हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान जब वेब सीरीज पर चर्चा हो रही थी,
तो एक श्रोता ने उसके कंटेंट पर सवाल खड़े करते हुए वक्ताओ से ये सवाल पूछा कि
क्या यहां दिखाई जानेवाली सामग्री पर किसी तरह का नियमन होना चाहिए? वहां बैठे ज्यादातर लोगों के उत्तर नकारात्मक
थे। मंच पर बैठे एक वक्ता ने ये तो यहां तक कह दिया कि एक जगह तो छोड़ दो जहां
सरकार का दखल नहीं हो। एक दूसरे वक्ता ने इस प्रश्न के उत्तर को कलाकारों की
कलात्मक अभिव्यक्ति से जोड़ दिया। तीसरे वक्ता ने सेंसर बोर्ड का हवाला देते हुए
कहा कि अगर सरकार का दखल होगा तो बेव सीरीज भी संस्कारी हो जाएंगे। लेकिन
प्रश्नकर्ता डटा हुआ था और वो इस विषय पर संवाद की मांग कर रहा था। खैर सत्र का
समय नियत था और वो उसके प्रश्न के साथ ही खत्म हो गया। लेकिन उस श्रोता के प्रश्न
इतने वाजिब थे सत्र खत्म होने के बाद भी उसपर चर्चा होती रही। दरअसल हाल के दिनों
में जो चर्चित बेव सीरीज आए हैं उनमें जिस तरह की सामग्री आई है उसको लेकर भारतीय
समाज में चर्चा होनी चाहिए। उसको यह कहकर उचित नहीं ठहराया जा सकता है कि वो
कलात्मक स्वतंत्रता है। एक सीरीज आई थी लस्ट स्टोरीज। इसमें चार अलग अलग कहानियों
का चार अलग अलग निर्देशकों ने बनाया था। अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बैनर्जी
और करण जौहर। अब अगर उसकी सामग्री को देखें तो जिस तरह से यौन प्रसंगों को दिखाया
गया है, वो प्रश्न तो खड़े करता है। इसी तरह से एक और बेव सीरीज चर्चित रही
सेक्रेड गेम्स। अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों में गाली-गलौच वाली
भाषा के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने यही काम इस सीरीज में भी किया है। इसके अलावा ‘सेक्रेड गेम्स’ में सेक्स प्रसंगों
की भरमार है, अप्राकृतिक यौनाचार के भी दृश्य हैं, नायिका को टॉपलेस भी दिखाया गया
है। हमारे देश में इंटरनेट पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर पूर्व प्रमाणन जैसी
कोई व्यवस्था नहीं है लिहाजा इस तरह के सेक्स प्रसंगों को कहानी में ठूंसने की छूट
है। सेक्रेड गेम्स के लगभग हर एपिसोड में इस तरह से दृश्य हैं और ये सबसे सस्ता
तरीका है दर्शकों को अपनी ओर खींचने का और उनकी उत्सुकता जगाने का । यौन-प्रसंगो में जिस तरह की नग्नता का
चित्रण होता है और हिंसा के बाद जो शारीरिक विकृतियां दिखाई गई हैं वो जुगुप्साजनक
हैं। ये कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता है। इन दो बेव सीरीज के बाद एक और
सीरीज आई घोउल। इसमें भी वही सब रिपीट किया है। इसमें इतनी हिंसा और खून खराबा है
जो किसी विकृत मानसिकता को ही संतुष्ट कर सकती है। इस तरह के कई विदेशी सीरीज पर
इन प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध हैं।
दरअसल जब हम इस तरह क बेव सीजीज पर विचार
करते हैं तो मुझे ऑल्ट बालाजी का गूगल पर दिखाई देनेवाला पेज याद आ जाता है। अगर
आप गूगल पर ऑल्ट बालाजी सर्च करेंगे तो जो पेज खुलता है उसमें ये बताया गया है कि ये
प्लेटफॉर्म मुख्यधारा की मनोरंजन का विकल्प है। लेकिन उसके नीचे लिखा है रागिनी
एमएमएस, गेट हॉट विद रागिनी। उसके नीचे लिखा है हॉट, वाइल्ड एंड लस्टफुल बैयल (सुंदरी)।
इसके आगे कहने को कुछ रह नहीं जाता है। इससे मंशा साफ हो जाती है कि प्लेटफॉर्म
अपने दर्शकों को क्या दिखाना चाहता है। यहां आपको सुभाष बोस के बारे में भी
समाग्री उपलब्ध है, लेकिन ये भी है। ये नाम इस लिहाज से ले रहा हूं कि ये चर्चित
रहे हैं। इससे ये संदेश नहीं जाना चाहिए कि इनको ही लक्षित करके लिखा जा रहा है।
कमोबेश सभी जगह यही हालात है। सवाल यही है कि फिल्मों में तो गाली को भी बीप करो
और बेव सीरीज में गाली को फिल्मा कर दिखाओ। फिल्मों में अश्लीलता के नाम पर लंबे
चुबंन दृश्यों पर आपत्ति लेकिन बेव सीरीज में नायिका को टॉपलेस दिखाने की छूट। फिल्मों
में हिंसा को देखते ही सेंसर बोर्ड की कैंची तैयार लेकिन हिंसा की विकृतियों को
चित्रित करने की बेव सीरीज को छूट। यह कैसी विडंबना है, यह कैसा दोहरा रवैया है,
इस पर विचार तो होना ही चाहिए। अगर हम बेव सीरीज पर किसी भी प्रकार की नियमन की
बात करें तो हमे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की आधारभूत संरचना को देखना होगा। सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत
