई नई-पुरानी हिंदी है ही नहीं, ये तो बस मार्केटिंग का एक
नुस्खा है। प्रकाशक ने हिंदी किताबों की भीड़ से अपनी किताबों को अलग दिखाने के
लिए ये जुमला गढ़ा जो चल गया। इसी तरह से फिल्मों से जुड़े बुजुर्गों और खुद को
संजीका फिल्म जानकार बताने वालों को सुनिए तो लगातार ये कहा जाता है कि पुराने
जमाने के गाने कितने अच्छे होते थे और अब को अश्लीलता की सारी हदें पार हो गई हैं,
गीतों का स्तर काफी गिरा है, कुछ भी ऊलजलूल लिखा जा रहा है आदि-आदि। जबकि स्थिति
ऐसी है नहीं। अगर हम पुराने फिल्मी गानों की तुलना अब के गानों से करें तो पुराने
गानों में भी अश्लीलता होती थी। अश्लीलता से भी अधिक महिलाओं के शरीर का वर्णन और
प्रेम की स्थितियों का आपत्तिजनक वर्णन खुलेआम किया जाता था। ये तब की बात है जब
हमारे देश में नैतिकता की खूब दुहाई दी जाती थी। फिल्मों से लेकर समाज तक में।
अगर हम आजादी के पहले
की फिल्मों को देखें तो उसमें भी इस तरह के शब्द होते थे जो अश्लील और द्विअर्थी
होते थे। 1944 की एक फिल्म थी ‘मन की जीत’ जिसके एक गाने का वाक्य देखा जा सकता है। ‘मोरे जुबना का देखो उभार, पापी जुबना का देखो उभार/जैसे नदी की मौज, जैसे तुर्कों की फौज/ जैसे
सुलगे से बम, जैसे बालक
उधम/जैसे गेंदवा खिले, जैसे लट्टू हिले, जैसे गद्दर
अनार।‘ इस
गीत को लिखा है मशहूर
शायर-गीतकार जोश मलीहाबादी ने और इसको गाया है जोहराबाई अंबालेवाली ने। अब इस गीत
में प्रयोग किए गए शब्द को लेकर कुछ कहने की या उसकी व्य़ाख्या करने की आवश्यकता है
क्या। जो लोग ‘दबंग टू’ में करीना कपूर के एक आइटम नंबर को लेकर परेशान हो
रहे थे उनको ये गीत सुनना और देखना चाहिए। दबंग टू के इस गीत के बोल थे ‘अंगडाइयां लेती हूं मैं जोर जोर से, उह आह की आवाज
आती है हर ओर से।‘ उस समय से तर्क भी दिए
गए थे कि गीतकार ने सारी मर्यादाएं तोड़ डाली हैं, आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग
किया है। तब भी पुराने गीतों को बेहतर बताया गया था। उस वक्त भी लोग 1970 की फिल्म
‘जॉनी मेरा नाम’ का गीत भूल गए जिसको
आनंद बक्षी ने लिखा था और आशा भोंसले ने गाया था। उस गीत के बोल थे ‘हुस्न के लाखों रंग कौन सा रंग देखोगे../आग है ये बदन, कौन सा अंग देखोगे।‘ ये गीत पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया था जो पूरे गीत
के दौरान अपनी मादक अदाओं के साथ नृत्य करती हैं और जैसे जासे फिल्म में गाना आगे बढ़ता है वैसे-वैसे
वो अपने कपड़े भी उतारती चलती हैं।
ये सिर्फ एक फिल्म या
एक गाने की बात नहीं है, उस दौर में कई फिल्मों में इस तरह के गीत लिखे और फिल्माए
गए थे जिसको लता मंगेशकर से लेकर आशा भोंसले तक ने अपनी आवाज दी थी। 1968 की फिल्म
‘इज्जत’ का एक गाना है जिसे
साहिर लुधयानवी ने लिखा था जिसके बोल हैं- ‘जागी बदन में ज्वाला,
सैंया तूने क्या कर डाला’। इसमें आगे की पंक्ति
है, ‘मना मना कर हारी, माने नहीं मन मतवाला’। और आगे लिखा गया ‘अब से पहले हाल न ऐसा देखा था, अरे सोलह साल में, साल ने ऐसा देखा था।‘ इसी वर्ष एक और फिल्म आई थी ‘साथी’। इसका एक गीत है जिसे
मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था और लता मंगेशकर ने अपनी जादुई आवाज में इसको गाया
था। जरा इस गीत की पंक्तियों पर ध्यान दिया जाए और फिर उसके बारे में विचार किया
जाए। गीत की पंक्तियां हैं- ‘मेरे जीवन साथी, कली थी
मैं तो प्यासी, तूने देखा खिल के हुई बहार’। गीतकार आगे कहता है, ‘मस्ती नजर में कल के
खुमार की/मुखड़े पर लाली है पिया तेरे प्यार की।‘ गीतों में सिर्फ प्रणय निवेदन ही नहीं होता था
