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Saturday, October 6, 2018

विवाद से उठते बड़े सवाल


हिंदी साहित्य को लेकर फेसबुक पर बहुधा ऐसे विवाद उठते रहते हैं जिनका लक्ष्य किसी लेखक को नीचा दिखाना होता है। फेसबुकिया विवादों से साहित्यिक सवाल कम ही उठते रहे हैं। हिंदी साहित्य में वाद-विवाद का इतिहास काफी पुराना है। अगर हम विवादों के इतिहास पर नजर डालें तो पहले के विवादों और अब के विवादों में जमीन आसमान का अंतर नजर आता है। पहले रचनात्मक बहसें हुआ करती थीं। किसी खास रचना को लेकर, किसी स्थापना को लेकर विवाद हुआ करता था।  हिंदी में स्वस्थ साहित्यिक विवादों की परंपरा रही है, हलांकि उन्नीस सौ नब्बे के बाद के दौर को याद करें तो यह पाते हैं कि उस दौर में साहित्यिक विवादों का स्तर गिरने लगा था और साहित्यिक सवाल गौण होने लगे थे। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप प्रमुख होते चले गए। उस वक्त जो प्रमुख विवाद उठे उसमें कवि उपेन्द्र कुमार की कहानी झूठ का मूठ को लेकर उठा विवाद था। उसी दौर में पहल पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन ने एक पुस्तिका छापी थी उसको लेकर भी खूब विवाद हुआ था। पहल पर लगे आरोपों पर ज्ञानरंजन ने जो सफाई दी थी उसकी भाषा देखिए, प्रोफेसर कॉलोनी भोपाल में शराब पीकर एक रमणी के घर के पास कार भिड़ा देने की खबरें भी अखबारों में हैं, पर हमको इसको पीली पत्रकारिता का हिस्सा मानते हैं।...एक कुलपति अपार राशि सालों तक केवल पत्रिकाएं निकालने, गोष्ठियां करने, अपना व्याख्यान जगह जगह करवाने, स्वागत करने में खरच् करता रहा। अपनी साहित्यिक हवस को पूरा करने में लगाता रहा। अपने कुनबे के लोगों को यहां वहां विभिन्न प्रकार के लाभ देने में लगाता रहा, वह अपने क़लम में सार्वजनिक कोषों का प्रगतिशील वामपंथी संगठनों या पत्रिकाओं द्वारा उपयोग की बात लिखते शरमाता भी नहीं। स्पष्ट है कि ये टिप्पणी अशोक वाजपेयी पर थी। जो अगले हिस्से में ज्ञानरंजन ने स्पष्ट भी कर दिया था। उसके बाद उन्होंने राजेन्द्र यादव पर मुलायम सिंह यादव से विज्ञापन और लालू यादव से पुरस्कार लेने की बात को रेखांकित किया था। लब्बोलुआब ज्ञानरंजन ये कहना चाहते थे कि यादव होने का फायदा राजेन्द्र जी ने बखूबी उठाया। ज्ञानरंजन ने उस वक्त प्रभाष जोशी पर भा हमला बोला था। उन्होंने लिखा था कि प्रभाष जोशी वही हिंदू हैं जिन्होंने देवराला सती कांड का प्रबल समर्थन करनेवाला संपादकीय लिखा था। जिन्होंने सती कांड को महिमामंडित किया और कभी उसको रिग्रेट नहीं किया। थकान और वृद्धत्व की वजह से ये लोग इस सचाई को शायद भूल गए। इसका विरोध लगभग एक सैकड़ा लेखकों ने किया, इसकी निंदा भी की थी। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि प्रभाष जोशी आर एस एस हेडक्वार्टर महाल नागपुर के सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति थे और वहां दिन रात उनके लिए दरवाजे खुले रहते थे। वहां प्रभाष जोशी की सत्ता थी। लेकिन राज्यसभा में जाने में मदद न करने की वजह से वे आखिरकार नाराज हुए, दूर हुए। रातोरात कोई परिवर्तन नहीं हो गया। मित्रों आपको शायद पता कि प्रभाष जी ही हरिशंकर परसाईं के घोर विरोधी थे। ज्ञानरंजन यहीं नहीं रुके थे उन्होंने नामवर जी पर भी हमला बोला था सारे प्रघानमंत्रियों से मैत्री के बावजूद वे न तो दूतावासों में जा सके, न राज्यपाल बन सके, न राज्यसभा में प्रवेश पा सके। साहित्य अकादमी अलग निकल गई। अब नोचे जाने के लिए हमलोग बचे हैं। अंत में उनकी टिप्पणी थी नामवर जी का ठंडा कसाईपन, मुद्रा राक्षस की कालिखी उमंग और राजेन्द्र यादव की जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा वाली धमकी हमारे लिए संघर्ष की नई राह खोलती है। इस तरह के शब्दों में व्यक्तिगत हमले शुरू हो गए थे। बकायदा पुस्तिका छाप कर क्योंकि तब फेसबुक जमाना नहीं था।