सेंसर बोर्ड का गठन किया । 1983 में इसका नाम बदलकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड
कर दिया गया। उसके बाद भी इस एक्ट के तहत समय समय पर सरकार गाइडलाइंस जारी करती
रही है । जैसे पहले फिल्मों की दो ही कैटेगरी होती थी ए और यू । कालांतर में दो और
कैटेगरी जोड़ी गई जिसका नाम रखा गया यू ए और एस । यू ए के अंतर्गत प्रमाणित
फिल्मों को देखने के लिए बारह साल से कम उम्र के बच्चों को अपने अभिभावक की सहमति
और साथ आवश्यक किया गया ।एस कैटेगरी में स्पेशलाइज्ड दर्शकों के लिए फिल्में
प्रमाणित की जाती रही हैं । फिल्म प्रमाणन के संबंध में सरकार ने एक और गाइडलाइंस
6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही लंबे समय तक कामकाज चल रहा है।
सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) के मुताबिक किसी
फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की
सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए।मित्र
राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो । इसके अलावा तीन और शब्द हैं –
पब्लिक ऑर्डर, शालीनता और नैतिकता का पालन
होना चाहिए। अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है लेकिन
शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है। बदलते वक्त के
साथ शालीनता और नैतिकता की परिभाषा भी बदलती चली गई। जब अरुण जेटली के पास सूचना
और प्रसारण मंत्री का प्रभार था तो उन्होंने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति
बनाई थी जिसने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानि सीबीएफसी में सुधारों को लेकर
रिपोर्ट सौंपी थी। उस समिति ने कई सुझाव दिए थे जो अब तक फाइलों में बंद है।
यथास्थितिवाद के इस दौर में उस समिति की सिफारिशों पर आगे बढ़ने की सूरत नजर नहीं
आती है। अब अगर बेवसीरीज के कंटेंट पर कलात्मक स्वतंत्रता की बात करें तो यह तर्क
गले नहीं उतरता है। कलात्मक आजादी के नाम पर जिस तरह से नग्नता और विकृत हिंसा को
परोसा जा रहा है उसके आलोक में दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे
डी कपूर का आठ अप्रैल दो हजार चार के फैसले मैं साफ कर दिया था कि अभिव्यक्ति की
आजादी के नाम पर कुछ भी परोसना गलत है। अपने फैसले में उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी
के साथ साथ जिम्मेदारी भी तय की थी। उन्होंने एम एफ हुसैन के एक मामले में कहा था
कि ‘याचिकाकर्ता
ने महाभारत की पात्र द्रोपदी, जिन्हें
हिंदू धर्म को मानने वाले लोग इज्जत की नजरों से देखते हैं, को भी पूरी तरह से निर्वस्त्र चित्रित किया है, जबकि चीरहरण के वक्त भी द्रोपदी निर्वस्त्र नहीं हो
पाई थी । इस पेंटिंग में जिस तरह से द्रोपदी का चित्रण हुआ है वह साफ तौर से
हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचानेवाला और नफरत पैदा करनेवाला है ।‘
बेवसीरीज में
परोसेजानीवाली नग्नता और हिंसा को लेकर निर्माताओं को पहले तो स्वनियमन के बारे
में सोचना चाहिए। उन्हें भारतीय समाज को ध्यान में रखते हुए, यहां के रिश्तों की
संरचना को ध्यान में रखते हुए सीरीज बनानी चाहिए। भारतीय समाज अभी पश्चिम के उन
देशों की तरह नहीं हो पाया हा जहां नग्नता पूरी तरह से स्वीकार्य है, जहां की
फिल्मों में शारीरिक संबंधों का चित्रण आम बात हो। स्वनियमन अगर नहीं संभव है तो
फिर सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म पर जिस तरह से
थोड़े देसी और बहुतायत में विदेशी कंटेट उपलब्ध हो रहे हैं उसपर निगरानी की जरूरत
है। अगर सरकार को लगता है कि इसपर नियमन की जरूरत नहीं है तो फिर फिल्मों पर
नियंत्रण के लिए बनाई गई संस्था सीबीएफसी का भी कोई औचित्य है नहीं क्योंकि अगर इंटरनेट
के माध्यम से नग्नता परोसने की छूट है तो फिर फिल्मवालों को क्यों नहीं? सूचना
और प्रसारण मंत्रालय को इस दिशा में पहल करनी चाहिए और इस प्लेटफॉर्म पर केंटेट
बनानेवालों के साथ बैठकर मंछन करना चाहिए। उसके बाद इसपर देशव्यापी बहस होनी
चाहिए, हर पक्ष की राय को सामने लाने का उपक्रम हो ताकि सबकी सहमति से कोई हल
निकाला जा सके।
1 comment:
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/10/2018 की बुलेटिन, अमर शहीद सेकेण्ड लेफ्टिनेन्ट अरुण खेतरपाल जी को सादर नमन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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