बल्कि नायक नायिका के बीच के संबंधों को जीवंत कर दिया जाता था। गीतकार स्थितियों
की कल्पना कर उसको शब्दों में पिरो देता था। लगा मंगेशकर और आशा भोंसले ने जमकर
ऐसे गाने गाए थे जिनको अश्लीलता के बेहद करीब के कोष्टक में रखा जा सकता है। लिखा
भी उस दौर के मशहूर गीतकारों ने।
1967 में एक फिल्म आई
थी ‘अनीता’। जिसके गीत राजा
मेंहदी अली खान ने लिखे थे और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने संगीत दिया था। इस गाने को
लता मंगेशकर ने गाया था और उसको बोल हैं, ‘कैसे करूं प्रेम की मैं
बात, कैसे करूं मैं प्रेम की बात, हाय ए ना बाबा ना बाबा, पिछवाड़े बुड्ढा खांसता’। इसमें ही आगे की पंक्ति है, ‘काहे जोरा-जोरी मेरा घूंघटा उतारते, देख ये तमाशा
दैया तारे आंखे मारते। इसमें अन्य पंक्तियां भी इसी तरह की हैं और हर स्थिति के
बाद कहा जाता है कि ये कैसे करें पिछवाड़े बुड्ढा खांसता। इसके पहले 1964 में एक
सुपर हिट फिल्म आई थी ‘संगम’ जिसमें राज कपूर, राजेन्द्र कुमार और वैजयंतीमाला
जैसी चोटी के अभिनेता और अभिनेत्री ने काम किया था। फिल्म भी सुपरहिट रही थी। उसमें
हसरत जयपुरी का लिखा और लता मंगेशकर की आवाज में गाया एक गाना है, ‘मैं क्या करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया’। इसमें नायिका कहती हैं ‘मैंने जो उठाया घूंघट बुड्ढा गुस्सा खा गया, अब क्या
होगा अंजाम मुझे बुड्ढा मिल गया’। इस तरह के सैकड़ों
गाने हैं चाहे वो 1971 की फिल्म ‘दुश्मन’ का गाना हो जिसे आनंद बक्षी ने लिखा था और लता
मंगेशकर ने गाया था। इसके बोल थे, ‘हो बलमा सिपहिया हाय
रे...शाम को पकड़ा हाथ सबरे तक ना छोड़ा रे’
या फिर 1977 में आई
फिल्म ‘अब क्या होगा’
का गीत है मैं रात भर
ना सोई रे नादान बालमां जिसमें आगे की पंक्तियां हैं कि घोड़ा पकड़कर कर रोई, खंभा
पकड़कर रोई ने बेईमान बालमां। शत्रुध्न सिन्हा और बिंदू पर इस गाने को फिल्माया
गया था। ये तो उस दौर की बात है अगर 1970-80 के दौर में भी देखें तो इस तरह के
गाने लिखे गए। 1982 में विधाता फिल्म आई थी उसमें ‘सात सहेलियां खड़ी खड़ी’ वाला जो गाना है उसके
बोल भी द्विअर्थी हैं। इस गीत को भी आनंद बक्षी ने ही लिखा था।
कहने का आशय इतना है कि
जब हम नई पीढ़ी को किसी परंपरा को भ्रष्ट या नष्ट करने का दोषी ठहराते हैं तो हम
अपने दौर को भुला देते हैं। नई पीढ़ी या युवा पीढ़ी में भी सृजनात्मकता की कमी
नहीं है, वो भी बेहद सधे हुए अंदाज में अपनी परंपरा को ही आगे बढ़ाते हैं। कला
साहित्य और संस्कृति में परंपरा बहुत महत्वपूर्ण होती है। इसमें कई बार ये होता है कि उत्साह में लेखक, कलाकार
थोड़ा आगे बढ़ जाते हैं । आगे बढ़ना भी चाहिए। प्रयोग करने भी चाहिए। अपने तरीके
से अपनी बात कहनी भी चाहिए क्योंकि अगर सृजन लीक से हटकर प्रयोग नहीं करेगा तो
सृजनात्मकता उभर कर सामने नहीं आएगी। युवाओं को खुलकर खेलने का मौका मिलना चाहिए,
हर बात पर हर रचना पर, हर कृति पर टोका-टाकी होने से रचनात्मकता बाधित होने का
खतरा रहता है। वरिष्ठों का काम टोकना है पर खारिज करना उचित नहीं होगा। टोकना भी देश
काल और परिस्थिति के हिसाब से हो तो बेहतर होगा। नया साल युवाओं का ऐसा सृजनात्मक
साल हो जिसमें उनको अपने वरिष्ठों और बुजुर्गों का साथ मिले, वरिष्ठ अपने कनिष्ठों
को सही राह दिखाएं इसी कामना के साथ आप सबों को नए वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं।
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