ये वही दौर था जब राजेन्द्र यादव के लेख होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ को लेकर भी साहित्य जगत में जमकर वाद विवाद हुए थे। यहां यह बताना जरूरी है कि जब साहित्य अकादमी के चुनाव में महाश्वेता देवी और गोपीचंद नारंग के बीच मुकाबला हुआ था तो उस वक्त हिंदी जगत ने एक बेहद अप्रिय विवाद देखा था। गोपीचंद नारंग पर जिस तरह के आरोप लगाए गए थे वो बेहद घटिया थे। कहा गया था कि अगर नारंग अध्यक्ष बन गए तो साहित्य अकादमी संस्कार भारती की सैटेलाइट बन जाएगी। उस वक्त अपने सारे मतभेदों को भुलाकर नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र यादव एक हो गए थे। गोपीचंद नारंग के खिलाफ साहित्यिक महागठबंधन बना था। महागठबंधन बना तो जरूर था लेकिन उसका फायदा महाश्वेता देवी को नहीं हो सका था और नारंग पर तमाम घटिया आरोपों के बावजूद उनकी जीत हुई थी और साहित्यिक महागठबंधन हार गया था।  इस तरह के कई विवादास्पद किस्से हैं। और अभी हाल मे जिस तरह से विश्वनाथ त्रिपाठी प्रकरण में साहित्यिक गरिमा तार तार हुई वो सबसे सामने है।
ताजा विवाद उठा हिंदी की वरिठ लेखिका उषाकिरण खान की एक टिप्पणी से जो उन्होंने उपन्यासकार रजनी गुप्त के हाल में प्रकाशित उपन्यास किशोरी बिन्नू का ब्लर्ब लगा कर लिखी। ऊषा किरण खान ने लिखा- मैत्रेयी पुष्पा जी ने सच कहा कि किशोरी बिन्नू बुंदेलखंड के हर गाँव में मिलेगी। मैं कहती हूँ भारत के सभी गांव में रहती है ऐसी स्त्री। यहां तक तो सब सामान्य था लेकिन इस पोस्ट पर मैत्रेयी की टिप्पणी से विवाद की ज्वाला भड़क गई। मैत्रेयी ने लिखा- किशोरी बिन्नू नामक रजनी गुप्त के उपन्यास का फ्लैप मैंने नहीं लिखा है। यह इस उपन्यास की लेखिका की धोखाधड़ी है। मेरे नाम का इस्तेमाल करना कानूनन अपराध है। ऐसी लेखिकाएं ही आज के लेखन को संदेहास्पद बनाती हैं। मैत्रेयी पुष्पा की इस टिप्पणी पर रजनी गुप्त ने सफाई दते हुए मैत्रेयी को संबोधित टिप्पणी की। उसमें लिखा- यह उपन्यास किशोरी का आसमां के नाम से पहले छपा था जिसकी भूमिका आपने ही लिखी थी। रजनी गुप्त ने फिर कई टिप्पणियां की जिसमें वो लगातार ये जताने की कोशिश करती रही कि ये वही पुराना उपन्यास है सिर्फ शीर्षक बदला है। कुछ बचकानी दलीलें भी दीं कि ये दूसरा संस्करण है, सिर्फ शीर्षक ही तो बदला है। जब उनपर ये आरोप लगा कि ये पाठकों के साथ छल है तो उन्होंने कहा कि नए उपन्यास में पहले पृष्ठ पर ये साफ तौर पर लिखा है कि ये उपन्यास पहले फलां नाम से छप चुका है। विवाद इतना बढ़ा कि मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा कि रजनी गुप्त झूठ और धोखेबाजी की मास्टर हैं। फिर क्या था अन्य लोग भी इसमें कूद पड़े । कुछ रजनी के पक्ष में मैत्रेयी को कोसने लगे तो कुछ ने रजनी को नसीहत दी कि आपको मैत्रेयी को बताना चाहिए थे। मारने पीटने तक की अमर्यादित बातें हुईं। कुछ लोगों ने मजे लिए तो कुछ ने गंभीरता से सवाल उठाए। इस पूरे प्रकरण में सबसे अच्छी भूमिका प्रकाशक की रही, प्रकाशन ने फौरन खेद प्रकट किया, मैत्रेयी जी से माफी मांगी और फ्लैप को बाजर से वापस लेने का एलान कर दिया।
इस पूरे प्रकरण को देखने समझने के बाद मेरे मन में कुछ सवाल उठ रहे हैं। पहली बात तो ये कि जो उपन्यास एक दशक पहले किसी अन्य प्रकाशन से छपा हो उसको नए प्रकाशक से दूसरे नाम से छपवाने का औचित्य क्या है। अगर छपवाना ही था तो नाम क्यों बदला गया? नाम बदला गया तो पुराने फ्लैप लेखक को सूचित क्यों नहीं किया गया। नए उपन्यास किशोरी बिन्नू में फ्लैप पर जो छपा है उसको देखने पर लगता है कि पूर्व में लिखे से छेड़छाड़ की गई। नए फ्लैप में लिखा है साहित्य जगत में लेखिका का नाम नया नहीं है, लेकिन प्रस्तुत उपन्यास का तेवर नया है, जिसका नाम है किशोरी बिन्नू। अब सवाल यही है कि अगर मैत्रेयी ने किशोरी का आसमां का फ्लैप लिखा था तो उसमें जाहिर सी बात है किशोरी का आसमां लिखा होगा, वो यहां वो किशोरी बिन्नू कैसे हो गया। इस बात का उत्तर तो रजनी गुप्त को देना चाहिए। अगर उन्होंने इसको बदला है तो इस बात की सूचना मैत्रेयी पुष्पा को दिया जाना चाहिए था। जो कि इस केस में नहीं हुआ प्रतीत होता है। यह क्या है इसको परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल हिंदी में प्रोफेशनलिज्म का घोर अभाव है और कोई किसी का नाम कहीं भी इस्तेमाल करते वक्त ये भूल जाता है कि आने वाले दिनों में ये समस्या हो सकती है। इस समस्या से जो विवाद उठता है वो इतना विद्रूप होता है जो साहित्य जगत को शर्मिंदा करने के लिए काफी होता है। इस पूरे प्रकरण में भी यही हुआ। झूठ, फरेब, मक्कारी से लेकर बीहड़ में ले जाकर मारने पीटने जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ, शर्मसार तो हिंदी साहित्य ही हुआ। पता नहीं कब हिंदी में प्रोफेशनलिज्म आ पाएगा?


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